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Memory of the World: गोस्वामी तुलसीदास रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ भारतीय जन-मानस में रचा-बसा है। हाल ही में इस ग्रंथ को यूनेस्को की ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड-एशिया पैसिफिक रीजनल रजिस्टर’ में शामिल किया गया है।

Memory of the World: इस दुनिया में सर्वाधिक आदर पाने वाले ग्रंथों में से एक रामचरितमानस की शान में एक और सितारा जुड़ गया है। यूनेस्को की एशिया-प्रशांत क्षेत्र की विश्व समिति ने अपनी दसवीं बैठक में रामचरितमानस, पंचतंत्र और सहृदय लोक-लोकन जैसी तीन रचनाओं को यूनेस्को की ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड-एशिया पैसिफिक रीजनल रजिस्टर’में शामिल किया है। निश्चित रूप से ऐसा होना भारत के साहित्य और कला-संस्कृति को वैश्विक सम्मान मिलना है। इससे भारतीय संस्कृति का सिर गर्व से और भी ऊंचा हुआ है।

सम्मान का भी बढ़ा मान
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा 16वीं सदी में अवधी भाषा में लिखा गया ‘रामचरितमानस’ एक ऐसा महाकाव्य है, जिसको सम्मानित करके खुद सम्मान भी सम्मानित होते हैं। तुलसीदास की यूं तो दो दर्जन से ज्यादा रचनाएं उपलब्ध हैं, लेकिन उन्होंने संसार को जो ‘रामचरितमानस’ जैसा ग्रंथ दिया है, वैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है। यह महाकाव्य भले ही एक कथा कहता हो, लेकिन यह किसी एक दौर की एक कथा कहने वाला ग्रंथ नहीं है। यह दुनिया में हमेशा से मौजूद रहीं और हमेशा ही मौजूद रहने वाली इंसानी सृजन की अनगिनत कथाओं का ऐसा संगम है, जो एक सदी नहीं बल्कि कई सदियों में कभी एक बार ही रचा जाता है।

अद्वितीय साहित्यिक-धार्मिक ग्रंथ
रामचरितमानस सिर्फ महाकाव्य नहीं है, न ही सिर्फ भक्ति का एकत्रित स्वरूप है। यह राष्ट्रीय एकता, सामाजिक समरसता और समन्वय चेतना वाली रचनात्मकता का मानक है। भले ही कुछ लोग अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते बीच-बीच में इस महान ग्रंथ पर सवाल खड़े करते रहे हों, इसे गैरबराबरी और सामंतवाद का पोषक बताते रहे हों। लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि ‘रामचरितमानस’ से ज्यादा समानता और समरसता की वकालत करने वाला कोई दूसरा धार्मिक या साहित्यिक ग्रंथ नहीं है।

सदियों से कायम प्रासंगिकता
रामचरितमानस में भगवान श्रीराम के दो स्वरूप मौजूद हैं- एक उनका पालक स्वरूप और दूसरा संहारक स्वरूप। यह ग्रंथ भक्ति और करुणा से भरा हुआ है, जिसमें मानवीय संबंध एक गरिमा पाते हैं। भारतीय जनमानस में यह किस कदर भीतर तक अपनी मूल्यपरक पैठ रखता है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह ग्रंथ मुगल सम्राट अकबर के दौर में हिंदुओं के बीच जितना लोकप्रिय था, अंग्रेजों के जमाने में भी वैसा ही रहा और अंग्रेजों के जाने के बाद, इन 75 सालों में भी इस ग्रंथ की महत्ता में जरा भी कमी नहीं आई है। यह इस ग्रंथ की अपनी महत्ता ही है कि बिना किसी राजाश्रय के, बिना किसी संरक्षण के आज भी रामचरितमानस भारत में हर साल सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक है। हाल के कुछ सालों में तो यह एक साल के भीतर एक करोड़ प्रतियों से भी ज्यादा बिकी है। आखिर इसकी इतनी लोकप्रियता क्यों है? सिर्फ धार्मिकता इसका कारण नहीं है। सच तो यह है कि रामचरितमानस को धार्मिक-आस्थावान लोगों के साथ-साथ धर्म के प्रति उदासीन लोग भी पढ़ते और मानते हैं। दरअसल, रामचरितमानस के अक्षर-अक्षर में जो भारतीयता घुली-मिली है, उसकी वजह से भी लोग इस ग्रंथ को इतना अधिक प्रेम और सम्मान देते हैं।

मिलता है अनेक समस्याओं का समाधान: 
रामचरितमानस की एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें धर्म, दर्शन या साहित्य किसी भी क्षेत्र में रुचि रखने वालों को अपने लिए मूल्यवान संदेश या उपदेश मिल जाता है। यह अकारण नहीं है कि लोग अपनी रोजमर्रा के जीवन की किसी भी स्थिति को जांचने-परखने या उससे उबरने के लिए ‘रामचरितमानस’ की किसी पंक्ति के निहितार्थ का सहारा लेते हैं। हमारे रोजमर्रा के जीवन से उपजे अधिकांश सवालों के जवाब इस महान ग्रंथ में मिल जाते हैं। चाहे सवाल हमारी सामाजिकता से जुड़ा हुआ हो, व्यावहारिकता से जुड़ा हुआ हो या किसी आधुनिक समस्या से। यह एक ऐसा ग्रंथ है, जो हमें जीवन में धार्मिकता, आध्यात्मिकता और सांसारिकता के बीच समन्वय स्थापित करने की प्रेरणा और मार्गदर्शन प्रदान करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इतनी अद्वितीय विशेषताओं की वजह से ही रामचरितमानस न केवल भारतीय लोगों के बीच बल्कि वैश्विक स्तर पर भी इतना मान पाता है।

लोकमित्र गौतम
 

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