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Opinion: ट्रंप पर हमले की सूचना आते ही पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इसकी निंदा करते हुए अमेरिकी समाज में हिंसा के लिए कोई स्थान न होने का बयान दिया तथा अपील की कि हमें सभ्य तरीके से व्यवहार करना चाहिए। राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी टेलीविजन प्रसारण में इसकी निंदा करते हुए यही कहा।

Opinion: तेरह जुलाई का दिन अमेरिका ही नहीं विश्व इतिहास के लिए भयावह और सबक लेने वाले  इतिहास के लिए भयावह और सबक लेने वाले दिन के रूप में दर्ज हो गया है। अमेरिका जैसे पुराने लोकतांत्रिक देश में रिपब्लिकन राष्ट्रपति उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप पर सार्वजनिक सभा में गोली चलाकर हत्या का प्रयास अचंभित करने वाली घटना है। पेनसिल्वेनिया के बटलर में ट्रंप चुनावी रैली कर रहे थे। अचानक गोली आई और ट्रंप के कान को छूते हुए निकल गई।

गोलियां चलती रहती है
वीडियो में साफ दिख रहा है कि ट्रंप रैली के दौरान भाषण दे रहे थे। उसी बीच गोलियां चलने लगती हैं। ट्रंप कहते हैं- ओह और अपना कान छूते हैं और उनका हाथ लहूलुहान दिखता है। वह तुंरत नीचे झुक जाते हैं, लेकिन गोलियां चलती रहती है। वे कुछ ही क्षण में फिर खड़े होते हैं, दोनों हाथों की मुट्ठियां भींचकर ऊपर उठाते हैं और लोग उनके पक्ष में नारे लगाते हैं। हमले के बाद ट्रंप ने कहा कि 'उन्हें ऐसा लगा कि गोली उनके कान के आर-पार हो गई है। हालांकि अमेरिकी इतिहास में इसके पूर्व दो बार राष्ट्रपति उम्मीदवारों पर हमले के रिकॉर्ड हैं।

1912 में राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट दोबारा राष्ट्रपति बनने के लिए चुनावी अभियान में लगे थे तब मिल्वौकी में एक भाषण के लिए जाते समय एक सैलून संचालक ने उन्हें गोली मार दी थी। वे बच गए थे। गोलीबारी के बावजूद उन्होंने भाषण दिया। 1972 में अलबामा के गवर्नर जॉर्ज वालेस को तीसरी बार राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव प्रचार के दौरान वाशिंगटन डीसी के बाहर गोली मार दी गई थी। हमले के कारण उनकी कमर से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया था, लेकिन वर्तमान हमले के कारण परिस्थितियों और इसके पीछे की विचारधारा अलग है।

ट्रंप बाल-बाल बचे
जांचकर्ताओं का कहना है कि ट्रंप की हत्या की कोशिश की गई थी। साफ है कि ट्रंप बाल-बाल बचे हैं। इसे संयोग ही कहिए अन्यथा गोली अगर कान को छूकर निकलने की बजाय अंदर चली गई होती तो आज ट्रंप की जीवनलीला समाप्त हो चुकी होती। बताया गया है कि दोनों हमलावर सुरक्षाकर्मियों के गोली का शिकार हो चुके हैं। अमेरिका की संघीय जांच ब्यूरो और अन्य एजेंसियां मिलकर जांच कर रही हैं और हत्या के प्रयास के कारणों का पता आने वाले समय में चलेगा। जांच रिपोर्ट जो भी कहे आम अमेरिकी और इस समय अमेरिका सहित विश्वभर में राजनीति, एक्टिविज्म और नैरेटिव की प्रवृत्तियों पर दृष्टि रखने वाले समझ सकते हैं कि इसके कारण क्या होंगे।

ट्रंप पर हमले की सूचना आते ही पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इसकी निंदा करते हुए अमेरिकी समाज में हिंसा के लिए कोई स्थान न होने का बयान दिया तथा अपील की कि हमें सभ्य तरीके से व्यवहार करना चाहिए। राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी टेलीविजन प्रसारण में इसकी निंदा करते हुए यही कहा। समाचार के अनुसार बाइडेन ने ट्रंप से फोन पर बातचीत भी की, किंतु सच यह भी है कि डेमोक्रेटिक सहित अमेरिका के बुद्धिजीवियों, मीडिया, एक्टिविस्ट, यहां तक कि प्रशासन के एक बहुत बड़े वर्ग ने ट्रंप और उनकी विचारधारा के सामान्य विरोध की जगह उसके प्रति जिस ढंग से घृणा पैदा की है उसका असर अमेरिकी समाज पर है। ट्रंप को डेमोनाइज करते हुए उन्हें हिटलर से लेकर न जाने क्या-क्या उपाधि दी गई है।

ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति बने तो
उन्हें लोकतंत्र ही नहीं, अमेरिकी समाज और एकता अखंडता के लिए सबसे बड़ा खतरा बता दिया गया है। अमेरिका में ऐसे निहित स्वार्थी समुदाय हैं जिनके अंदर यह भाव गहरा हुआ है कि अगर ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति बने तो उनके लिए समस्याएं पैदा होंगी। बड़ी संख्या में गैर अमीर क्यों और अवैध और अप्रवासियों को लगता है कि उन्हें देश से जाना पड़ सकता है। संयोग देखिए की ट्रंप पर गोली उस समय चली जब वह एक चार्ट पढ़ते हुए बता रहे थे कि अमेरिकी सीमा पार करने वाले अवैध प्रवासियों की संख्या कितनी है। ट्रंप एवं उनके समर्थकों ने अमेरिका में अवैध रूप से आने और रहने को एक बड़ा मुद्दा बनाया है।

यह अनायास नहीं है कि ट्रंप को किसी तरह राष्ट्रपति की दौर से बाहर करने के हर प्रयास अमेरिका में हो रहे हैं। चूंकि अभी तक इसमें सफलता नहीं मिली है इसलिए संभव है कुछ व्यक्तियों या समूहों ने उन्हें रास्ते से ही हटा देने का निर्णय किया हो, इसलिए यह हमला अंतिम नहीं हो सकता। अगर भारत की ओर लौटें तो प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे हिंदुत्व विचारधारा को मानने वाले संगठनों को लेकर ऐसे ही वातावरण बनाने की कोशिश हुई है। ज्यादातर गैर भाजपायी राजनीतिक दलों के नेताओं, मीडिया के एक वर्ग, बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट, थिंक टैंक आदि भारत में भी उनके प्रति ऐसी ही घृणा और विरोध पैदा कर रहे हैं। 

देश को बचाना है
इन संगठनों को फासिस्ट, अल्पसंख्यक विरोधी, हिंसक, भारतीय समाज की एकता का दुश्मन और न जाने क्या- क्या कहा गया है। एक बड़े वर्ग के अंदर यह भावना पैदा कर दी गई है कि अगर आपको स्वयं, देश को बचाना है तो इन सबको हर स्तर पर पराजित करना होगा। हम सोशल मीडिया से लेकर टीवी डिबेटों पर उनके विरोधियों की भाषा देख सकते हैं। पूरे देश के एक बड़े वर्ग के अंदर घृणा का भाव पैदा हुआ है। इस समय विश्वभर में इस तरह की प्रवृत्ति उभरी है। पूर्व में क्रांति कर सत्ता बदलने के विचार-व्यवहार वाले कम्युनिस्टों की जगह एक ऐसे नव वाममार्गी विचारधारा पूरी दुनिया में दिख रही है जो राष्ट्रवाद पर गर्व करने वाले संगठनों को लेकर घृणा-विरोध नैरेटिव और अन्य संसाधनों से पैदा कर रहा है।

भारत और अमेरिका दो देश इस समय इन मामलों में सबसे आगे हैं। इन दोनों देशों के अंदर समाज में तनाव और गुस्सा धीरे-धीरे बढ़ाया गया है। यह अजीब किस्म का नया वामवाद या कम्युनिज्म है जिसकी अपनी विचारधारा स्पष्ट नहीं लेकिन ये उसी तरह की रेडिकल बातें करते हैं। हैरत की बात यह है कि इनमें विश्व के बड़े पूंजीपति, एनजीओ और संस्थान शामिल हैं। अमेरिका में इनकी संख्या ज्यादा है इसलिए इसका प्रभाव वहां सर्वाधिक दिखा है। भारत में संघ, भाजपा या ऐसे कुछ संगठनों का जमीन तक विचारधारा के आधार पर संगठन है इस कारण यहां ऐसा प्रभाव नहीं दिखता है।

असहमति और मतभेद होना स्वाभाविक
कई बार एक ही परिवार या रिश्तों के बीच दोनों विचारधाराओं के लोग हैं। ऐसी सामाजिक संरचना दूसरे देश में नहीं है। सच कह तो इस कारण हम बचे हुए हैं। डोनाल्ड ट्रंप की हत्या की कोशिश हम सबके लिए सबक होना चाहिए। राजनीति और सार्वजनिक जीवन में असहमति और मतभेद होना स्वाभाविक है, किंतु राजनीति और सार्वजनिक जीवन में घृणा और दुश्मनी का कोई स्थान नहीं।

हम एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी होंगे, राजनीतिक और वैचारिक विरोधी होंगे, किंतु दुश्मन नहीं जिसके विरुद्ध इतनी घृणा पैदा की जाए कि लोग हिंसा की सीमा तक पहुंच जाए। यह सभी पक्षों पर लागू होता है। हालांकि जैसा वातावरण भारत, अमेरिका सहित कई देशों में बन चुका है उसमें कोई तत्काल इससे सबक लेगा इसकी संभावना कम है। अगर सबक लेकर हम संभलने या संभालने की कोशिश करें तो उसमें भी सफलता की संभावना कमजोर हो गई है, क्योंकि वातावरण काफी विषाक्त बन चुका है। इसलिए सबके सामने यही प्रश्न है कि स्थिति को हम कैसे संभालें।
अवधेश कुमार: (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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