Opinion: अठारवीं लोकसभा का आगाज 24 जून को विशेष सत्र से हो चुका है। हमेशा की तरह पहले सदस्यों ने शपथ ली, लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव हुआ, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का संयुक्त सत्र में अभिभाषण हुआ। अभिभाषण पर चर्चा के साथ देश की सबसे बड़ी पंचायत में कामकाज की शुरुआत हो गई। यह संक्षिप्त सत्र था, तो भी विपक्ष ने मर्यादित रहना उचित नहीं समझा।
पीएम नरेंद्र मोदी के धन्यवाद प्रस्ताव संबोधन के दौरान विपक्ष की अनवरत नारेबाजी ने खलल डाला। संसद में विपक्ष के हंगामे को समूचे देश ने देखा। यह चिंता की बात है कि क्या संसद में सुनने- सुनाने का सामान्य शिष्टाचार भी खत्म हो रहा है? अब 22 जुलाई से संसद का बजट सत्र शुरू हो रहा है। तो क्या इस सत्र में भी विपक्ष का यही रूप रहेगा? जबकि पीएम मोदी की राजग सरकार के लिए अगले पांच साल महत्वपूर्ण रहने वाले हैं, जिसमें संसद की भी अहम भूमिका होगी।
भारत दुनिया की तीसरी आर्थिक महाशक्ति
राजग के इसी कार्यकाल में भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बनेगा। इसी कार्यकाल में 'एक देश एक चुनाव' पर किसी नतीजे पर पहुंचने की कोशिश होगी। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर सशक्तिकरण का द्वार भी इसी कार्यकाल में खुलना है। यही कार्यकाल भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के संकल्प की दशा और दिशा तय करने में भी भूमिका निभाएगा। सवाल है कि क्या नई लोकसभा में हमें विभिन्न दलों में कुछ कर दिखाने की सामूहिक संकल्प शक्ति प्रदर्शित करने की उम्मीद रखनी चाहिए? यह सवाल बेहद जरूरी है। जरूरी इसलिए कि एक दशक में संसद कामकाज से अधिक हंगामे, शोर-शराबे और जनप्रतिनिधियों दलों के अवसरवादी आचरण के कारण चर्चा में रही है।
पंचायत की छवि धूमिल हुई
संसद में सुचारू कामकाज के संचालन के प्रति दलों में घटती जवाबदेही ने संस्थागत विश्वसनीयता को बेहद कमजोर किया है। आम जनमानस में देश की सबसे बड़ी पंचायत की छवि धूमिल हुई है। ऐसे में यह सवाल प्रासंगिक है कि क्या विभिन्न दल और उसके प्रतिनिधि अतीत से सबक लेते हुए संसद की कम होती जा रही विश्वसनीयता के प्रति चिंता दर्शाएंगे, या फिर भविष्य में नई लोकसभा के पन्ने भी कामकाज, शुचिता, प्रतिबद्धता की जगह हंगामे और बेवजह के शोर के अध्याय से भरे पड़े होंगे? अतीत की, खास कर बीते दो-तीन लोकसभा के पांच साल के कार्यकाल की समीक्षा करें तो एक बेहद निराशाजनक तस्वीर सामने आती है। ये तस्वीर बताती है कि कैसे भारतीय राजनीति और संसद में राजनीतिक दलों-नेताओं के बीच मतभेद की जगह मनभेद ने गहरे तक जड़ें जमा ली हैं।
140 करोड़ लोगों का भविष्य तय
मसलन पिछली लोकसभा ने सबसे कम बैठकों का कीर्तिमान बनाया। केवल 274 बैठकें हुई जो औसत 468 बैठकों से बहुत कम है। इस दौरान वित्त विधेयक को छोड़ कर 179 विधेयक पारित किए गए। चिंताजनक तथ्य यह है कि इनमें से 35 प्रतिशत विधेयकों को पारित कराने में एक घंटे से भी कम समय लगा। सिर्फ 30 प्रतिशत विधेयकों पर ही लगभग तीन घंटे से अधिक की चर्चा हुई। जरा सोचिए, संसद में पारित विधेयक कानून का रूप अख्तियार कर 140 करोड़ लोगों का भविष्य तय करते हैं। बावजूद इसके विधेयकों पर चंद मिनट की चर्चा की औपचारिकता निभाना, देश की सबसे बड़ी पंचायत की कैसी छवि बनाएगा? बात यहीं तक सीमित नहीं है। संसद का सबसे महत्वपूर्ण अंग संसदीय समितियां लगातार निष्प्रभावी होती जा रही हैं।
ऐसी परिस्थिति आई क्यों
