Opinion: प्राकृतिक सौंदर्य और जैव विविधता के लिए विख्यात केरल के वायनाड में हुए भीषण भूस्खलन ने एक बर फिर धरती के प्रकोप को उजागर किया है। इस भयंकर भूस्खलन से 300 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। कई अब भी लापता हैं। फिाले कुछ वर्षों में भूस्खलन की यह एक और बड़ी घटना है।
प्राकृतिक आपदाओं से सबक
इस आपदा की चपेट में वागनाह जिले के चुरतमाता, मुंढक्कामाला पुल तथा पुर जिले का भी का नीलांबर गांब लगभग तबाह हो चुके हैं। आपदा का देश झेलने वाले इस क्षेत्र की पहले भी माधव गाडगिल रिपोर्ट में जारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र डबलमा जा पुका है। यहां तक कि 2019 में पुलखाता, मुंडकई क्षेत्र से लगभग 10 किलोमीटर दूर 17 लोगों की मौत हो गई थी। इस क्षेत्र में 2018 और 2019 में लगभग 51 बार भूस्खलन हुए हैं। केरल वन अनुसंधान संस्थान (केएफआरआई) को एक रिपोर्ट में इस इलाके में आने वाले भूस्खलनों के पीछे खनन को मुख्य बाजा करार दिया गया है।
16 जून 2016 को केदारनाथ में आए भीषण भूस्खलन की यादें अभी धुमिल हुई नहीं कि यहां इन दिनों फिर भूस्खलन का मंजर देखने को मिल रहा है। चादल फटने और भूस्खलन से केदारनाथ यात्रा में गए हजारों यात्रों को सुरक्षित जगह पर पहुंचाया जा रहा है। हरिद्वार, देहरादून टिहरी, रुद्रप्रयाग और नैनीताल में पिछले कुछ दिनों 16 लोगों की मौत हो चुकी है। सवाल यह है कि क्या हम पर्वतीय क्षेत्रों में लगातार चढ़ते भूस्खलन, बादल फटने और बिजली गिरने जैसी प्राकृतिक आपदाओं से सबक लेने को तैयार हैं।
भूस्खलन के अहम कारक
भूस्खलन पहाड़ी क्षेत्रों में सामान्य भूवैज्ञानिक खतरों में से एक अधिकतर मानसून के दौरान होता है। इसके पीछे प्राकृतिक एवं मानवजनित दोनों हो कारक हैं। प्राकृतिक कारकों में अनुमान से कई गुना अधिक बारिश, बनने की कटाई फसल चक्र में नकारात्मक बदलाव मृदा अपरदन प्रमुख हैं। वायनाड के जिस क्षेत्र में भूस्खलन हुआ है, वहां हाल के दिनों में 60-70 फीसदी ज्यादा बारिश हुई है। असमान्य चारित सेपानी और मिट्टी के मलबे के रूप में आई इस भयानक त्रासदी के पोछे मानव जनित कारकों में अनियोजित विकास प्रमुख है।
भूस्खलन की चपेट में आए, चूरलमाला और मुंडस्कई गांव से लगभग पांच किमी दूर जापक रूप से खनन गतिविधियां संचालित हैं। इस क्षेत्र में लोगों की आजीविका मुख्य रुटेत चाय बागान हैं। कुछ सालों से चाय बागान क्षेत्र में भूमि उपयोग बदलकर पर्यटन गतिविधियों के नाम पर विशाल बड़क परियोजनाएं तथा कई मंजिला इमारतें खड़ी कर दी गई। केरल सरकार ने इस क्षेत्र में 20 हजार करोड़ रुपए से तैयार होने वाली एक टनल परियोजना को भी मंजूरी दे है।
पर्यावरणविद् अब इस परियोजना पर नये सिरे से विचार करने की मांग कर रहे हैं। कुछ ऐसे हो नैसर्गिक एवं मानव निर्मित कारकों की वजह से 2013 केदारनाथ आपदा आई थी। इसमें हजार से अधिक लोगों की मौत नई थी। इस प्राकृतिक आपदा में भारी बारिश से चोराबाड़ी ग्लेशियर पिघल गया, जिससे मंदाकनी नदी का भयावह रावह रूप देखने को मिला 30 जुलाई 2014 में भागे चारित से हुए भूस्खलन से पुणे के मालिन गांव में 151 लोगों की मौत हो गई थी। अगस्त 2017 में हिमाचल प्रदेश के कोटरोपों (मंडी) गांव में आए भूस्खलन में 46 लोगों की जान गंवानी पड़ी।
