Opinion: बीते सालों की बार भी सारे देश ने 5 तरह इस सितंबर को गर्मजोशी से अध्यापक दिवस मनाया। सोशल मीडिया पर तो अध्यापकों का उनके राष्ट्र निर्माण में योगदान के लिए विशेष रूप से आभार व्यक्त किया जा रहा था, पर अब सुधी अध्यापकों, मनोचिकित्सकों और अन्य जागरूक नागरिकों को यह भी सोचना होगा कि नौजवानों का एक बड़ा वर्ग निराशा और नाकामयाबी की स्थिति में अपनी जीवनलीला खत्म करने पर क्यों आमादा है।
बेहद गंभीर मसला
अब शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता हो जब अखबारों में किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले युवा के खुदकुशी करने संबंधी दिल दहलाने वाला समाचार न छपता हो। यह बेहद गंभीर मसला है और इस पर सारे देश को सोचना होगा। इसी तरह से आजकल बिजनेस में घाटा होने के कारण भी आत्महत्या करने वालों की तादाद लगातार बढ़ती ही जा रही है। अभी कुछ दिन पहले एक साइकिल बनाने वाली मशहूर कंपनी के अरबपति मालिक ने भी खुदकुशी कर ली थी। पिछले साल 6 दिसंबर को लोकसभा में बताया गया था कि देश में 2019 से 2021 के बीच 35,000 से ज्यादा छात्रों ने आत्महत्या की।
छात्रों के खुदकुशी करने के मामले 2019 में 10,335 से बढ़कर 2020 में 12,526 और 2021 में 13,089 हो गए। इसमें कोई शक नहीं है किसी भी हालत में किसी खास परीक्षा में सफल होने के लिए माता-पिता, अध्यापकों और समाज का भारी दबाव और अपेक्षाएं छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डाल रही हैं। राजस्थान का एक शहर है कोटा। यहां पर हर साल एक अनुमान के मुताबिक, हजारों नहीं लाखों छात्र-छात्राएं देश के शीर्ष कॉलेजों में से एक में प्रवेश पाने की उम्मीद में कोटा पहुंचते हैं। इनके जीवन का एक ही लक्ष्य होता है कि किसी तरह से आईआईटी/एनआईटी या मेडिकल की प्रवेश परीक्षा को क्रैक कर लिया जाए। आप कोटा या फिर देश के किसी भी अन्य शहर में चले जाइए जहां पर मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों के साथ साथ सिविल सेवाओं वगैरह के लिए कोचिंग संस्थान चल रहे हैं।
यह भी पढ़ें: Opinion: त्वरित न्याय के लिए चाहिए सारण मॉडल, केस की जांच को वैज्ञानिक तरीके से
मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत कष्ट की स्थिति में
वहां छात्र अत्यधिक दबाव और असफलता के डर से मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत कष्ट की स्थिति में हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व अध्यक्ष डॉ. विनय अग्रवाल कहते हैं कि हमें खुदकुशी के बढ़ते मामलों पर सिर्फ चिंता ही व्यक्त नहीं करनी। हमें इसे रोकना ही होगा। हमने युवाओं, कारोबारियों और अन्य लोगों के आत्महत्या करने के कारणों और इस समस्या के हल तलाशने के लिए विश्व आत्महत्या निवारण दिवस( 10 सितंबर) को राजधानी दिल्ली में एक महत्वपूर्ण सेमिनार का आयोजन किया है, जहां पर मनोचिकित्सक, पत्रकार और सोशल वर्कर अपने अनुभवों के आधार पर अपने पेपर पढ़ेंगे। उन निष्कर्षों के बाद हम आगे की रणनीति बनाएंगे। कुछ कोचिंग सेंटर चलाने वाले भी इस तरह के प्रयास तो कर रहे हैं ताकि छात्र बहुत दबाव में न रहें।
राजधानी के एक कोचिंग सेंटर के प्रमुख ने बताया कि हम छात्रों की लगातार काउंसलिंग भी करते रहते हैं। उनके अभिभावकों के भी संपर्क में रहते हैं। कहा जाता है कि भारत में दुनियाभर में सबसे अधिक युवा आत्महत्या दर है। इस बीच, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, 2020 में हर 42 मिनट में एक छात्र ने अपनी जान दे दी। यह आंकड़ा सच में डराता है। देखिए, नौजवानों को बिल्कुल रिलेक्स माहौल देना होगा माता-पिता और उनके अध्यापकों को, ताकि वे बिना किसी दबाव में पढ़ें या जो भी करना चाहते हैं, करें। हरियाणा के सोनीपत में सेंट स्टीफंस कैंब्रिज स्कूल चलाने वाली दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी (डीबीएस) के अध्यक्ष और सोशल वर्कर ब्रदर सोलोमन जॉर्ज कहते हैं कि हम पूरी तरह से सुनिश्चित करते हैं कि हमारे स्कूल या सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे बिना किसी दबाव में पढ़ें-लिखें।
