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Opinion: बिगड़ते पर्यावरण से जड़ी-बूटियों के लुप्त होने का खतरा बढ़ा है। फसलों और फलों के उत्पादन पर भी इसका प्रभाव पड़ने लगा है। फिर विकास के नाम पर अंधाधुंध निर्माण किए जा रहे हैं। वनों को लगातार नष्ट किया जा रहा है। ऐसे में यदि किसी एक कारण को रेखांकित करने का प्रयास किया जाए, तो वह कारण है- जलवायु परिवर्तन।

Opinion: केरल को प्रासदी को देश दशकों तक याद रखेगा। वायनाड में हुए। भारी भूस्खलन ने न केवल मिट्टी और पत्थरों को हिलाया, बल्कि सैकड़ों परिवारों के सपनों और उम्मीदों को भी मिटा दिया। भूस्खलन से उपजी बड़ी मानवीय त्रासदी इस बात का प्रमाण है कि प्राकृतिक रौद्र को बढ़ाने में मानवीय हस्तक्षेप की भी बड़ी नकारात्मक भूमिका रही है। खैर, इस बीच विकास और विनाश की मौजूदा नीतियों पर एक बार फिर बहस तूल पकड़ लिया है। कहे जा रहे हैं कि भूस्खलन, भूकंप और सुनामी सभी प्रकृति से खिलवाड़ का ही नतीजा है। विकास की दौड में सीमाएं लांघने का ही ये परिणाम है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि विकास ने आज पर्यावरण के स्वरूप को एकदम से बदल दिया है। फिर भी इस मुद्दे की गहराई को समझा नहीं जा रहा।

क्योंकि हम अपने स्वाथों और लालच की सीमाएं लांघ चुके हैं। और आज हम विकास के आगे प्रकृति का तेजी से दोहन कर रहे हैं।आपदाओं के कारण मानवीय, आर्थिक और पर्यावरणीय क्षति होती है और इससे उबरना आसान नहीं होता है। इसलिए सरकार के साथ हम सभी को पहले से ही पूर्ण तैयार, मुस्तैद रहना चाहिए। आपदा को रोकना आसान कभी नहीं होता है, लेकिन इनका प्रबंधन जरूर किया जा सकता है, क्योंकि आपदा से जानमाल के साथ अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ता है। दुनिया में बिकृतिक आपदाओं से नुकसान पर संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, कुदरती हादसों की वजह से भारत को हर साल लगभग 9.8 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है।

बदल रहा मौसम चक्र
बीते दो दशक में मौसम चक्र में तेजी से बदलाव देखने को मिल रहा है जिससे ग्लेशियर पिघलने लगे हैं और नदियों के जल स्तर में कमी दर्ज की जा रही है। इतना ही नहीं प्रकृति से खिलवाड़ के कारण पहाड़ ढहने, विखरने लगे हैं। बिगड़ते पर्यावरण से जड़ी-बूटियों के लुप्त होने का खतरा बढ़ा है। फसलों और फलों के उत्पादन पर भी इसका प्रभाव पड़ने लगा है। फिर विकास के नाम पर अंधाधुंध निर्माण किए जा रहे हैं। वनों को लगातार नष्ट किया जा रहा है। ऐसे में यदि किसी एक कारण को रेखांकित करने का प्रयास किया जाए, तो वह कारण है- जलवायु परिवर्तन। गौर करने वाली बात ये है कि पेरिस जलवायु समझौते में जिन बातों पर सहमति बनी थी उन्हें लागू करने से विश्व अभी भी बहुत दूर है। बेशक छोटे देशों पर इसके लिए दबाव भी बढ़ाया जा रहा है और कई विकासशील देश इस दिशा में ठोस कार्य नीति के साथ आगे भी आ रहे हैं, लेकिन बड़े और विकसित देश लगातार अंगूठा दिखा रहे हैं।

सवाल ये भी अहम है कि इस दिशा में भारत ने कितना काम। किया है। ऐसे में, क्या ये सही समय है कि पेरिस समझौते को लागू करने के लिए वैश्विक दवाव बढ़ाने के साथ ही हम प्रकृति के प्रति अपने व्यवहार की समीक्षा करें। भारत में बरसात आते ही नदियों में बाढ़ आना आम बात है। इसी के साथ भूकंप, तेज बारिश, ओलावृष्टि, तूफान, चक्रवात, भूस्खलन, हिमस्खलन, बिजली गिरना, वनों में आग लगने जैसी अनेक प्राकृतिक आपदाएं हर साल भारत में दस्तक देती रहती हैं। ये आपदाएं हर साल भारी तबाही मचाती हैं। इन आपदों में हजारों को तदाद में लोगों को मौत हो जाती है। ये आपदाएं देश की जीडीपी पर भी बड़ा असर डालती है। इसलिए जरूरी है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में केवल चिंतन तक ही सीमित न रह कर धरातल स्तर पर प्रयास करने होंगे।