पर्वतीय क्षेत्र में खतरा अधिक
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के अनुसार भारत में अपनी विवर्तनिक स्थिति के कारण भूस्खलन का अत्यधिक खतरा है। प्रतिवर्ष 5 सेमी की दर से चारतीय भूभानके उत्तर की ओर खिसकने से तनाव उत्पन्न होता है, जिसके लिए भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं को जिम्मेदार ठहराया जाता है। भारतोष अंतरिक्ष अनुसंधान इसके मुताबिक देश का 12.6 प्रतिशत भू-भाग भूस्खलन के नजरिए से जोखिमग्रस्त है। इसमें 66.5 फीसदी हिस्सा उत्तर पश्चिमी हिमालयीन तथा 18 प्रतिशत भाग उत्तर-पूर्वी जबकि 14.7 प्रतिशत हिस्सा पश्चिमी घाट से जुड़े भूम में आता है। भारतीय सुदूर स संवेदन संस्थान (नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर एनआरएससी) के मुताबिक 1998 से 2022 के बीच देश में 80 हजार भूस्खलन हुए हैं। देश में उत्तराखंड का रुद्रप्रयाग भूस्खलन के नजरिए से सर्वाधिक संवेदनशील जिला है।
राज्यों में सबसे अधिक संवेदनशील जिलों की संख्या के लिहाज से आंध्रप्रदेश में 16, केरल और जम्मू एवं कश्मीर में 14-14 तथा उत्तराखंड में 13 जिले भूस्खलन के जेोखिम में शामिल हैं। सामान्य से कई गुना अधिक वरित कहीं सूखे के हालात बनने की सबसे बड़ी बजा परती का बढ़ता तापमान है। आईपीसीसो की रिपोर्ट के अनुसम पिछले कुमा दशकों में धरती का तापमान 11 डिग्री सेल्सियस बड़ चुका है। इंटरनेशल सेंटर फॉर इंटीमेटेड माउंटेन डेवलपमेंट की एक रिपोर्ट के अनुसार हिमालय के ग्लेशियर पिछले दस सालों की तुलना में 65 प्रतिशत तेजी से पिघल रहे हैं।
पूर्व चेतावनी प्रणाली को करें मजबूत
प्लोवल कमीशन ऑन एडष्टेिशन (जीसीए) के मुताबिक प्राकृतिक आपदाओं से जुड़े खतरे की चेतावनी 24 घंटे पहले मिल जाए तो आपदाओं के असर को 30 प्रतिशत कम किया जा सकता है। देश में पूर्व चेतावनी गालों पर पिछले कुछ सालों में तेजों से काम हुआ है। प्रकृतिक आपदाओं के स्वरुप के आधार पर इनकी क्रियान्वयन एजेंसियां अलग है। आपदा प्रबंधन से जुड़ी सूचनाएं मुहैया कराने में भारतीन भौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी), भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केंद्र (इंडियन नेशनल सेंटर फॉर सिवान इन्फॉर्मेशन सर्विस-आईएनसीओआईएस), राष्ट्रीय जल आयोग, रक्षा भू-सूचना एवं अनुसंधान प्रतिष्ठान (डीजीआई) अहम हैं। डीजीआई चक्रवात का पूर्वानुमान देता है।
राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र (नेशनल सेंटर फॉर सरनोलॉजी-एनएस) भूकंप की निगरानी करता है। आईएनसीओआईएस सुनानों और केंद्रीय जल आयोग बाढ़ से जुड़ी पूर्व चेतावनी जारी करता है। आयोग द्वारा लगभग 331 सूचना केंद्रों की स्थापना की जा चुकी है। आईएमडी द्वारा केंद्रीय जल आयोग को मौसम की भविष्यवाणियों से जुड़े डेटा मुर्तमा कराए जाते हैं। काउंसिल ऑफ एनजी, एनवायरमेंट एंड बॉटर (सीईईडब्ल्यू) की रिपोर्ट के मुताविक देश के 22 फीसदी जिले भीषण बाढ़ संभावित क्षेत्र हैं। इनमें 25 फीसदी जिलों में ही बाइ से जुड़ी पूर्व चेतावनी प्रणाली (अली वॉर्निंग सिस्टम) है। भीषण बाढ़ की चपेट में आने वाले देश में 33 फीसदी लोगों के पास अली वॉर्निंग सिस्टम की पहुंच है।