विद्यार्थियों से गैर-जरूरी सवाल
हम अपने अध्यापकों की भी क्लास लेते हैं कि किसी भी बच्चे के साथ कक्षा में उसकी जाति न पूछी जाए और या न ही उसके पिता की आय। कुछ गैर-जिम्मेदार अध्यापक अपने विद्यार्थियों से इस तरह के गैर-जरूरी सवाल पूछते हैं। फिर वे एक ही कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों की एक-दूसरे से तुलना भी करने लगते हैं। इस कारण वे जाने-अनजाने एक बच्चे को बहुत सारे बच्चों से कमजोर साबित कर देते हैं। जाहिर है, इस वजह से उस छात्र पर बहुत नकारात्मक असर पड़ता है जो कमतर साबित कर दिया गया होता है। इसी तरह के बच्चे कई बार निराशा और अवसाद में डूब जाते हैं। देखिए, बच्चे को पालना एक बीस वर्षीय प्लान है। कौन नहीं चाहता कि उसका बच्चा समाज में ऊंचा मुकाम हासिल करे, शोहरत-नाम कमाए, पर इन सबके लिए जरूरी है कि बच्चे को उसकी काबिलियत और पसंद के अनुसार मनचाहा करियर चुनने की आजादी भी दी जाए। यह एक कड़वा सच है कि हमारे समाज में सफलता का पैमाना अच्छी नौकरी, बड़ा घर और तमाम दूसरी सुख-सुविधाएं ही मानी जाती है।
अफसोस कि हम भविष्य के चक्कर में अपने बच्चों को आत्महत्या जैसे कदम उठाने पर मजबूर करने लगे हैं। ब्रदर सोलोमन जॉर्ज कहते हैं कि हम अपने यहां बच्चों को इस बात के लिए तैयार करते हैं कि वे कठिन परिस्थितियों का भी सामना करें। असफलता से हार मान लेने से जीवन नहीं चलता। यह तो कायरता है। महान कवि पद्मभूषण डॉ. गोपाल दास नीरज की पंक्तियां याद आ रही हैं, "छुप छुप अश्रु बहाने वालों, जीवन व्यर्थ लुटाने वालों, इक सपने के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।" सफलता और असफलता का चक्र तो चला करता है। उसे स्वीकार करने में ही भला है। जैसा कि ऊपर जिक्र किया कि बीते दिनों एक अरबपति बिजनेसमैन ने राजधानी के अपने भव्य बंगले में गोली मारकर सुसाइड कर लिया है।
व्यवसायियों द्वारा आत्महत्या
पुलिस पूरे मामले की जांच में जुट गई है। कहा जा रहा है कि बिजनेस में नुकसान होने के कारण ही साइकिल बनाने वाली कंपनी के मालिक ने आत्महत्या की। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से पता चला है कि 2020 में, जब कोविड की लहर ने व्यापार को तबाह कर दिया था, तब 11,716 व्यापारियों ने आत्महत्या की थी, जो 2019 की तुलना में
29 प्रतिशत अधिक थी, जब 9,052 व्यापारियों ने अपनी जान ले ली थी। कर्नाटक में 2020 में व्यवसायियों द्वारा आत्महत्या से सबसे अधिक मौतें (1,772) दर्ज की गई जो 2019 से 103 प्रतिशत अधिक है, जब राज्य में 875 व्यवसायियों ने अपनी जान ले ली थी।
महाराष्ट्र में 1,610 व्यवसायियों ने आत्महत्या की, जो पिछले वर्ष से 25 फीसदी अधिक है, और तमिलनाडु में 1,447 को मृत्यु हुई, जो 2019 से 36 प्रतिशत अधिक है। यह सबको पता है कि भारत के व्यवसायी समुदाय का बड़ा हिस्सा सुक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों से जुड़ा है, जो बड़े झटकों को सहन नहीं कर पाता है। इसके चलते कई कारोबारियों ने कर्ज में डूबने या बिजनेस में नुकसान के कारण आत्महत्या कर ली। लब्बो लुआब यह है कि भारत में युवाओं और कारोबारियों के साथ-साथ अन्य लोगों के आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को भी प्रभावी ढंग से रोकना ही होगा।
आर.के. सिन्हा: (लेखक पूर्व भाजपा सांसद है, ये उनके अपने विचार हैं।)
यह भी पढ़ें: Opinion: जातीय गणना में आखिर हर्ज ही क्या, आरक्षण संवेदनशील मुद्दा