Opinion: भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर के लोकसभा में राहुल गांधी की जाति भा पूछे जाने के बाद से देश में जाति को लेकर माहौल गर्माया हुआ है। इससे पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने जाति आधारित जनगणना नहीं करने को लेकर लोकसभा में जो बयान दिया उसके बाद से इस विषय पर लगातार बहस जारी है। जातिगत जनगणना को कराए जाने को लेकर पक्ष और विपक्ष दोनों अपने-अपने तर्क दे रहा है। विपक्ष लगातार जातिगत जनगणना कराया जाने के समर्थन में अनेक तर्क प्रदान कर रहा है।
जातियों की उपजाति का भी पता चलता है
देश में जातीयता और फूट डालो राज करो की नीति का जो जहरीला बीज अंग्रेज डाल गए थे, कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों के नेताओं ने उसे खाद पानी देकर निरंतर सींचा और अपनी जरूरतों के अनुसार इसका इस्तेमाल किया। आज यह जहर हमारी संपूर्ण फिजाओं में घुल चुका है। देश में जनगणना की शुरुआत 1881 में औपनिवेशिक शासन के दौरान हुई। जाति के आधार पर आबादी की गिनती को जातिगत जनगणना कहते हैं इसके अंतर्गत जातियों की उपजाति का भी पता चलता है। उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति का भी पता चलता है। देश में हर 10 साल में जनगणना होती है। साल 2011 में आखिरी जनगणना हुई थी और अब 2021 की जनगणना होनी बाकी है।
पहले कोरोना महामारी के कारण इसे टाल दिया गया था लेकिन अब इस प्रक्रिया को सरकार शुरू करना चाहती है। ऐसे में नेताओं ने 2021 की जनगणना में जाति आधारित जनगणना कराने की मांग शुरू कर दी। देश में अनुसूचित जाति और जनजाति की जनगणना इसलिए कराई जाती है क्योंकि संविधान के अंतर्गत उन्हें आरक्षण दिया गया है। देश में आखिरी बार जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी। जब पाकिस्तान और बांग्लादेश भी भारत का ही हिस्सा थे। आजादी के बाद सरकार ने जातिगत जनगणना को नहीं कराने का फैसला लिया। इससे पूर्व 1951 में भी तत्कालीन सरकार के पास जाति आधारित जनगणना कराने का प्रस्ताव आया था लेकिन तब तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।
जातिविहीन समाज की परिकल्पना
उनका मानना था कि जातीय जनगणना कराई जाने से देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है। स्वतंत्र भारत में 1951 से 2011 तक की हुई हर एक जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के आंकड़े प्रकाशित किए गए हैं, लेकिन किसी अन्य जातियों के नहीं। वैश्विक फलक पर भारत का लगातार बढ़ता हुआ कद कई बड़ी वैश्विक शक्तियों की आंख की किरकिरी बना हुआ है। ये वैश्विक शक्तियां नहीं चाहती कि भारत एक महाशक्ति के रूप में विश्व फलक पर उभरे। वह आज भी भारत को पिछड़ा और कमजोर राष्ट्र ही देखना चाहती हैं। वही हमारे देश का विपक्ष ऐसे मुद्दों पर ऐसी शक्तियों के साथ लग कर देश में एक तरह से गृह युद्ध जैसा हाल पैदा कर रहा है। जातीय जनगणना की यह मांग जातिविहीन समाज की परिकल्पना के खिलाफ है।
यह देश में सामाजिक भेदभाव को बढ़ाएगी और सामाजिक सद्भाव को कम करेगी। इस जातिगत जनगणना का एक विपरीत असर यह भी होगा कि जो जातियां जातीय जनगणना में ज्यादा है वे ताकतवर होगी। वे अपनी ताकत के बल पर अपने लिए हिस्सेदारी मांगेगी। इससे भी जातिवाद बढ़ेगा समाप्त नहीं होगा। यह समानता के सिद्धांत के खिलाफ ही होगा। जाति आधारित जनगणना के पक्ष में विपक्ष का तर्क है कि यदि सभी जातियों की सही जानकारी पता चले तो उनकी स्थिति के अनुसार भावी योजनाएं बनाने में और लागू करने में सहजता होगी। इससे पिछड़ी जातियों को सहायता प्रदान की जा सकेगी। 1904 यह वही विपक्ष है और ये वही राहुल गांधी हैं जिनके परिवार ने सत्ता में रहते हुए नारा दिया था कि न जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।
दोहरा रवैया हमेशा
यदि जातीय जनगणना देश की समृद्धि का, उन्नति का आधार है तो कांग्रेस ने अपने शासनकाल के दौरान इसे क्यों लागू नहीं किया? कांग्रेस के शासनकाल में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, मनमोहन सिंह ने जातिगत जनगणना क्यों नहीं कराई ? जो राहुल गांधी विपक्ष में बैठ इसकी पैरवी कर रहे हैं तो वे संसद में अनुराग ठाकुर द्वारा जाति का प्रश्न पूछने पर हंगामा क्यों करने लगे? कांग्रेस और राहुल दोनों का यह दोहरा रवैया हमेशा से रहा है। राहुल गांधी यह बता दें कि संसद में जाति पूछना गलत और बाहर पूछना सही कैसे ठहराया जा सकता है? यह विडंबना ही है कि इस जातिवाद को देश में बढ़ावा देने में सबसे ज्यादा योगदान समाजवादी धारा के राजनेताओं का ही है। डॉ. राम मनोहर लोहिया मानते थे कि समाज में जैसे ही समता आएगी जातिवाद खत्म हो जाएगा, पर उनके अनुयायियों ने जातियों की ही राजनीति की।
प्रो. मनीषा शर्मा: (लेखक शिक्षाविद हैं. ये उनके अपने विचार हैं।)