E-Vechiles: देश में इलेक्ट्रिक व्हीकल्स को मिली प्रसिद्धी, लेकिन अब जानिए रिपोर्ट में क्या हुआ खुलासा?

Electric Vehicles Environmental Concerns
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Electric Vehicles Environmental Concerns
E-Vechiles: EVs पूरी तरह से पर्यावरण के लिए सुरक्षित नहीं हैं, एक EV बनाने में 5-10 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है, अगर सही तकनीक और नीतियां अपनाई जाएं, तो इन्हें वास्तव में ग्रीन और सस्टेनेबल बनाया जा सकता है।

E-Vechiles: भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों (EVs) को तेजी से लोकप्रिय मिली और अब यह हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं। भारत सरकार ने PM E Drive स्कीम के तहत 10,900 करोड़ रुपये की मंजूरी दी है, ताकि अधिक से अधिक लोग इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने के लिए प्रेरित हो सकें। इसके साथ ही EVs पर सब्सिडी, GST और टैक्स में छूट जैसी सुविधाएं भी प्रदान की जा रही हैं।

लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इलेक्ट्रिक वाहन सच में उतने प्रदूषण मुक्त हैं जितना कि उनका प्रचार किया जाता है? EVs को पर्यावरण के लिए अनुकूल माना जाता है क्योंकि ये गाड़ियां न तो धुआं छोड़ती हैं और न ही शोर करती हैं। क्या ये असल में उतनी "ग्रीन" हैं जितना दावा किया जाता है?

ग्रीन EV की गहरी हकीकत
सच ये है कि EVs का निर्माण और उनकी बैटरियों का उत्पादन पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव डालता है। IMF की एक रिपोर्ट के अनुसार, EV के निर्माण के दौरान सामान्य वाहनों की तुलना में दोगुना कार्बन उत्सर्जन होता है। एक EV के निर्माण में 5-10 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। इसके अलावा, EVs में इस्तेमाल होने वाली लीथियम-आयन बैटरियों के लिए लीथियम, कोबाल्ट और निकल जैसे दुर्लभ धातुओं की खनन प्रक्रिया पर्यावरण पर भारी दबाव डालती है। रिपोर्ट के अनुसार, इन धातुओं को निकालने में 4,275 किलो एसिड वेस्ट और 57 किलो रेडियोएक्टिव रेसिड्यू उत्पन्न होता है।

लीथियम माइनिंग का दुष्प्रभाव
लीथियम की खनन प्रक्रिया पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा साबित हो रही है। रिपोर्ट के मुताबिक, एक टन लीथियम निकालने में 2 मिलियन टन पानी की आवश्यकता होती है। एक EV को बनाने में लगभग 13,500 लीटर पानी खर्च होता है, जबकि एक पेट्रोल कार में यह आंकड़ा करीब 4,000 लीटर होता है। इससे चिली, अर्जेंटीना और बोलीविया जैसे देशों में पानी की भारी कमी हो गई है। चिली में तो 65 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल लीथियम खनन के लिए किया जा रहा था। फिलीपींस और क्यूबा में भी माइनिंग की वजह से बड़ी मात्रा में जमीन बंजर हो चुकी है। पर्यावरणीय असर के कारण फिलीपींस में कई लीथियम खदानों को बंद कर दिया गया है।

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बैटरी चार्जिंग की समस्या
EVs को चार्ज करने के लिए बिजली की जरूरत होती है, लेकिन भारत में 70% बिजली कोयले से उत्पन्न होती है। यदि EVs को कोयले से बनी बिजली से चार्ज किया जाता है, तो 1,50,000 किलोमीटर चलने पर, यह पेट्रोल कार की तुलना में केवल 20% कम कार्बन उत्सर्जन करेगा। मौजूदा बिजली आपूर्ति व्यवस्था में चार्जिंग की बढ़ती मांग के कारण कोयले से बनी बिजली पर निर्भरता बढ़ेगी, जिससे अंततः प्रदूषण बढ़ेगा।

खराब बैटरियां भी खतरे का कारण
जब EVs की बैटरियां खराब हो जाती हैं, तो उनका पुनर्चक्रण (रिसाइकल) करना काफी महंगा और मुश्किल होता है। अधिकांश बैटरियों को लैंडफिल में डंप कर दिया जाता है, जहां से निकलने वाले रसायन भूमि और पानी को जहरीला बना सकते हैं। मौजूदा समय में केवल 5 प्रतिशत EV बैटरियां ही रिसाइकल हो पाती हैं।

ब्रेक और टायर से होने वाला प्रदूषण
EVs का वजन पारंपरिक वाहनों की तुलना में ज्यादा होता है, जिससे इनके टायर और ब्रेक तेजी से घिसते हैं और अधिक प्रदूषण फैलाते हैं। शोध के अनुसार, EVs के ब्रेक और टायर से होने वाला प्रदूषण सामान्य वाहनों के मुकाबले 1,850 गुना अधिक हो सकता है। इन टायरों का निर्माण मुख्यतः क्रूड ऑयल से निकले सिंथेटिक रबर से होता है, जो प्रदूषण का कारण बनता है।

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आखिर क्या है इसका समाधान?
यह कहना गलत होगा कि EVs का विचार पूरी तरह से गलत है। यह तकनीक अभी अपने शुरुआती दौर में है और इसे और बेहतर बनाया जा सकता है। EVs को वास्तव में पर्यावरण के अनुकूल बनाने के लिए हमें खनन प्रक्रियाओं को डीकार्बोनाइज करना होगा, बैटरी रीसाइक्लिंग के लिए बेहतर उपाय ढूंढने होंगे और चार्जिंग के लिए सौर या पवन ऊर्जा का इस्तेमाल करना होगा।

(मंजू कुमारी)

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