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Opinion: 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 15 अगस्त 1947 तक यानी आजादी हासिल होने के दौर तक लाखों सेनानियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, जिनका हम नाम तक नहीं जानते। देश के तमाम गुमनाम नायकों के आदर्श और लक्ष्य एक ही ध्येय के लिए समर्पित थे, और ध्येय था- भारत की स्वतंत्रता।

Opinion: गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहा है- 'पराधीन सपनेहूं सुख नाही' यानी पराधीनता में सुख की अनुभूति कदापि नहीं हो सकती। यानी गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ व्यक्ति सपने में भी सुखी नहीं रह सकता। हमारा अतीत भी उस सुख से वंचित रहा है, जब एक लंबे दौर तक हमारे पूर्वजों को गुलामी का दर्द झेलना पड़ा। अतः यह अटल सत्य है कि आजादी किसी अमृत महोत्सव से कम नहीं है।

शौर्य और पराक्रम से उत्पन्न प्रेरणा
इस अमृत महोत्सव का अभिप्राय है- आत्मनिर्भरता एवं देशभक्ति के चिंतन का महोत्सव, स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायकों के शौर्य और पराक्रम से उत्पन्न प्रेरणा के अमृत का रसास्वादन। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 15 अगस्त 1947 तक यानी आजादी हासिल होने के दौर तक लाखों सेनानियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, जिनका हम नाम तक नहीं जानते। अपने यशगान की किंचित्मात्र अभिलाषा के बगैर उन तमाम गुमनाम नायकों के आदर्श और लक्ष्य एक ही ध्येय के लिए समर्पित थे, और ध्येय था- भारत की स्वतंत्रता। गौरतलब है कि 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद भारत में अंग्रेजों का साम्राज्य स्थापित हो गया। फलस्वरूप भारत के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिदृश्य व तौर-तरीकों में अनेक बदलाव होने लगे।

परिणामस्वरूप देश के आमजनों पर फिरंगी साम्राज्य के वर्चस्व और शोषण का शिकंजा कसने लगा। जिसकी वजह से गांवों-कस्बों से लेकर दूर-दराज के आदिवासी बहुल इलाकों तक अंग्रेजी हुकूमत से मुक्ति के लिए बगावत भड़क उठी। ईस्ट इंडिया कंपनी की पलटन में कार्यरत भारतीय सैनिकों, खेती-किसानी से जुड़े काश्तकारों, खेतिहर मजदूरों व श्रमिकों के दिल में वर्षों से सुलग रही चिंगारी ने आखिरकार दावानल का रूप धारण कर लिया, जब चर्बी वाले कारतूसों के मसले को लेकर मेरठ छावनी में 'थर्ड लाइट केवलरी रेजिमेंट' में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत फैल गई। इसलिए महान क्रांतिकारी वीडी सावरकर ने अपनी पुस्तक 'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस' में इस बगावत को 'भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम' कहा।

सैनिकों को चर्बी वाले कारतूस
1857 के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन की नींव मेरठ में 10 मई की बजाय 23 अप्रैल को हो तैयार हो गई थी, जब कर्नल स्मिथ ने दुस्तानी पलटन के 90 सैनिकों को चर्बी वाले कारतूस प्रयोग करने के लिए दिए। गौरतलब है कि 90 में से 85 सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार कर दिया। कर्नल स्मिथ ने इन 85 सैनिकों की वर्दी परेड ग्राउंड में उतरवाकर हाथों में हथकड़ी व पैरों में बेड़ियां डलवा दी थी। इस घटना से पूरी 'थर्ड लाइट केवलरी रेजीमेंट' में आक्रोश छा गया। अंततः रेजिमेंट के सैनिकों का आक्रोश फूट पड़ा और उन्होंने छेनी-हथौड़े लेकर बंदीगृहों के ताले तोड़कर सभी 85 क्रांतिकारियों की बेड़ियां काट डाली और इन क्रांतिकारियों के अलावा कारागार में कैद 1400 कैदियों को भी मुक्त कराकर 'दिल्ली चलो' का जयघोष करते हुए दिल्ली की ओर चल दिए।

'नरेटिव ऑफ इवेंट्स' व मेरठ गजेटियर्स दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि जिस तरह देश खाप चौरासी बड़ौत के बड़े किसान नेता बाबा शाहमल मावी ने बासौद गांव की मस्जिद को किसान क्रांतिकारियों का हेड क्वार्टर बनाया हुआ था, ठीक वैसे ही गाजियाबाद जिले की पिलखुआ तहसील के साठा-चौरासी क्षेत्र के मुखिया जमींदार गुलाब सिंह ने गांव मुकीमपुर गढ़ी में अपनी हवेली को साठ गांवों के किसान क्रांतिकारियों का मुख्यालय बनाया। फिरंगी सैनिकों ने जमींदार गुलाब सिंह के मुख्यालय को ध्वस्त करने के लिए पिलखुआ रेलवे स्टेशन के नजदीक अपना तोपखाना स्थापित कर जबरदस्त गोलाबारी शुरू कर दी। इस गोलाबारी में गुलाब सिंह सहित सैकड़ों किसान शहीद हुए।