आपदाओं में भारत तीसरे नंबर पर
गौर करने वाली बात ये भी है कि आपदाओं की संख्या में दुनिया भर में अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरे नंबर पर है। 21वीं सदी की शुरुआत से ही भारत में ऐसी अनेक आपदाएं आई हैं, जिन्होंने पूरे देश के मानस को झकझोर कर रख दिया है। उत्तराखंड के जोशीमठ में कुछ ही माह पहले आई आपदा इसका हालिया उदाहरण है। इसके अलावा उत्तराखंड में ही 2013 में आई भीषण बाढ़, 2004 में हिंद महासागर में आई सुनामी, 2001 में गुजरात के कच्छ में आया भूकंप और 2014 को कश्मीर की बाढ़ इत्यादि आपदाओं के ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें केवल हजारों लोगों की जानें ही नहीं गई बल्कि अभी तक इन जगहों का आपदा से पहले का स्वरूप बहाल नहीं हो सका है। अहम सवाल ये है कि हम इन तमाम आपदाओं से अब तक सबक नाहीं लिए। जबकि ऐसी आपदाएं हमें सबक देती हैं कि भले ही हम कुदरत का कोहराम न रोक सके लेकिन जन-धन को हानि को कम करने के प्रयास जरूर किए जा सकते हैं।

पर्यावरण हाशिए पर
दुनिया तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ रही है। ये कहने की जरूरत नहीं कि शहरीकरण हमारी प्रकृति के साथ कहीं ज्यादा खिलवाड़ कर रहा है। अगर अभी से हम नहीं चेते, तो ये शहरीकरण हमें बर्बाद कर देगा। क्योंकि शहरों के विकसित होने के साथ-साथ दुनियाभर में हरियाली का दायरा सिकुड़ रहा है और कंक्रीट के जंगल बढ़ रहे हैं। इतना हो नहीं बिगड़ते पर्यावरणीय संतुलन और मौसम चक्र में आते बदलाव के कारण पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियों के अलावा जीव-जंतुओं की कई प्रजातियों के अस्तित्व पर भी अब संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

जबकि पर्यावरण का संबंध मानवीय जीवन में महत्वपूर्ण है। यूं कहे दोनों एक-दूसरे के पूरक है। लेकिन विकास के आगे पर्यावरण को हम सभी ने हाशिये पर छोड़ दिए हैं। मानवीय सोच और विचारधारा में इतना ज्यादा बदलाव आ गया है कि भविष्य की जैसे मानव को कोई चिंता ही नहीं है। इसमें कोई दोराय नाहीं है कि अमानवीय कृत्यों के कारण आज मनुष्य प्रकृति को रिक्त करता चला जा रहा है पर्यावरण के प्रति चिंतित नहीं है। अगर हम अभी भी नहीं संभले और हमने प्रकृति से साथ खिलवाड़ बंद नहीं किया तो हमें आने वाले समय में इसके खतरनाक परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।

प्रकृति का संरक्षण जरूरी
साथ ही, पर्यावरणीय असंतुलन के बढ़ते खतरों के मद्देनजर हमें स्वयं सोचना होगा कि हम अपने स्तर पर प्रकृति संरक्षण के लिए क्या योगदान दे सकते हैं। हमें अपनी इस सोच को बदलना होगा कि अगर सामने वाला व्यक्ति कुछ नहीं कर रहा तो में ही क्यों करूं? हर बात के लिए सरकार से अपेक्षा करना ठीक नहीं। सरकारों का काम है किसी भी चीज के लिए कानून या नियम बनाना और जन-जागरूकता पैदा करना लेकिन ईमानदारी से उनका पालन करने की जिम्मेदारी तो हमारी ही है। प्रकृति के तीन प्रमुख तत्व हैं जल, जंगल और जमीन, जिनके बगैर प्रकृति अधुरी है। लेकिन ये विडंबना ही है प्रकृति के इन तीनों ही तत्वों का इस कदर दोहन किया जा रहा है कि प्रकृति का संतुलन ही डगमगाने लगा है, जिसकी परिणति अब अक्सर भयाबह प्राकृतिक आपदाओं के रूप में सामने आने लगी 
रवि शंकर: (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये उनके अपने विचार हैं।)

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