Opinion: स्त्रियां सामाजिक और पारिवारिक जीवन की धुरी कही जाती हैं। वे संबंधों के निर्वहन के दायित्वबोध को पोसने और सांस्कृतिक थाती को सहेजने वाली सच्ची वाहक होती हैं। भारतीय संस्कृति के रंग बहुत से उत्सवों और अनुष्ठानों की बदौलत ही आज भी कायम हैं। विशेषकर लोक उत्सवों का जीवंत भाव तो महिलाओं की भागीदारी से ही बचा हुआ है।
सखियों के जीवन में परिवार और परम्पराओं की भूमिका बहुत अहम होती है। देखने में भी आता है कि आस्था का भाव हो या वास्तविक जीवन रिश्तों का जुड़ाव, महिलाएं बहुत कुछ साधे रखती हैं। हरतालिका तीज के पर्व पर भी सौभाग्य और परिवार की खुशहाली की कामना करते हुए महिलाएं पूरी व्यवस्था की कुशल कामना कर रही होती हैं।
मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम
भारतीय परिवेश में व्रत-त्योहार मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम भी हैं। यही वजह है कि अधिकतर लोकपर्व परिवार के जुड़ाव, संबंधों की समरसता और समाज में सह-अस्तित्व को पोसने का भाव लिए हुए हैं। सुखद और सकारात्मक भावनाओं से जुड़े ऐसे उत्सव खी मन से गहराई से जुड़े होते हैं। दांपत्य जीवन में सुख-साथ बने रहने की कामना सदा से महिलाएं मन से कराती हैं। असल में खियों का यह भाव-चाव समग्र समाज को थामने वाली बुनियाद है। दुनिया के जिस हिस्से में भी परिवार की नींव कमजोर होती है, वहां समाज का ढांचा भी ढह जाता है। परिवार की पृष्ठभूमि को मजबूती देने के लिए दांपत्य जीवन में जुड़ाव, ठहराव और निभाव आवश्यक है।
समझना कठिन नहीं कि हमारे यहां देश, समाज और परिवार का आधार बनने वाले वैवाहिक जीवन को क्यों इतना महत्वपूर्ण माना गया है? लोकरंग लिए बहुत से उत्सव और अनुष्ठान इस जुड़ाव को झांकी बनते हैं। सांस्कृतिक विविधता को सहेजने का माध्यम बने हुए हैं। हरतालिका तीज का उपवास में भी अपनों की खुशियों और हित चिंतन भाव दिखता है। दांपत्य जीवन की सुख-शांति के लिए इस विशेष पर्व पर महिलाएं प्रार्थना कर जीवनसाथी के आयुष्य और मंगल की कामना करती हैं। इतना ही नहीं खीमन की आस्था का हर पहलू पारिवारिक सुख समृद्धि से भी जुड़ा होता है। विवाहित जीवन में स्नेहपूरित भाव-चाव के प्रतीक इस पर्व को मनाते हुए खियों का हृदय भावनाओं और भावुकता से भरा होता है। दरअसल, वैवाहिक जीवन औपचारिकताओं से परे होता है। अपनापन और स्नेह ही साझी जिंदगी का आधार बनता है।
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शिव-पार्वती के पावन और अटूट दांपत्य बंधन
शिव-पार्वती के पावन और अटूट दांपत्य बंधन का पूजन कर परिवार में भी आपसी स्नेह और साथ बने रहने की कामना की जाती है। व्यावहारिक रूप से भी देखा जाए तो कुशल कामना के इस पावन भाव की नींव पर घर-परिवार की खुशहाली ही नहीं पूरी सामाजिक व्यवस्था की मजवती भी टिकी है। उत्साह के साथ दस लोकपर्व को भाद्रपद माह की शुक्ल तृतीया को मुख्यतः छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में मनाया जाता है। यूपी और बिहार में महिलाएं इसे मुख्य तौर पर मनाती हैं। साथ ही दक्षिण भारत में तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में इस को पर्व गौरी हब्बा कहा जाता है। हरतालिका तीज को छत्तीसगढ़ में तीजा के रूप में जाना जाता है। वहीं महाराष्ट्र में गणेश उत्सव के ठीक एक दिन पहले आने वाले हरतालिका तीज को हरतालिका तृतीया व्रत के नाम मनाने का रिवाज है।
महाराष्ट्र में भी उत्तरी भारत की तरह ही परंपरागत ढंग से शिव-गौरी के पूजन का यह अनुष्ठान किया जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार इस पावन व्रत को सबसे पहले माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए किया था। सुखद वह भी है कि आध्यात्मिक पक्ष के साथ ही हरतालिका तीज के पारंपरिक पर्व संग लोकरंग भी जुड़े हैं। जो इसे सही अर्थों में लोक उत्सव बनाते हैं। रिमझिम फुहारों की ऋतु में आने वाले इस पर्व पर स्त्रियां झूला झूलती हैं, लोकगीत गाती हैं। खुशियां साझा करती हैं। परंपरागत परिधान पहनती हैं। कहीं-कहीं लोकगीतों की धुन के साथ रातभर जागरण करने का भी रिवाज है। प्रकृति की हरी-भरी गोद में मनाया जाने वाला शिव-गौरी के पूजन का यह पर्व स्नेह भरे साथ को ही नहीं, प्रकृति को भी समर्पित है। लोक जीवन में रचे-बसे इस पर्व के खीमन को हर्षोल्लास समाज को जुड़ाव की सौगात देते हैं।
डॉ. मोनिका शर्मा: (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार व स्तंभकार हैं, वे उनके अपने विचार हैं।)
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