Opinion: समय-समय पर देशभर से महिलाओं के साथ होने वाले जघन्य अपराधों की खबरें आती रहती है। दिन प्रतिदिन स्थित नियंत्रण से बाहर होती जा रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि हम अपने संस्कार, संवेदनशीलता और मूल्यों की हत्या करके मानव विकास की अंधी दौड़ में बहुत आगे निकल गए हैं, तभी तो आज इंसान इंसान में फर्क करना मुश्किल हो गया है। कोई किसी पर भरोसा करने से कतराता है।
धैर्य के बांध टूट गए
मदद के लिए अपना हाथ आगे नहीं बढ़ाते। धैर्य के बांध टूट गए हैं। सारे संसार में अलग-अलग देशों में युद्ध की भयावह स्थितियों ने प्रकृति को नष्ट कर दिया है, जिसका खामियाजा आने वाली तमाम पुश्तें भुगतेंगी। यतीम बच्चे, बेवा, दिव्यांग और बुजुर्ग कहां अपनी जमीन तलाशें। क्या कोई ऐसी शिक्षा है जो इंसान को इंसान बनने की शिक्षा दे सके? ऐसी शिक्षा जो नैतिकता की बात करे? ऐसी शिक्षा जो शांति, सौहार्द और भाईचारे की बात करे? हाल ही में देश के दो अहम राज्यों महाराष्ट्र और बंगाल से घिनौनी करतूत के परिणाम सारे देश के सामने आए। किस मजहब में खी की अस्मत से खिलवाड़ करना सिखाया गया। किसने यह इजाजत दी कि किसी भी खी की अस्मिता को तार- तार करने का हक पुरुषों को है।
यहां तक कि मासूम बच्चियों तक को अपनी हवस का शिकार बनाने का दुस्साहस कर रहे हैं। क्या यही पौरुष शेष है। सदियों से महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा गया। उनके अधिकारों से वंचित रखा गया और तो और उन्हें कम उम्र में विवाह के बाद जनसंख्या बढ़ाने की मशीन तक बना डाला। समाज में कैसी मानसिकता का विकास होता जा रहा है कि संभ्रांत परिवारों में भी महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की रही। कभी घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं, कभी यौन उत्पीड़न, कभी दहेज के लिए हत्या, कभी डायन करार देना, कभी बांझ होने का दंश और कभी पुत्र चाह में लगातार गर्भपात। कितनी ही महिलाएं हर दिन अपनी जान गंवा देती हैं। आखिर किस प्रकार के समाज को सभ्य समाज कहते हैं। जो आज तक इतनी भी समझ विकसित नहीं हुई कि एक महिला भी महिला होने से पहले इंसान है।
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चारित्रिक गुणों का विकास
हमारी शिक्षा व्यवस्था पूर्ण रूप से असफल है क्योंकि हम बच्चों में चारित्रिक गुणों का विकास करने में बुरी तरह से असफल रहे हैं। अफसोस की बात है कि इस प्रकार की घटनाओं की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। मात्र मोमबती जलाकर अपना विरोध दर्ज करना क्या काफी है या जगह-जगह तोड़-फोड़ करना किसी नतीजे पर पहुंचने में मददगार है। यह अति गंभीर और संवेदनशील विषय है कि विकास और सभ्यता की सीढ़ी चढ़ता समाज हिंसा और घृणा में लिप्त होता जा रहा है।
नृशंस हत्याएं करने से बाज नहीं आ रहा। ऐसी सभी स्थितियों में महिलाओं के हिस्से सिर्फ शोषण आया है। क्या इसे कुंठित और मनोरोग से ग्रस्त मानसिकता का पर्याय कहना ज्यादा उचित प्रतीत नहीं होता। मनुष्य स्व केंद्रित होता जा रहा है।
लोभ, ईर्ष्या, कुत्सित विचारों ने बुद्धि को ऐसा हर लिया है कि अब मनुष्य का पतन निश्चित है। मनुष्यत्व विलुप्त होता जा रहा है। क्या माता-पिता अपने बच्चों को ऊंची शिक्षा प्राप्त करने हेतु भविष्य में अकेले भेजने से कतराएंगे? लड़कियां अपने पहनावे में कुछ बदलाव करें। इतनी रात को ऑफिस से क्यों लौटी, यही होगा। इस प्रकार की अनाप-शनाप बयानबाजी बहुत हो चुकी। महिलाओं को अपने फैसले स्वयं लेने होंगे। किसी पर निर्भर रहने से अच्छा है कि आत्मनिर्भर बनें। अपने हितों और अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हों। कम उम्र की बच्चियों को लगातार परामर्श दिए जाएं जिससे वह अपने आसपास के स्थान और वातावरण से परिचित हो सकें। । दुर्गा दुर्गा वाहिनी जैसी कार्यशालाएं संचालित हों। दिल्ली पुलिस द्वारा समय-समय पर स्व रक्षा अभियान चलाया गया था जो काबिले तारीफ रहा। इस प्रकार के अभियान और कार्यशालाएं लगातार स्कूलों में संचालित की जानी चाहिए।
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पुत्र और पुत्री को एक समान शिक्षा-दीक्षा
जिस दिन कोई भी बच्ची अपनी 12वीं कक्षा उत्तीर्ण करके इस भरे-पूरे संसार में पैर रखे, उस दिन वह बिना किसी हथियार भी अपनी रक्षा करने में समर्थ हो। ऐसा लक्ष्य सभी माता-पिता निर्धारित करें। अध्यापक अपने छात्र-छात्राओं से खुलकर उनकी समस्याओं पर बात करें। माता-पिता अपने पुत्र और पुत्री को एक समान शिक्षा-दीक्षा दें और मित्रवत व्यवहार रखें। नागरिक अपना कर्तव्य समझते हुए स्थानीय पुलिस थानों में जाकर पुलिस को अवगत करायें की अमुक स्थान सुनसान है और कहां प्रकाश की व्यवस्था की जानी अपेक्षित है। अब समय आ चुका है जब सरकार को सख्त कानून बनाने होंगे और अदालतों को इस प्रकार के जघन्य अपराध करने वालों के खिलाफ बड़े फैसले लेने होंगे, तभी हम महिलाओं को सुरक्षित जीवन प्रदान कर पाएंगे जो उनका हक है।
डा. ज्योत्सना शर्मा: (लेखिका स्वतंत्र स्तंभकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)