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Opinion : उतार-चढ़ाव इस संसार का सबसे बड़ा सच है। इस सच को जो स्वीकारते हुए उचित समय पर सही निर्णय लेने के लिए खुद को बदल लेता है वह कभी हारता नहीं। इस उक्ति को किसी में चरितार्थ देखना हो तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में देखा जा सकता है।

अखिलेश आर्येदु : उतार-चढ़ाव इस संसार का सबसे बड़ा सच है। इस सच को जो स्वीकारते हुए उचित समय पर सही निर्णय लेने के लिए खुद को बदल लेता है वह कभी हारता नहीं। इस उक्ति को किसी में चरितार्थ देखना हो तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में देखा जा सकता है। नए संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद नरेन्द्र मोदी ने जिस विश्वास और उत्साह से कहा- न हारा था न हारेंगे, वह उनके भावी कदमों और नीतियों का संकेत भर नहीं है बल्कि देशहित में लिए जाने वाले निर्णयों का सूचक भी है।

ऐसे निर्णय क्या फिर मोदी अपने तीसरे कार्यकाल में ले पाएंगे?
पिछली दो पारियों में जिन निर्णयों की वजह से मोदी के मजबूत इरादों से जनता को उनके संकल्पों के बारे में पता चला था, ऐसे निर्णय क्या फिर मोदी अपने तीसरे कार्यकाल में ले पाएंगे? जिन जन भावनाओं को पूरा करने की चुनौतियां मोदी के सामने अगले पांच साल में होंगी, जिन पर खरा उतरने के साथ सहयोगी दलों की महत्वाकांक्षाओं पर भी खरा उतरने की चुनौती मोदी के सामने होगी, अभी हम कह सकते हैं कि देश हित जिसके लिए सर्वोपरि हो, वह हर चुनौती को भी पार करने का दम रखता है। हां, इतनी राहत की बात जरूर है कि सहयोगी दलों ने मोदी को बिना शर्त समर्थन ही नहीं दिया है बल्कि पूरे मन से पांच साल तक साथ रहकर देशहित में लिए जाने वाले निर्णयों में भी साथ देने की बात कही है।

लोकतंत्र शुरू से भीड़तंत्र का समर्थक रहा है
गठबंधन की सरकार के स्वभाव के अनुरूप यह अच्छा कहा जा सकता है। अभी से यह किसी को नहीं सोचना चाहिए कि कहीं नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू बीच में साथ छोड़कर चले गए तो क्या होगा। भारतीय लोकतंत्र शुरू से भीड़तंत्र का समर्थक रहा है। मूल्य आधारित लोकतंत्र की बात कही तो जाती है लेकिन अब राजनीति में मूल्यों की बात करना मूर्खता समझी जाने लगी है, इसलिए मोदी का तीसरा कार्यकाल भीड़ तंत्र की उफनाती भावनाओं को पूरा करने की बहुत बड़ी चुनौती हो सकती है।

आजादी के बाद से ही पार्टियों के जीतने हारने का सबसे बड़ा मुद्दा रहा है
संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने वाले विपक्ष के आरोपों को झूठ साबित करने के लिए आरक्षण और संविधान की रक्षा के संकल्प के लिए दलितों व पिछड़ों में विश्वास पैदा करने की बड़ी चुनौती है। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार जहां जाति ही व्यक्ति की सबसे बड़ी पहचान, गुण और क्षमता मानी जाती है। चूंकि आरक्षण की व्यवस्था संविधान के जरिये हुई है और आजादी के बाद से ही पार्टियों के जीतने हारने का सबसे बड़ा मुद्दा रहा है, इसलिए आरएसएस के हिंदुत्व वाले एजेंडे को छोड़ने और एनडीए के सांझा एजेंडे के मुताबिक कार्य करना होगा।

सरकार को बदनाम करने की कवायदें खूब होंगी
यह मोदी के नेतृत्व की पहली परीक्षा जैसा होगा। पिछले दो कार्यकालों में विपक्ष मजबूत नहीं था। जनता और देशहित में फैसले लेने में कोई खास दिक्कत नहीं आती थी, लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। विपक्ष इस बार मजबूत ही नहीं, आक्रामक भी है। सरकार को बदनाम करने की कवायदें खूब होंगी। जातियों को भड़काने और लड़ाने के अवसर ज्यादा तलाश करते हुए कई दल दिखेंगे। इस चुनौती से भी इस सरकार को पार पाना होगा। इस बार विपक्ष ने आरक्षण, संविधान बचाओ के साथ-साथ बेरोजगारी और महंगाई जनता के दिल को छूने वाले मुद्दे चुनाव के वक्त जोर- शोर से उठाए थे। अगड़ा-पिछड़ा का सवाल चुनाव के वक्त कहीं ज्यादा जोर-शोर से इस बार उठा है।