विधेयकों को विचार के लिए समितियों को भेजने का सिलसिला लगातार कम होता जा रहा है। मसलन 14वीं लोकसभा में 60 प्रतिशत, 15वीं में 71 प्रतिशत, 16वीं में 25 प्रतिशत विधेयक संसद में पेश करने से पहले संसदीय समितियों को भेजे गए। पिछली लोकसभा में महज 16 प्रतिशत विधेयक ही संसदीय समितियों को भेजे गए। बीती लोकसभा में 15 में से 11 सत्र समय से पूर्व स्थगित कर दी गई। हंगामे के कारण कार्यवाही स्थगित होना अब सामान्य बात हो गई है। अब सवाल है कि आखिर ऐसी परिस्थिति आई क्यों? इसके लिए हम किसे जिम्मेदार ठहरा सकते हैं या किसे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए? सबसे पहले तो इस तथ्य को सभी दलों को स्वीकार करना होगा कि संसद मुद्दों पर विचार-विमर्श के लिए है। नई परिस्थितियों, नई चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए विमर्श के माध्यम से नए कानून बनाने और जरूरत पड़ने पर पुराने कानून में संशोधन करने के लिए है।
ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल
संसद की स्थापना या गठन का मूल उद्देश्य यही है। समस्या यह है कि राजनीतिक दलों ने संसद को सियासत का माध्यम बना लिया है। तो क्या वाकई स्थिति में अनुकूल बदलाव नहीं आएगा? या क्या हम स्थिति में बदलाव के लिए आशावादी हो सकते हैं? इसका जवाब तलाशने के लिए चार जून को आए आम चुनाव के नतीजे के बाद की स्थिति का अवलोकन कीजिए। मतगणना से पहले ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए गए। नतीजे आने के बाद जनादेश को विपक्ष ने अपने ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की। यह ठीक है कि भाजपा अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाई, मगर सच्चाई यह भी है कि मतदाताओं ने उसकी अगुवाई वाले राजग गठबंधन को जनादेश दिया है। राजग के पास 294 सदस्यों का संख्या बल है, जो बहुमत से 22 ज्यादा है। विपक्षी इंडी गठबंधन को 234 सीटें ही मिली हैं। भाजपा को 240 सीटें व कांग्रेस को 99 सीटें मिली हैं।
विपक्ष इस बार भी नकारात्मक मानसिकता के साथ
बावजूद इसके विपक्ष ने जनादेश का सम्मान नहीं किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण विपक्ष का नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह से दूरी बनाना है। विपक्षी इंडी गठबंधन से समारोह में सिर्फ मल्लिकार्जुन खरगे उपस्थित थे, वह भी कांग्रेस के अध्यक्ष की हैसियत से नहीं, बल्कि राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष की हैसियत से। क्या विपक्ष के नेताओं की शपथ ग्रहण समारोह से दूरी को उचित ठहराया जा सकता है? क्या यह जनादेश का अपमान नहीं है? क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि पिछली लोकसभा की तरह विपक्ष इस बार भी नकारात्मक मानसिकता के साथ संसद में सरकार से आर या पार की जंग की राह पर है? जाहिर तौर पर नकारात्मक राजनीति का लाभ किसी को हासिल नहीं होगा। इसकी कीमत विपक्ष को भी चुकानी पड़ेगी। ऐसी राजनीति से लोगों की नजरों में संसद की ही नहीं विपक्ष की भी विश्वसनीयता घटेगी।
प्रधानमंत्री का आह्वान स्वागत योग्य
नतीजे आने के बाद राजग संसदीय दल की बैठक में नरेंद्र मोदी ने संसद में अच्छी चर्चा, प्रासंगिक स्वस्थ बहस नहीं होने पर चिंता जाहिर की। प्रधानमंत्री ने सभी दलों से दलहित- निजी हित से ऊपर उठ कर सकारात्मक मानसिकता के साथ नई लोकसभा में अपना-अपना योगदान देने का आह्वान किया है। प्रधानमंत्री के इस आह्वान और सुझाव का स्वागत किया जाना चाहिए। संसद में स्वस्थ, सार्थक और परिणामोन्मुखी चर्चा हो। ऐसी चर्चा और ऐसा विमर्श जिसका लाभ समाज के सभी वर्गों को मिले। ऐसी चर्चा जो यह साबित करे कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं बल्कि सबसे संजीदा लोकतंत्र भी है। दल व जनप्रतिनिधि यह न भूलें कि संसद देश के करोड़ों लोगों की आस्था और उम्मीदों की प्रतीक है।
कैप्टन अभिमन्यु: (लेखक भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)