Opinion: ओवर द टॉप यानी ओटीटी का मशहूर प्रोग्राम है मिर्जापुर। इसकी लोकप्रियता इतनी है कि इसका तीसरा सीजन दर्शकों के सामने हाजिर है। उम्मीद की जा रही है कि जिस तरह इसके शुरूआती दो सीजन को दर्शकों का प्यार हासिल हुआ, एक बार फिर वैसा ही स्नेह हासिल करने में यह कामयाब रहेगा। मिर्जापुर की सफलता का राज है, इसका बोल्ड कथानक और संवाद। जिसमें ठेठ भोजपुरी अंदाज में गालियों की भरमार है, परिवार के बीच अविश्वसनीय लगने वाला व्यभिचार है। माफिया है, माफिया है तो गोली-बारूद भी होगा।
धन, ताकत और यौनिकता का तड़का
वर्चस्व की जंग भी होगी और राजनीति से उसके काले रिश्ते भी होंगे। जब इतना कुछ होगा तो राजनीति की गोटियां भी होंगी। राजनीतिक उठापटक भी है और राजनीति को साधने के लिए धन, ताकत और यौनिकता का तड़का भी है। लेकिन इसमें कुछ नहीं है तो वह है मिर्जापुर। मिर्जापुर की ना तो इसमें मिठास है, ना ही संस्कृति है और ना ही इतिहास। इसलिए जो भी ओटीटी वाले मिर्जापुर से गुजरता है, वह मान लेता है कि मिर्जापुर की धरती त्रिपाठी परिवार जैसे माफियों की बारूद की गंध और गोली की आवाज के बीच ही कहीं अपना अस्तित्व बचाए हुए है, जहां परिवार के अंदर ही अवैध संबंधों की बहुलता है। जहां हर किसी की जिंदगी माफिया के ही इर्द-गिर्द घूमती रहती है।
इसके पहले सीजन के सुपर हिट होते वक्त दिल्ली में तैनात एक दक्षिण भारतीय बड़े अधिकारी ने पूछ लिया था कि क्या मिर्जापुर ऐसा ही है, जहां हर व्यक्ति गालियां ही देता रहता है, जहां माफिया राज ही चलता रहता है। ओटीटी पर मिर्जापुर का जब भी नया सीजन आता है, मिर्जापुर के निवासियों के सामने नए सिरे से सवालों की बौछार शुरू हो जाती है। जाहिर है कि वे सारे सवाल मिर्जापुर सीरीज के जरिए रची गई छवि के इर्द-गिर्द ही होती है। मिर्जापुर के मूल निवासी एक बड़े पत्रकार ने तो अब इस बारे में सफाई देनी ही बंद कर दी है।
काल्पनिक रचना रही चंद्रकांता
आखिर कितने लोगों को वे बता सकते हैं कि मिर्जापुर वैसा ही नहीं है, जैसा ओटीटी के सीरीज में दिखाया जा रहा है। इसे संयोग ही कहेंगे कि मिर्जापुर से जुड़ी एक काल्पनिक रचना रही चंद्रकांता और दूसरी काल्पनिक रचना है मिर्जापुर सीरीज। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में मिर्जापुर की ही धरती पर रची गई चंद्रकांता। बाबू देवकीनंदन खत्री की यह रचना काल्पनिक होते हुए भी इतनी दिलचस्प है कि उसे अगर पढ़ना शुरू किया तो खत्म किए बिना छोड़ना आसान नहीं है। 1888 में यह रचना छपी थी, तब उसकी लोकप्रियता ऐसी थी कि उसे पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी तक सीखी। कुछ वैसी ही लोकप्रियता मिर्जापुर सीरीज की भी है। कुछ वैसी ही काल्पनिक सीरीज भी है। लेकिन चंद्रकांता और मिर्जापुर में एक अंतर है। चंद्रकांता मिर्जापुर की छवि को नए सिरे से गढ़ती है, जबकि मिर्जापुर उसे बदरंग बनाती है।
मिर्जापुर वैसा नहीं है, जैसा उसे सीरीज दिखाता है। मिर्जापुर की और भी पहचान है। यह बात और है कि तकनीकी क्रांति के दौर में वह पहचान मिर्जापुर सीरीज जैसे प्रयासों के पीछे कहीं छुपती जा रही है। भारत राष्ट्र की अस्मिता की पहचान है अशोक चिन्ह। अशोक महान ने इसे जिस लाल पत्थर पर खुदवाया, वह सिर्फ मिर्जापुर में ही मिलता है। बौद्ध स्तूप हों या बौद्ध धर्म के अन्य प्रतीक, ज्यादातर मिर्जापुरी लाल पत्थर पर ही गढ़े गए हैं। सिर्फ देवकीनंदन खत्री ही नहीं, हिंदी साहित्य के कई अन्य दिग्गजों की जन्मभूमि मिर्जापुर है। हिंदी साहित्य के भारतेंदु युग के महत्वपूर्ण निबंधकार रहे बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में उन्होंने मिर्जापुर से ही 'आनंद कादंबिनी' नामक पत्रिका निकाली। हिंदी के प्रसार में ताजिंदगी जुटे रहे प्रेमधन में निबंध और प्रबंध काव्य की कई अनमोल रचनाएं दी हैं।
