Opinion: शिक्षा मंत्रालय ने वर्ष 2022 की तरह 2023 में भी देशभर के 59 स्कूल बोडों (56 राज्य बोडों और तीन राष्ट्रीय बोडौँ) के रिजल्ट का विश्लेषण कर एक रिपोर्ट पेश की है। इस रिपोर्ट के कुछ निष्कर्ष जहां लंबे समय से चले आ रहे ट्रेंड के बारे मैं बताते हैं, वहीं कुछ निष्कर्ष चिंताजनक भी हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने यह पहल क्यों की है? दरअसल मंत्रालय की कोशिश है कि देश के अलग-अलग स्कूल बोर्ड्स को साझा मंच पर लाकर सभी छात्रों को बराबरी के मौके दिए जाएं। रिपोर्ट का एक निष्कर्ष यह है कि वर्ष 2022 की तरह 2023 में भी 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं में पास होने के मामले में लड़कियां लड़कों से आगे रहीं। यह ट्रेंड आज का नहीं है।
लड़कियों का दबदबा कायम
पिछले काफी समय से 10वीं-12वीं की तरह नीट और जेईई जैसे प्रोफेशनल कोर्स की परीक्षाओं और सिविल सर्विस की रैंकिंग तक में लड़कियों का दबदबा कायम है। इसके बावजूद समाज में लड़के-लड़कियों की शिक्षा में भेदभाव जारी है, जो स्कूलों में दाखिले तक में दिखता है। अभिभावक निजी स्कूलों में, जहां खर्च ज्यादा है, दाखिले के मामले में लड़कियों की तुलना में लड़कों को प्राथमिकता देते हैं। ज्यादातर अभिभावक लड़कियों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पसंद करते हैं, क्योंकि उनमें खर्च कम पड़ता है।
इस साल की रिपोर्ट भी बताती है कि प्राइवेट स्कूलों में लड़के आगे हैं, जबकि सरकारी स्कूलों में लड़कियां ज्यादा हैं। इसके बावजूद हर तरह के स्कूलों के रिजल्ट में लड़कियां आगे हैं। 2023 में 10वीं में लड़कियों की कामयाबी का पसेंटेज 89 फीसदी और लड़कों का 83 प्रतिशत रहा। जबकि 12वीं में लड़कियों का पास पसेंटेज 86.3 फीसदी और लड़कों का पास पसेंटेज 78.9 प्रतिशत रहा। स्ट्रीम या शाखा चुनने में भी छात्रों और छात्राओं के बीच का फर्क साफ दिखता है।
लड़कियों की संख्या ज्यादा रही
साइंस में छात्रों का और आर्ट्स में छात्राओं का नामांकन ज्यादा होना समाज में व्याप्त इस रूढ़ि के बारे में ही बताता है कि लड़कों को साइंस पढ़ना चाहिए और लड़कियों को आर्ट्स। लेकिन साइंस और आर्ट्स, दोनों स्ट्रीम में पास होने वालों में लड़कियों की संख्या ज्यादा रही। यह तथ्य बताता है कि तमाम रूढ़िवाद और वर्जनाओं के बावजूद लड़कियां लड़कों को पीछे छोड़ती जा रही हैं। हैरानी की बात अलबत्ता यह है कि लड़कों लड़कियों में फर्क करने वाला समाज न तो लड़कियों की मेहनत और प्रतिभा को रेखांकित कर रहा है, न उसे इससे कोई परेशानी है कि तमाम जतन किए जाने के बावजूद लड़के सालोंसाल पिछड़ रहे हैं।
2023 की रिपोर्ट के इस सकारात्मक पहलू का अलबत्ता संज्ञान लिया जाना चाहिए कि एससी/एसटी और पिछड़े वर्ग के छात्रों का नामांकन बढ़ा है और उनकी पास पसेंटेज में भी वृद्धि हुई है। एससी/एसटी लड़कियों का प्रदर्शन भी 2023 में बेहतर हुआ। इससे स्पष्ट है कि शिक्षा के क्षेत्र में वंचित तबकों की जगह बढ़ रही है। रिपोर्ट के दूसरे निष्कर्ष देश भर में स्कूली शिक्षा में व्याप्त अंतर के बारे में बताते हैं। जैसे, शिक्षा में सबसे उन्नत राज्यों में गिने जाने वाले केरल में 10वीं में पास पसेंटेज देश में सर्वाधिक 99 फीसदी है, तो मेघालय में यह सबसे कम 51.9 प्रतिशत है, जो केरल का लगभग आधा है। आम सोच यह है कि मुख्यधारा से दूरी का पूर्वोत्तर को बहुत नुकसान हुआ है। मेघालय इसका ज्वलंत उदाहरण है, जहां 12वीं में साइंस पढ़ने वाले छात्र देश में सबसे कम मात्र 11 फीसदी हैं।
सेकेंडरी एजुकेशन में आर्ट्स