देश के उन सभी 11 राज्यों में चक्रवात से जुड़ी इंडब्लूएस सक्रिय हैं. जो चक्रवात संभावित माने जाते हैं। कुछ महीने पहले आए विपर्जय चक्रवात के दौरान जानमाल का अपेक्षित नुकसान नहीं हुआ। हुआ। इसके पीछे पूर्व चेतावनी प्रणाली कारगर यहीं। देश में भूस्खलन पर विशिष्ट पूर्व चेतावनी प्रणाली अभी विकास के चरण पर है। भारतीय सुचना प्रौधोगिकी संस्थान (आईआईटी) मंडी ने भूस्खलन के अलर्ट देने वाले सैशर आधारित उपकरण विकसित करने में जुटी है। यह उपकरण मौसम में होने वाले बदलाव, मिट्टी की नमी व गति और बारिश का घनत्व पत्ता लगाकर विश्लेषण आधारित अलर्ट प्रदान करता है।
हालांकि यह उपकरण प्रयोग के स्तर पर है। केरल सरकार ने 2020 में तीन पायलट प्रोजेक्ट को मंजूरी दी है लेकिन यह भी परीक्षण स्तर से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। दिसंबर 2017 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने कम लागत पर भूस्खलन से समाधान पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया था, लेकिन इसके नतीजे बहुत उत्साहवर्धक नहीं सके। भूस्खलन से जुड़ी पूर्व चेतावनी प्रणाली विकसित करने के लिए निवेश और शोध बढ़ाए जाने की आवश्यकता है।
पूर्व चेतावनी प्रभावितों तक पहुंचे
प्राकृतिक आपदाओं को वैज्ञानिक भविष्यवाणियों को समाज में अंतिम छोर तक आधुनिक व परंपरागत संचार माध्यमों से विस्तारित किया जाता है। मोबाइल, टोबी, रेडियो और सन्चार पत्र के अलावा माइक और डुगडुगी अस्सरदार माध्यम हैं। समाज के निचले तबके तक डिजिटल संसाधनों की पहुंच होना ही काफी नहीं है। भारत जैसे विकासशील देश में समुदायों के निम्न शैक्षणिक स्तर को देखते हुए पूर्व चेतावनी प्रणाली की पहुंच तय की जानी चाहिए। साथ ही उनका शेक्षणिक स्तर इन सूचनाओं की पहुंच को सार्थक बनाता है।
भारत की पहल पर 2019 में आपदा देवी अवसंरचना गठबंधन (सीडीआरआई) की स्थापना की गई है। इसका मुख्य उद्देश्य आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में सर्वोतम प्रथाओं का निर्माण ज्ञान आधारित वैधिक साझेदारी है। यह विश्व भर में पर्यावरण अनुकुल आधारभूत संरचनाओं के निर्माण के लिए तकनीक और वित्तीय साझेदारी पर जोर देता है। सीडीआरआई आपदा प्रबंधन पर के सेंडाई फ्रेमवर्क-2015 के लक्ष्यों को हासिल करने में सहायक है। इस गठबंधन में 31 सदस्य देशों के साथ ही संयुक्त राष्ट्रसंघ की एजेंसियां बहुपक्षीय बैंक व संस्थान शामिल है। भूस्खलन की घटनाओं के पीछे तात्कालिक रूप भले हो भारी बारिश उत्प्रेरक बनती हो, लेकिन पर्वतीन क्षेत्रों की संवेदनशील पारिस्थितिकी को समझे बिना जिस तरह पर्यटन औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे आपदाएं बंद ही हैं।
कथित विकास के नाम पर पर्यावरण की अनदेखी अस्कृतिक आपदाओं का वाहक बनती है। भारतीय जीवन पद्धति में नदी, वन तथा पर्वतमालाएं सिर्फ भौगोलिक संरचना नहीं जीवंत इकाई है। नीति निर्माताओं व विकास के प्रवर्तकों को यह भी समझना होगा कि बन और जैव विविधता हजारों साल में तैयार होती है। सड़क, बिजली, विनिर्माण की विशालकाय परियोजनाओं को स्थापित करते समय वनों की अंधाधुंध कटाई पर रोक लगानी होगी। हरक्की, सामरिक सुरक्षा के लिए आधारभूत संरचनाओं का विकास अत्यंत आवश्यक है लेकिन यह प्रकृति के अनुकूल होगी तभी टिकाऊ बनेगी।
अरविंद कुमार मिश्र: (लेखक पर्वतरण विशेषक्ष हैं. ये उनके अपने विचार हैं।)