मिर्जापुरी माटी का कर्ज
हिंदी के आदि आलोचक रामचंद्र शुक्ल पर भी मिर्जापुरी माटी का कर्ज रहा। उनके पिता मिर्जापुर में तैनात थे, लिहाजा उनके शुरूआती जीवन का बड़ा हिस्सा यहीं गुजरा, प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी यहीं हुई और यहीं से उनकी रचनात्मकता के अंकुर फूटे। हिंदी की पहली कहानी कौन है, इस पर एक राय नहीं है। लेकिन जिन कहानियों को पहली कहानी की सूची में हिंदी के आलोचक शामिल करते हैं, उनमें से एक कहानी है, 'दुलाईवाली'। यह कहानी 1907 में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी की ना सिर्फ रचनाभूमि मिर्जापुर है, बल्कि इसकी रचनाकार भी मिर्जापुर की ही वासी रहीं। राजेंद्र बाला
घोष ने इस कहानी को लिखा था। जो बंग महिला के नाम से तब रचनारत थीं। इस कालजयी कहानी ने तब खूब सुर्खियां बटोरी थीं।
ओटीटी प्लेटफॉर्म द्वारा रची गई छवि से इतर मिर्जापुर की अपनी अलग पहचान है। मिर्जापुर में ही मां विंध्यवासिनी देवी का स्थान है। महात्रिकोण पर उनका मंदिर है। महात्रिकोण की यात्रा के बिना विंध्यवासिनी देवी की परिक्रमा पूरी नहीं मानी जाती। पहले संकट मोचन मंदिर में मत्था नवाने की परंपरा है। फिर काली खोह की यात्रा होती है। इसके बाद अष्टभुजी मंदिर का दर्शन और आखिर में विंध्याचल देवी दर्शन से यह तीर्थ पूरा होता है। मान्यता है कि भगवान राम ने यहीं पर अपने पिता दशरथ का श्राद्ध किया था। जहां उन्होंने शिव लिंग की स्थापना की, जो वाराणसी शहर से दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। इस मंदिर को रामेश्वर और इलाके को अब शिवपुर के नाम से जाना जाता है।
मुंबइया मसाला फिल्म
उत्तर प्रदेश के जिले मिर्जापुर की तहसील है चुनार। यहां का किला मशहूर है। जिसे गढ़ कुंडार के नाम से भी जाना जाता है। चुनार के किले की ही पृष्ठभूमि में चंद्रकांता के दस खंडों और चंद्रकांता संतति की रचना देवकीनंदन खत्री ने की है। यह रचना रहस्य व रोमांच से भरी है। कभी मुंबइया मसाला फिल्मों के लिए एक खास फॉर्मूला होता था, जिसमें सौंदर्य होता था, सेक्स की छौंक होती थी और कुछ मारधाड़ के नजारे होते थे। आज के ओटीटी प्लेटफॉमाँ पर सफलता के लिए कुछ उसी अंदाज में मसालेबाजी में व्यवसायिक सफलता की सीढ़ी तलाश रहे हैं।
इसी चलन में मिर्जापुर सीरीज भी उभर कर सामने आई है। ओटीटी सीरीज मिर्जापुर में सिर्फ मिर्जापुर का नाम ही है, इसमें मिर्जापुर की ना तो आत्मा है और ना उसका स्थूल रूप। उसकी बुनियादी पहचान गायब है। ऐसे में मिर्जापुर निवासी क्षुब्ध ना हों तो ही आश्चर्य होगा। आजकल ओटीटी पर जिस तरह की सीरीज का निर्माण हो रहा है, उससे देश के किसी खास जिले, क्षेत्र की असल पहचान गायब होने का खतरा बढ़ गया है। देश में बहुत से क्षेत्र हैं, जिनकी असल पहचान ऐतिहासिक व सांस्कृतिक है, लेकिन ओटीटी सीरीज में काल्पनिक रूप से गढ़ी गई छवि के चलते उस क्षेत्रकी पहचान विकृत हो रही है, नई पीढ़ी या अनजान लोगों को लगेगा कि मिर्जापुर अपराध से भरे क्षेत्र है, सच ऐसा नहीं है।
उमेश चतुर्वेदी: (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं, वे उनके अपने विचार हैं।)