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Opinion: हरियाणा में सत्ता की जंग दरअसल 'हैट्रिक' करने और उससे बचने की जंग ही होगी। दूसरा शासनकाल पूरा कर रही भाजपा सत्ता की 'हैट्रिक' करना चाहेगी, जबकि दस साल से सत्ता से वनवास झेल रही कांग्रेस अपनी पराजय की 'हैट्रिक' से बचना चाहेगी।

Opinion: पिछली बार 'किंगमेकर' रही जजपा के आजाद समाज पार्टी (आसपा) से गठबंधन के साथ ही हरियाणा में चुनावी बिसात बिछ चुकी है। इनेलो और बसपा के बीच पहले ही गठबंधन ही चुका है। इनेलो-बसपा में 53-37 का सीट बंटबारा हुआ तो जजपा-आसपा में 70-20 का हुआ है। जाहिर है, यह देवीलाल परिवार में शक्ति प्रदर्शन भी है, पर अब 'आप' के पास अकेले चुनाव मैदान में उतरने के अलावा कोई विकल्प नहीं।

वोट काट कर जंग
हरियाणा में सत्ता की जंग दरअसल 'हैट्रिक' करने और उससे बचने की जंग ही होगी। दूसरा शासनकाल पूरा कर रही भाजपा सत्ता की 'हैट्रिक' करना चाहेगी, जबकि दस साल से सत्ता से वनवास झेल रही कांग्रेस अपनी पराजय की 'हैट्रिक' से बचना चाहेगी। बाकी दलों की भूमिका एक-दो सीट जीत कर या दो-चार प्रतिशत वोट काट कर इस जंग को दिलचस्प बनाने की रहेगी। हरियाणा की राजनीति दशकों तक तीन चर्चित लालों बंसीलाल, देवीलाल और भजनलाल के इर्दगिर्द घूमती रही। देवीलाल और बंसीलाल के दलों से गठबंधन में भाजपा जिस हरियाणा में राजनीति करती रही, उसी में दस साल से सत्ता पर काबिज होना छोटी उपलब्धि नहीं।

आज तीनों चर्चित लाल- परिवार के कुछ सदस्य भी भाजपा का झंडा उठाये हुए हैं। 2014 में इनेलो ने 19 सीटों के साथ मुख्य विपक्षी दल का दर्जा हासिल किया था, जबकि दस साल से सत्तारूढ़ कांग्रेस तीसरे स्थान पर फिसल गई थी, लेकिन 2019 आते-आते सब कुछ बदल गया। देवीलाल परिवार में विभाजन से जजपा जन्मी और इनेलो में ऐसी भगदड़ मची कि कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल का दर्जा मिल गया। अब 2024 के विधानसभा चुनाव से पहले जजपा में भी वैसी ही भगदड़ है। 10 में छह विधायक उसे अलविदा कह चुके हैं। कभी भी यह संख्या सात हो सकती है। हाल के लोकसभा चुनाव में जजपा उम्मीदवार जमानत तक नहीं बचा पाये, जबकि 10 में से पांच लोकसभा सीटें जीत कर कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया।

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भाजपा ने लोकसभा की सभी 10 सीटें जीतीं
विधानसभा क्षेत्रों की दृष्टि से देखें तो कांग्रेस ने कुल 90 में से 46 में बढ़त हासिल की, जबकि भाजपा ने 44 में। फिर भी हर चुनाव और उसके मुद्दे अलग होते हैं। 2019 में ही भाजपा ने लोकसभा की सभी 10 सीटें जीतीं, लेकिन चंद महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में 46 सीटों का बहुमत का आंकड़ा भी नहीं छू पायी और 10 सीटें जीतने वाली नई नवेली जजपा की सत्ता में भागीदारी की लॉटरी खुल गई। इसलिए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 46 विधानसभा क्षेत्रों में मिली बढ़त में ज्यादा राजनीतिक संकेत नहीं पढ़ा जाना चाहिए। लोकसभा चुनाव से दो महीने पहले अचानक ही मनोहर लाल खट्टर ने इस्तीफा दे दिया, नायब सिंह सैनी नये मुख्यमंत्री बने और जजपा से गठबंधन भी टूट गया। ऐसे घटनाक्रम का अप्रत्याशित चुनावी प्रभाव और परिणाम संभव है।

इस बीच लोकसभा चुनाव परिणाम से सबक लेकर ब्राहमण चेहरे मनोहर लाल बड़ोली को नया प्रदेश अध्यक्ष बनाने से भाजपा को बेहतर रणनीति बनाने का मौका मिल गया है। चुनाव से पहले होने वाले दलबदल का लाभ भाजपा और कांग्रेस, दोनों को हुआ है, लेकिन उससे टिकट बंटबारे में मुश्किलें भी बढ़ती हैं। दस साल पहले जिस अंतर्कलह के चलते कांग्रेस की दुर्गति हुई थी, उससे वह आज भी मुक्त नहीं। दस साल मुख्यमंत्री रहे भूपेंद्र सिंह हुड्डा को नेता प्रतिपक्ष और उन्हीं की पसंद के उदयभान को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर आलाकमान ने उन्हें 'फ्री हैंड' का ही संदेश दिया है। परिणामस्वरूप हुड्डा विरोधियों के समक्ष कमल थामने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं की फेहरिस्त लंबी है, लेकिन अभी भी कुमारी सैलजा और रणदीप सिंह सुरजेवाला के रूप में दो दिग्गज ऐसे मौजूद , जिनकी आलाकमान तक सीधी पहुंच है। दोनों ही राष्ट्रीय महासचिव भी हैं।