क्रांति की खबर
विल्सन के नेतृत्व में अंग्रेजी पलटन 30 मई 1857 को गाजियाबाद के हिंडन नदी के तट पर पहुंची। अंग्रेजी सैनिकों ने हिंडन के आसपास के गांवों में भयंकर कत्लेआम किया। दिल्ली से सटे छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में आग की तरह फैल गई। क्रांति की खबर जब गुड़गांव (गुरुग्राम) पहुंची तो वहां के किसान-काश्तकार और खेतिहर मजदूर अंग्रेजों के खिलाफ भड़क उठे। फर्रुखनगर के अहमद अली, बल्लभगढ़ के नाहर सिंह और पटौदी के अकबर अली के नेतृत्व में वहां के किसान-बुनकरों ने मेजर एडेन की अगुवाई में आई फिरंगी से जमकर लोहा लिया और अंग्रेजी रेजिमेंट को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। गुड़गांव जिले के दक्षिण-पश्चिमी ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले मेव समुदाय के लोग भारी संख्या में क्रांति में शामिल हो गए और उन्होंने मेवाती इलाके में अंग्रेजी शासन के तमाम भूराजस्व कार्यालयों व चुंगी-दफ्तरों को तहस-नहस कर दिया। क्रांति की यह ज्वाला शीघ्र ही पूरे अहीरवाल क्षेत्र में जंगल की आग की तरह फैल गई। असल में, अहीरवाल क्षेत्र की जनता अंग्रेजी हुकूमत द्वारा उच्च दर से वसूल किए जा रहे भू-राजस्व, अराजक कानून-व्यवस्था, रंगभेद और दमनकारी नीति से बेहद परेशान थी।

रेवाड़ी के निकटवर्ती गांव रामपुरा के निवासी 32 वर्षीय निर्भीक नौजवान राव तुलाराम ने तमाम अहीरवाल क्षेत्र में क्रांति की बागडोर संभाली और गांव- गांव घूमकर फिरंगी सरकार से मुक्ति के लिए लोगों में क्रांति-चेतना पैदा की। उनकी जोशीली बातों से अहीरवाल क्षेत्र का आमजन अंग्रेजी हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित हुआ। राव तुलाराम व उनके चचेरे भाई राव गोपाल देव के सम्मिलित प्रयासों से रेवाड़ी परगने में लगभग 1000 किसानों की सेना का गठन किया गया। 17 मई को रेवाड़ी के तहसीलदार व थानेदार को बेदखल कर दिया गया तथा तहसील के हेडक्वार्टर पर अपना कब्जा जमा लिया।

निर्णायक लड़ाई लड़ने की हिम्मत नहीं
ब्रिटिश सरकार के तत्कालीन दस्तावेजों से पता चलता है कि तुलाराम व गोपालदेव के नेतृत्व में लड़ रही क्रांतिकारियों की सेना से हुकूमत इतना थरांती थी कि मई से लेकर सितंबर तक फिरंगी सेना की राव तुलाराम से निर्णायक लड़ाई लड़ने की हिम्मत नहीं हुई। आखिर 16 नवंबर को जैसे ही अंग्रेजी सेना नसीबपुर के मैदान में पहुंची, राव तुलाराम के क्रांतिकारी, फिरंगियों पर टूट पड़े। इस संग्राम में कर्नल जैराल्ड समेत कई अंग्रेज अफसर मारे गए। राव तुलाराम भी गंभीर रूप से घायल हो गए, घायलावस्था में उनके सैनिक उन्हें राजस्थान की ओर ले गए।

राव तुलाराम से खुश होकर मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने उसको रेवाड़ी, भोरा व शाहजहांपुर का जागीरदार बना दिया। बदले में तुलाराम ने भी बहादुरशाह को हर संभव मदद प्रदान की, और सैनिक विद्रोह के नेता बख्तखान के द्वारा सहायतार्थ राशि के रूप में 45000 रुपए बहादुरशाह जफर को भेजे। दिल्ली-एनसीआर के आसपास के ग्रामीण इलाकों के किसानों, काश्तकारों और श्रमिकों का 1857 के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान समय की शिला पर उकेरी गई ऐसी वीरगाथा है जिसे भुलाया नहीं जा सकता।
डॉ. विनोद कुमार यादव: (लेखक इतिहासकार व शिक्षाविद हैं वे उनके अपने विचार हैं।)

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