Independent candidates analysis:लोकसभा चुनाव 2024 में जहां राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए सारे जतन कर रही हैं। वहीं, बिहार हो, कर्नाटक या मारवाड़ (राजस्थान) निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों ने राजनीतिक पार्टियों की टेंशन बढ़ा दी है। बिहार में काराकाट से भोजपुरी सुपरस्टार पवन सिंह और पूर्णिया से पप्पू यादव, राजस्थान की बाड़मेर सीट से रवींद्र सिंह भाटी और कर्नाटक से पूर्व बीजेपी नेता केएस ईश्वरप्पा, निर्दलीय प्रत्याशियों के तौर पर चुनावी मैदान में कूद पड़े हैं। इन निर्दलीय प्रत्याशियों का अपना समर्थक वर्ग है, यही वजह है कि इन सीटों पर पहले से कब्जा जमाए बैठी पार्टियों की नींद उड़ गई है। आइए जानते हैं, क्या रहा है देश में निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों को इतिहास।
विधि आयोग ने की थी निर्दलीय प्रत्याशियों पर रोक लगाने की मांग
निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों का इतिहास देखें तो आजादी के बाद के दो चुनावों में ऐसे प्रत्याशियों को तादाद सबसे ज्यादा रही। सबसे ज्यादा निर्दलीय सांसद आजादी के बाद हुए दो लोकसभा चुनावों के दौरान ही चुने गए। हालांकि, इसके बाद निर्दलीय सांसदों की संख्या कम ज्यादा होती रही। इस दरम्यान कई ऐसे मौके भी आए जब निर्दलीय प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की पुरजोर मांग भी उठी। विधि आयोग ने साल 2015 में यह लोक प्रतिनिधित्व कानून 1951 में संसोधन करने की सिफारिश की थी। विधि आयोग ने कहा था कि चुनाव में सिर्फ पंजीकृत राजनीतिक पार्टियों के कैंडिडेट्स को चुनावी मैदान में उतरने की इजाजत दी जानी चाहिए।
लोकसभा चुनाव 2024 में पार्टियों की टेंशन बढ़ाने वाले निर्दलीय प्रत्याशी
इस लोकसभा चुनाव में पूर्णिया से पप्पू यादव ने निर्दलीय कैंडिडेट के तौर पर चुनावी मैदान में उतर कर आरजेडी के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। वहीं, राजस्थान के बाड़मेर के स्वतंत्र प्रत्याशी रवींद्र सिंह भाटी बीजेपी के लिए सिरदर्द बन गए हैं। कुछ इसी तरह से ईश्वरप्पा भी कर्नाटक की शिवमोग्गा सीट से बीजेपी के लिए मुसीबत बनकर उभरे हैं। अपने अपने क्षेत्र के हिसाब से कुछ जगहों पर ऐसे निर्दलीय उम्मीदवारों को वोटकटवा करार दिया जा रहा है, तो कहीं पर इन्हें प्रबल दावेदार बताया जा रहा है। हालांकि देश में कई ऐसे आम चुनाव रहे हैं जिनमें निर्दलीय प्रत्याशियों ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन कर चुनावी विश्लेषकों का पूर्वानुमान भी विफल कर दिया था।
किस आम चुनाव में कितने निर्दलीय प्रत्याशियों को मिली जीत
निर्दलीय उम्मीदवार आजादी के बाद के पहले आम चुनाव से ही चुनावीमैदान में उतरते रहे हैं। साल 1951-52 के लोकसभा चुनाव में 37 निर्दलीय प्रत्याशी चुनकर संसद पहुंचे थे। इसी प्रकार 1952-57 के लोकसभा चुनाव में 42 निर्दलीय प्रत्याशियों का जीत मिली। यह देश में अब तक हुए आम चुनावों में निर्दलीय प्रत्याशियों की जीत का सबसे बड़ा आंकड़ा है। इसके बाद धीरे-धीरे लोकसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशियों की जीत का आंकड़ा घटने लगा। 1962 में 20, 1967 में 35, 1971 में 14, 1977 में 9, 1977 में 9, 1980 में 9, 1984 में 13, 1989 में 12, 1991 में 1,1996 में 9,1998 में 6,1999 में 6, 2004 में 9, 2009 में 9, 2014 में 3 और 2019 में 4 निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीत हासिल की थी।
लोकसभा चुनाव में जीते निर्दलीय प्रत्याशियाें का आंकड़ा:
लोकसभा | साल | निर्दलीय सांसदों की संख्या |
पहली | 1951-52 | 37 |
दूसरी | 1957 | 42 |
तीसरी | 1962 | 20 |
चौथी | 1967 | 35 |
पांचवीं | 1971 | 14 |
छठा | 1977 | 9 |
सातवीं | 1980 | 9 |
आठवीं | 1984 | 13 |
नौवीं | 1989 | 12 |
दसवीं | 1991 | 1 |
ग्यारहवीं | 1996 | 9 |
बारहवीं | 1998 | 6 |
तेरहवीं | 1999 | 6 |
चौदहवीं | 2004 | 9 |
पंद्रहवीं | 2009 | 9 |
सोलहवीं | 2014 | 3 |
सत्रहवीं | 2019 | 4 |
साल दर साल कैसे घटा निर्दलीय कैंडिडेट्स में जनता का विश्वास
भारत की आजादी के बाद, लोकसभा चुनाव जीतने वाले स्वतंत्र उम्मीदवारों की संख्या पिछले कुछ वर्षों में अलग-अलग रही है। 1951-52 के पहले आम चुनावों में, 37 स्वतंत्र उम्मीदवारों ने सीटें जीतीं, जो चुनाव लड़ने वाले कुल स्वतंत्र उम्मीदवारों का लगभग 6.90% था। 1957 के चुनावों में, 42 स्वतंत्र उम्मीदवारों ने जीत हासिल की, जो कुल स्वतंत्र उम्मीदवारों का लगभग 8.7% था। हालाँकि, समय के साथ स्वतंत्र उम्मीदवारों की सफलता दर में काफी कमी आई है। 2019 के लोकसभा चुनावों में, 8,000 से अधिक उम्मीदवारों में से केवल चार स्वतंत्र उम्मीदवार विजयी हुए, जिनमें से 99.6% से अधिक स्वतंत्र उम्मीदवारों ने अपनी जमानत खो दी। यह प्रवृत्ति स्वतंत्र उम्मीदवारों में मतदाताओं के विश्वास में गिरावट को दर्शाती है, 2019 में उनकी सफलता दर गिरकर लगभग 0.11% हो गई है