'सीएम फेस' पेश करने के आसार कम
सिरसा से सांसद चुने जाने के बावजूद सैलजा ने विधानसभा चुनाव लड़ने का संकेत देकर बता दिया है कि वह मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं। कांग्रेस द्वारा किसी को 'सीएम फेस' पेश करने के आसार कम ही हैं, लेकिन रोहतक से कांग्रेस सांसद दीपेंद्र हुड्डा जिस तरह 'हरियाणा मांगे हिसाब' यात्रा निकाल रहे हैं, उसे भूपेंद्र हुड्डा द्वारा अपने बेटे को स्थापित करने के रूप में देखा जा रहा है। जवाब में सैलजा भी यात्रा अलग निकाल रही हैं। यह खेमेबाजी टिकट वितरण में भी दिखेगी ही। भाजपा और कांग्रेस में सीधी टक्कर के आसार का अर्थ यह नहीं कि अन्य दल चुनाव को प्रभावित नहीं करेंगे। लोकसभा चुनाव कांग्रेस के साथ गठबंधन में लड़ने वाली 'आप' विधानसभा चुनाव अलग लड़ रही है। इनेलो ने मायावती की बसपा के साथ गठबंधन किया है तो जजपा ने उनके धुर विरोधी और नगीना के सांसद चंद्रशेखर रावण की आसपा से गठबंधन कर जाट-दलित समीकरण का दांव चल दिया है।

भाजपा और कांग्रेस के बीच कड़े मुकाबले में ये दल शक्ति संतुलन के जरिये चुनाव परिणाम को प्रभावित करने की हैसियत तो रखते ही हैं। वैसे बहुकोणीय मुकाबला भाजपा के लिए अनुकूल साबित होगा, क्योंकि सत्ता विरोधी वोट बंट जायेंगे। विधानसभा चुनाव में हार- जीत का अंतर भी बहुत ज्यादा नहीं रहता। फिर भी इस सियासी दंगल में सबसे अहम होंगे चुनावी मुद्दे। हरियाणा में बेरोजगारी की उच्च दर अरसे से चर्चा में है। महंगाई सर्वव्यापी है, लेकिन भाजपा के लिए असल चुनौती होंगी किसान आंदोलन और महिला पहलवानों के दिल्ली में अनशन से बना माहौल तथा 'अग्निवीर' योजना। विवादास्पद कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमा पर साल से भी लंबे चले किसान आंदोलन का ठिकाना हरियाणा ही था।

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कांग्रेस चुनावी लाभ उठाने से क्यों चूकेगी
अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में सबसे ज्यादा मेडल हरियाणा के खिलाड़ी ही लाते हैं। सेना में भागीदारी वाले राज्यों में भी हरियाणा अग्रणी है। ऐसे में कांग्रेस चुनावी लाभ उठाने से क्यों चूकेगी? बाद रहे कि राहुल गांधी ने किसानों को मिलने के लिए संसद भवन बुलाया तो ओलंपिक के फाइनल मुकाबले से पहले अयोग्य घोषित कर दी गई चर्चित पहलवान विनेश फौगाट का स्वागत करने दीपेंद हुड्डा एयरपोर्ट पहुंचे। 'अग्निवीर' योजना समाप्त करने का बादा कांग्रेस लोकसभा चुनाव में ही कर चुकी है। ऐसा नहीं कि राज्य और केंद्र में सत्तारूढ भाजपा को इन चुनौतियों का अहसास नहीं।

सुधारात्मक कदम उठाकर सकारात्मक संदेश देने की कोशिश हो रही है। हाल में नई पेंशन स्कीम एनपीएस की जगह एकीकृत पेंशन स्कीम यूपीएस भी मंजूर की गई है, पर 'इतनी देर' से की जाने वाली इन 'कुछ कोशिशों' का असर चुनाव परिणाम ही बतायेंगे। बेशक उम्मीदवारों का चयन भी एक बड़ा कारक रहेगा, क्योंकि हरियाणा विधानसभा चुनाव में अकसर निजी प्रभाव वाले कुछ निर्दलीय जीतते रहे हैं। जीत जाने पर, खासकर सत्तारूढ़ दल इन निर्दलियों पर डोरे डालता है। वे पांच साल सरकार का समर्थन करते हैं और फिर नये चुनाव आते ही टिकट की जुगाड़ में जुट जाते हैं।
राज कुमार सिंह: (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये उनके अपने विचार हैं।)

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