Opinion: श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महज सनातन धर्म से जुड़ा एक त्योहार मात्र नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति में रचा-बसा एक लोकपर्व है। जीवन जीना एक श्रेष्ठतम कला है, इस भाव का सही अर्थों में प्रतिमान जिस लोकनायक ने गढ़ा है, उसका नाम है-पार्थसारथी श्रीकृष्ण। तमाम संस्कृतियों में कृष्ण अकेले ऐसे लोकनायक हैं जो जीवन की हरेक परिस्थिति को समग्रता से स्वीकार करते हैं, और उसे उत्सव में बदलने का सामर्थ्य रखते हैं। कृष्ण आध्यात्मिक क्रांति के यथार्थ द्रष्टा हैं। वे राग, प्रेम, काम, ध्यान, योग, भोग, आत्मा-परमात्मा, युद्ध, कूटनीति और राजनीति आदि विषयों को यथार्थ रूप में स्वीकार करते हैं।
रचनात्मक भाव उत्पन्न
जब मन में गहन अंधकार छाया हो, बंधनयुक्त हो, तब कैसे हमारा पुरुषार्थ हमारे अवचेतन में ऐसा रचनात्मक भाव उत्पन्न कर दे कि सारे बंधन टूट जाएं और अज्ञान के तमस का आवरण टूटकर बिखर जाए, असलियत में यही कृष्ण-तत्व की मौजूदगी है और यही जन्माष्टमी है। किंतु समाज में बढ़ते हुए कदाचार और संवेदनशून्यता के इस दौर में कृष्ण तत्व की गैर-मौजूदगी दिखाई देती है। अपनी अस्मत के लिए सुबकती हुई अबोध बालिकाओं की आंखें उस द्वारकाधीश की प्रतीक्षा में पथरा गई हैं जिसने कौरवों की सभा में उपस्थित होकर द्रौपदी की लाज बचाई थी। असल में जब तक हम समग्रता से जीवन जीने वाले कृष्ण को परंपरागत आस्थाओं के तहत केवल जन्माष्टमी पर्व तक सीमित रखेंगे, हमारे अंदर अन्याय के प्रतिकार करने का साहस और कदाचार से जूझने का संकल्प उत्पन्न नहीं हो सकता।
कृष्ण के व्यक्तित्व में जड़- सिद्धांतों व पुरातनपंथी मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है। कृष्ण सदैव कर्म के प्रति प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। वह कोई निजी हित साधने या व्यक्तिगत लाभ उठाने के लिए कर्म से प्रेरित नहीं होते, इसलिए दूसरों को भी कर्मफल की चिंता से मुक्ति का संदेश देते हैं। मधुसूदन कृष्ण का व्यक्तित्व बेहद माधुर्य से ओतप्रोत है। अपनी जीवन-यात्रा के किसी पड़ाव पर जब व्यक्ति किंकर्तव्यविमूह होकर अवसादग्रस्त हो जाता है, तब कृष्ण संदेश देते हैं कि हे अर्जुन। उठ और अपना कर्म कर, क्योंकि तू तो केवल निमित्त मात्र है, इस संसार में जो कुछ घटित होता है, वह मेरी इच्छा के फलस्वरूप होता है। इसलिए फल की आसक्ति का परित्याग कर अपने कार्य को समर्पण भाव से कर, यही उनका गीता दर्शन भी है। उनकी कार्यशैली अपने अधिकारों के प्रति सचेत और दुराचारी व्यवस्था के खिलाफ थी।
कर्मयोग का विश्लेषणात्मक अध्ययन
सही अर्थों में अपने कर्मों का जिम्मेदारी के साथ निर्वहन सीखना और स्वावलंबन की कला को और बेहतर बनाना है तो कृष्ण के कर्मयोग का विश्लेषणात्मक अध्ययन जरूरी है। वे युद्ध लड़ने का सामर्थ्य रखते हैं किंतु करुणा और प्रेम से भरे हुए हैं। दरअसल प्रेम और उत्सव के जो आयाम राम में नहीं मिलते वे कृष्ण के व्यक्तित्व में जीवंत हो जाते हैं। राम जीवन के किसी मोड़ पर चिंताग्रस्त दिखाई देते हैं, किंतु कृष्ण दुख के महासागर में भी हंसते, नाचते और गाते हुए नजर आते हैं।
वस्तुतः कृष्ण द्वापर युग के एकमात्र ऐसे अनूठे किरदार हैं जो धर्म की गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं हैं। वे प्रतिज्ञा तोड़कर भीष्म को मारने दौड़ते जरूर हैं किंतु अपने हृदय में प्रेम का दिया बुझने नहीं देते। गांधारी के भयानक श्राप को भी उन्होंने सहर्ष शिरोधार्य रखा। जबकि इसके विपरीत सुदामा के साथ अपनी मित्रता से जो संदेश उन्होंने दिया, वह जीवन जीने की कला में बेहद अहम है। मानव देह में अवतरित होकर उन्होंने हमें वह रास्ता दिखाया है, यदि उस पर हम चलें, तो परम पद पा सकते हैं। असल में, कृष्ण जीवन की हरेक रंगत को पूर्णता के साथ स्वीकार करते हुए उसका आनंद लेते हैं, यही खासियत उनको वैश्विक युग पुरुष बना देती है। सनातन संस्कृति की अवतारी परंपरा में केवल कृष्ण का व्यक्तित्व बहुआयामी है। कृष्ण का एक पर्याय चित्तचोर है, उनका चित्त नितांत अहिंसक है, फिर भी धर्म की रक्षा के लिए हिंसा को आत्मसात करने से संकोच नहीं करते।
प्रकृति के दोहन से बचना होगा
असलियत में गोवर्धन लीला प्रकृति के संवर्धन का प्रतीकात्मक रूप है। प्रकृति के दोहन व प्रकृति के प्रति हमारी नादानियों के संकेत असमय वर्षा, भयंकर बाढ़, ऋऋतुओं का बदलता मिजाज, पहाड़ी क्षेत्रों में जबरदस्त भूस्खलन के रूप में समस्त मानवजाति को हाल-फिलहाल में मिल भी रहे हैं। महापुरुष हो या जनसाधारण, हरेक को प्रकृति के धर्म को समझकर आचरण करना ही होगा। प्रकृति के दोहन से बचना होगा। कृष्ण की समस्त लीलाओं की प्रासंगिकता भी यही है कि हरेक व्यक्ति प्रकृति के प्रति अपने धर्म को समझे और अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए उसके दोहन से बचे।
डॉ. विनोद कु. यादव: (लेखक इतिहासकार व शिक्षक हैं, यह उनके अपने विचार हैं।)