मुद्दों से निपटना मोदी के लिए कठिन चुनौती हो सकती है
उत्तर प्रदेश और बिहार में अगड़े-पिछड़े की राजनीति पर सरकारें बनती-बिगड़ती रही हैं। वीपी सिंह की सरकार आरक्षण के मुद्दे पर ही चली गई थी, इसलिए आने वाले पांच सालों में इन सभी मुद्दों से निपटना मोदी के लिए कठिन चुनौती हो सकती है। हां, प्रधानमंत्री की कार्यशैली और उनका स्वभाव जिस तरह का है उससे यह कहा जा सकता है कि इस बार वे उन सभी समस्याओं और चुनौतियों का सामना बेहतरीन ढंग से कर पाएंगे, क्योंकि उन्हें पिछले दस साल का अनुभव है। हर व्यक्ति और सरकारें अनुभवों से सीखते हैं। प्रधानमंत्री मोदी इस बात को बखूबी स्वीकार करते हैं कि वे देश समाज से हर पल कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। पिछले मोदी काल में समान नागरिक संहिता और एनआरसी का मुद्दा अब सहयोगी पार्टियों के साथ मिलकर हल करना होगा।

उस वोट बैंक को नाराज करना वे नहीं चाहेंगे
चंद्रबाबू नायडू आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। मुसलमानों को वहां पिछली सरकार ने 4 प्रतिशत आरक्षण धर्म के आधार पर दिया था। यह भले ही संविधान के अनुरूप न हो लेकिन चंद्रबाबू नायडू इसकी समीक्षा कर इसे खत्म करेंगे, लगता नहीं है, क्योंकि आन्ध्र में उनकी सरकार को वोट मुसलमानों ने भी दिया है, तो उस वोट बैंक को नाराज करना वे नहीं चाहेंगे। ऐसे में भाजपा अपनी विचारधारा के खिलाफ और संविधान के खिलाफ इसे स्वीकार करेगी, इस पर कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगी। विपक्ष ऐसे में अपने सहयोगी दलों को अपने पाले में लाने की कोशिश फिर कर सकता है, इसलिए इस बार मोदी को पहले से कहीं ज्यादा सहयोगियों को साधते-संभालते हुए चलना होगा।

राज्यों के राजनीतिक समीकरण को साधना एक चुनौती
किसान कल्याण, ग्रामीण विकास, रोजगार, कृषि विकास को अहमियत देते हुए भुखमरी, गरीबी और कुपोषण जैसे तमाम समस्याओं को खत्म करने के लिए कहीं तेज प्रयास करने होंगे। इसी साल महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड की विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। मोदी के कार्य और लोकप्रियता की एक और परीक्षा इन राज्यों के चुनाव में भी परखी जाएगी, इसलिए इन राज्यों के राजनीतिक समीकरण को साधना एक चुनौती होगी। अग्निवीर योजना की एनडीए के सहयोगी दल समीक्षा करके इसे विवादों से दूर करने की बात अब जोर-शोर से उठाएंगे, इसका संकेत सहयोगी दल के नेता देने लगे हैं। इस बार आम चुनाव में हिंदू जातियों की जनगणना कराने की बात विपक्ष ने जोर शोर से उठाया।

नारों की समीक्षा भी इस नई सरकार को करनी होगी
भारतीय जनता पार्टी इसे जातीय एकता और सामाजिक समरता के लिए खतरा बताकर इसे खारिज करती रही है। विपक्ष ऐसे अवसर की तलाश में रहेगा कि यह मुद्दा एनडीए के सहयोगी दल उठाएं और वह उसका समर्थन कर एनडीए की एकता को तोड़ दें। इसलिए देशहित में स्थिर सरकार के मद्देनजर सहयोगियों को भी ऐसे मुद्दों को अहमियत देने के बजाय साझा कार्यक्रम को ही आगे बढ़ाने पर जोर देना चहिए। फिर भी मोदी के लिए यह चुनौती रहेगी ही कि सहयोगी दल किसी भी मुद्दे को विपक्ष के लिए अवसर में न बदलने पाएं। सब का साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सब का प्रयास जैसे नारों की समीक्षा भी इस नई सरकार को करनी होगी।

सहयोगी दल चाहेंगे वादे सरकार उसे लागू करे
नीतियों में पहले से ज्यादा सहमति बनाकर आगे बढ़ने की चुनौती भी कम नहीं होगी। जो जनहितकारी नीतियां केंद्र राज्यों में लागू करेगी अब उसे सहयोगियों की सहमति से ही लागू करना होगा। चुनावी घोषणा पत्रों की परीक्षा भी अगले पांच सालों में होनी है , खासकर एनडीए में शामिल दलों के घोषणा पत्रों की। सहयोगी दल चाहेंगे कि उन्होंने जनता से जो वादे किए थे मोदी सरकार उसे लागू करे। सहयोगी दलों की घोषणा पत्रों में क्षेत्रगत समस्याओं को दूर करने के भी वादे हुआ करते हैं। उन वादों को सहयोगी दल पूरा करवाने के लिए दबाव बना सकते हैं। यह भी मोदी के लिए चुनौती होगी। जिसमें देश प्रथम समाया हो, उसके लिए चुनौतियां भी समाधान जैसी हो जाती हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)  
 

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