त्रिपुरा में इससे थोड़ा ज्यादा लगभग 12.8 प्रतिशत छात्र साइंस के थे। हालांकि यह पूर्वोत्तर का पूरा सच नहीं है, क्योंकि मणिपुर में 68.4 फीसदी साइंस के छात्र पाए गए। राज्यवार विश्लेषण से कुछ और चीजें साफ होती हैं। जैसे केरल में पास प्रतिशत सबसे ज्यादा होना तथा आंध्र बोर्ड में साइंस पढ़ने वाले छात्रों का सर्वाधिक 78 फीसदी और तमिलनाडु में 65.9 प्रतिशत होना दक्षिण भारत में स्कूली शिक्षा के उन्नत स्तर के बारे में बताता है। अगर आर्ट्स या मानविकी की बात करें, तो त्रिपुरा बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन में आर्ट्स के सर्वाधिक 84.6 फीसदी छात्र थे, तो गुजरात बोर्ड में 82.8 प्रतिशत और मेघालय में 81.1 फीसदी छात्र आर्ट्स के पाए गए।
चिंतित करने वाली बात यह है कि वर्ष 2022 के मुकाबले 2023 में ओवरऑल पास प्रतिशत कम रहा। इस मामले में राज्य बोडों में विफलता की दर सीबीएसई और आईसीएसई जैसे राष्ट्रीय बोडों की तुलना में अधिक रही। ओपन स्कूल का प्रदर्शन भी खराब रहा। इस साल 10वीं-12वीं में 65 लाख से अधिक छात्र फेल हुए। फेल होने वालों में उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के छात्र सबसे अधिक थे। 10 वीं में फेल होने वाले छात्रों में सबसे अधिक मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश के थे। जबकि 12वीं में फेल होने वालों में सबसे आगे उत्तर प्रदेश, फिर मध्य प्रदेश रहे। यानी उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्य शिक्षा के क्षेत्र में तुलनात्मक रूप से पिछड़े होने के टैग से अब भी निकल नहीं पाए हैं।
पुरानी शिक्षा नीति में कई बदलाव
केंद्र सरकार की नई शिक्षा नीति (एनईपी), 2024 का उद्देश्य देश में शिक्षा के मानक को वैश्विक स्तर पर ले जाना है। इसके लिए सरकार ने पुरानी शिक्षा नीति में कई बदलाव किए हैं, जिसका लक्ष्य शिक्षा के स्तर को बेहतर करना और अच्छी शिक्षा तक बच्चों की पहुंच बनाना है। नई शिक्षा नीति के अनुसार, पढ़ाई का तनाव घटाने के लिए 2025-26 के शैक्षणिक सत्र से छात्रों को 10वीं और 12वीं की परीक्षा साल में दो बार देने का विकल्प मिलेगा। निश्चित रूप से ये अच्छे उपाय हैं, लेकिन शिक्षा के स्तर में केरल और मेघालय के बीच का विराट अंतर पाटने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है।
इस सच्चाई की अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि तमाम घोषणाओं और दावों के बावजूद उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे हिंदीभाषी राज्य स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में अब भी बहुत पीछे हैं। दरअसल एनसीईआरटी के संगठन 'परख' द्वारा तैयार रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि देश के अलग-अलग शिक्षा बोर्ड के सिलेबस और मूल्यांकन प्रक्रिया में असमानता इस दिशा में बड़ी चुनौती है। इसी के चलते छात्रों को बराबरी के मौके नहीं मिल पाते। ऐसे में, सिलेबस और मूल्यांकन प्रक्रिया में समानता आज की जरूरत है।
वोकेशनल और स्किल कोर्स को बढ़ावा देना भी जरूरी है। आज 61.11 फीसदी स्कूल बोडौं में फिजिकल एडुकेशन को, तो 38.80 स्कूल बोडों में आर्ट और क्राफ्ट को अनिवार्य विषय के तौर पर शामिल किया गया है। इसी तरह अभी 25 प्रतिशत स्कूल बोर्ड 50 फीसदी से ज्यादा बहुविकल्पीय प्रश्न देते हैं, जबकि 32 फीसदी स्कूल बोडों में 40 प्रतिशत प्रश्न अति लघु उत्तरीय होते हैं। दूसरी तरफ, कुछ स्कूल बोडों में 90 प्रतिशत से ज्यादा प्रश्न आसान होते हैं, तो कुछ बोडों में 50 फीसदी प्रश्न बेहद सरल होते हैं। इन फकाँ को मिटाने पर ही बात बनेगी।
कल्लोल चक्रवर्ती: (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. वे उनके अपने विचार है।)