Opinion: इतिहास बताता है कि ब्रिटिश शासन ने भारत में रहने वाले लाखों खानाबदोश और यायावर की जिंदगी गुजारने वाले समुदायों को जन्मजात अपराधी उसी तरह से घोषित कर दिया था जैसे जन्म के आधार पर समाज में बनाई गई ऊंच-नीच और छुआछूत तय करने की व्यवस्था। प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने अपने शासन को अधिक सुरक्षित और मजबूत करने के लिए तमाम तरह की बंदिशें, अधिनियम, कानून और नीतियां बनाई।

आने-जाने की आजादी नहीं
इन नीतियों में उन समुदायों और समूहों के प्रति अधिक कठोर कानून बनाए गए जो प्रथम स्वाधीनता संग्राम में हिस्सा लिए थे। इसी के तहत 1871 में अंग्रेजों ने तकरीबन 200 घुमन्तू समुदायों पर जन्मजात अपराधी होने का कानून बनाकर इन्हें अपराधी घोषित कर दिया था और इन्हें वंशानुगत अपराधी घोषित करने के लिए आपराधिक जनजाति अधिनियम (सीटीए) लागू किया गया था। इस कानून के तहत, इन समुदायों के लोगों को कहीं भी आने-जाने की आजादी नहीं थी और उन्हें थानों में रोजाना हाजिरी लगानी पड़ती थी। 180 साल तक यातनाओं और बर्बरताओं को सहते हुए भारत के इन सबसे शोषित, प्रताड़ित और अन्याय सहने वाले इन समुदायों को जिस तरह से यातनाएं पड़ीं, दुनिया के इतिहास में शायद और उदाहरण न मिले।

इतिहास का सबसे बर्बर और हैवानियत की हदें पार करने वाला वह दौर था। इस बर्बर कानून को आजादी मिलने के बाद 31 अगस्त 1952 को हटा दिया गया और 200 समुद समुदायों को अनुसूचित जनजाति (एसटी) अनुसूचित जाति (एससी) और अन्य पिछड़े वर्गों में शामिल कर आरक्षण की व्यवस्था की गई। रेनके आयोग 2008 के मुताबिक 1,500 खानाबदोश समुदायों में से 191 समुहों को इस कानून के जरिए आपराधिक जनजाति के रूप में चिन्हित किया गया था। आपराधिक कानून के दो हिस्से बनाए गए। पहले हिस्से के मुताबिक विभिन्न खानाबदोश जनजातियों और समुदायों को अपराधी मानना व घोषित करना था और दूसरे हिस्से में भारतीय ट्रांसजेंडर समुदाय के विनाश की वकालत करना, जिन्हें हिजड़ा कहा गया।

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गुलामी के दिनों से बर्बरत
दुनिया की तमाम संस्कृतियों और सभ्यताओं में किसी समुदाय विशेष के प्रति इस तरह की बर्बरता का यह कानून किसी राजसत्ता ने पहली बार बनाया था। इसलिए उस दौर को याद करने की वजह यह भी है कि हम अपने उस इतिहास को याद रखें जो गुलामी के दिनों का सबसे बर्बरत, काला और विकृत पन्ना है। रूह कंपा देने वाली ब्रिटिश पुलिसिया जुल्म की कहानियां आज भी भारतीय समाज की दीनता, शोषण और जुल्म का बयान ही नहीं करतीं बल्कि विदेशी सत्ता की बेहद अमानवीय नीतियों और काले कानूनों को भी बताती हैं। भारत के संविधान में दर्ज ऐसे तमाम कानूनों को आजादी के बाद बदला या संशोधित किया जा चुका है, जो भारतीय समाज, संस्कृति और सभ्यता के माफिक नहीं थे या बेहद स्वार्थपरक और अमानवीय थे। ऐसा ही एक कानून जो 1871 में बनाया गया था जिसका नाम आपराधिक जनजाति अधिनियम था।

इस अधिनियम के जरिए भारत के करोड़ों पिछड़े, दलित, शोषित और उपेक्षित लोगों के साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव करने की छूट ब्रिटिश पुलिस और प्रशासन को दी गई थी। इस कानून की मदद से व्याभिचार, बलात्कार, जुल्म ढाने और जिसे चाहे गुलाम बनाना आम बात थी। दरअसल, ब्रिटिश राजसत्ता भारतीयों को सबसे निचले दर्जे का इंसान मानती थी। हालांकि हर स्थापित समाज की यह प्रवृति होती है कि वह खानाबदोशों, घुमक्कड़ों, यायावरों और आवारा किस्म के लोगों को संदेह के नजरिए से देखती है। खानाबदोश जनजातियों पर लगा अपराध का कलंक भारतीय जन्मगत जाति व्यवस्था जितना ही पुराना है।

कुप्रवृतियों और विषमताओं को बढ़ावा
भारत में जाति व्यवस्था के जरिए ही तमाम तरह की जटिलाएं, भेदभाव, छुआछूत, अनाचार, सामाजिक गुलामी और दूसरे तरह के अंधविश्वासों, कुप्रवृतियों और विषमताओं को बढ़ावा मिलता रहा है। आजादी के सतहत्तर साल गुजर जाने के बाद भी जाति व्यवस्था को पुख्ता करने के लिए तमाम राजनैतिक दल लगे रहते हैं। इसलिए समाज में एकता और सहिष्णुता का सबेरा कभी होता ही नहीं। समाज के सबसे पिछड़े और अशिक्षित समुदायों को आज भी धर्म, मजहब तो कभी भगवान (अवतार) के नाम पर ठगा और बहकाने का कार्य किया जाता है। आजादी के बाद देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने यदि सभी अति पिछड़े, उपेक्षित और शोषित समाज के लिए अधिकार न दिलाए होते तो शायद आज भी ये समुदाय कहीं अधियारों में जानवरों की तरह भटक रहे होते।
अखिलेश आर्येन्दु: (लेखक स्वतंत्र पत्रकार व समाजिक चिंतक हैं. यह उनके अपने विचार हैं।)

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