Opinion : मोदी सरकार को ही जनादेश, कांग्रेस की कुंठा कि वह ऐसी भाषा बोल रहे

Opinion : पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी बार-बार कहते हैं कि आम चुनाव का जनादेश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा-एनडीए को नहीं मिला। यह अवैध, असंवैधानिक और अल्पमत की सरकार है, जो छोटी-सी गड़बड़ी से ही गिर सकती है। प्रधानमंत्री मोदी की छाती 56 इंच के बजाय 30-32 इंच की हो गई है। वह मानसिक और मनोवैज्ञानिक रूप से टूट चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी के बारे में भय और खौफ की जो धारणा थी, वह भी खत्म हो चुकी है। अब कोई भी प्रधानमंत्री मोदी से नहीं डरता, लिहाजा उन्हें प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। राहुल के अलावा, कांग्रेस के प्रवक्ता और सड़किया कार्यकर्ता तक देश के प्रधानमंत्री को 'झूठा', 'मक्कार', 'फासीवादी' आदि गालियां देते हुए इस्तीफे की की मांग कर रहे हैं। आखिर सवाल है कि संविधान और लोकतंत्र की भाषा में जनादेश किसे कहते हैं? आम चुनाव का जनादेश क्या है और किसके पक्ष में बहुमत की व्याख्या करता है? मोदी सरकार को अल्पमत, असंवैधानिक सरकार संविधान के किस हिस्से के आधार पर कहा जा रहा है? यदि कुछ असंवैधानिक हुआ है, तो कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' अभी तक सर्वोच्च अदालत में क्यों नहीं गए? क्या देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने ऐसी सरकार को शपथ दिला कर संविधान विरोधी काम किया है?
कांग्रेस की कुंठा
दरअसल, यह लगातार सत्ता से दूर रहने के चलते कांग्रेस और राहुल गांधी की कुण्ठा है कि वे ऐसी भाषा बोल रहे हैं। 'रायसीना हिल्स' की सत्ता स्थापित हो चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी ने लगातार तीसरी बार पद की शपथ ली है। उनकी कैबिनेट भी सक्रिय हो चुकी है। विपक्ष अब भी मुगालते में है कि मोदी सरकार 'अल्पसंख्यक' सरकार है। दरअसल 'अल्पमत' सटीक शब्द है। कांग्रेस समेत विपक्षी दलों को सरकार के संदर्भ में भी 'अल्पसंख्यक' याद आते हैं। यह शब्द कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने बार-बार कहा है कि बहुत जल्दी सरकार का पतन हो जाएगा। यदि विपक्ष की इस भविष्यवाणी को मान भी लिया जाए, तो सहज सवाल है कि उसके बाद क्या होगा? वैकल्पिक सरकार किसकी होगी? अथवा कुछ ही महीनों के बाद देश पर मध्यावधि चुनाव का बोझ लाद दिया जाएगा? प्रधानमंत्री कौन होगा? क्या उसके समर्थक सांसदों की संख्या इतनी होगी कि जनादेश कहा जा सके? सरकारें और सदन बहुमत के आंकड़ों के आधार पर तय होते हैं। एनडीए के बजाय अकेली भाजपा के ही आंकड़ों को गिना जाए, तो 240 सांसदों के साथ वह लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी है। भाजपा के बाद कांग्रेस के 98 सांसद हैं, लिहाजा वह दूसरे स्थान की पार्टी है। दोनों के बीच में कोई अन्य दल नहीं है। सदन में बहुमत का जादुई आंकड़ा 272 सांसदों का है। इस लक्ष्य के ज्यादा करीब भाजपा है अथवा कांग्रेस है? परंपरा रही है कि राष्ट्रपति सबसे पहले सदन की सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने को आमंत्रण देते हैं। गठबंधन की गुंजाइश उसके बाद ही आती है।
गठबंधन का अतीत पुराना
यदि इतिहास को खंगाला जाए, तो 1984-89 के बाद चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला है। सभी सरकारें गठबंधन की बनी हैं। वीपी सिंह और चन्द्रशेखर तथा बाद में देवगौड़ा-गुजराल की सरकारों को छोड़ कर शेष सभी गठबंधन सरकारों ने अपने कार्यकाल पूरे किए हैं। प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद 1991 में जो चुनाव हुआ, उसमें कांग्रेस 232 सांसदों वाली सबसे बड़ी पार्टी थी। पीवी नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व में सरकार बनी, लेकिन वह 'अल्पमत' सरकार थी। सांसदों की खरीद-फरोख्त हुई. नेताओं ने पाले बदले और सरकार के बहुमत का जुगाड़ किया जाता रहा। देश में पहली बार प्रधानमंत्री को किसी अदालत ने 'अभियुक्त' करार दिया और एक विशेष अदालत बनाकर केस चलाने का बंदोबस्त किया गया। बहरहाल मामला रफा-दफा हो गया। उसके बाद 1996 के चुनाव में भाजपा 161 सांसदों के साथ लोकसभा में पहली बार, सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। घोर अल्पमत था, लेकिन राष्ट्रपति ने सरकार बनाने का न्योता दिया। अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। चूंकि वह अपने साथ अन्य दलों का गठबंधन बनाने में नाकाम रहे, नतीजतन पद से इस्तीफा देना पड़ा। 1998-99 में भाजपा 182 सांसदों के साथ फिर सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन अल्पमत में थी। एनडीए का गठन उसी दौर में हुआ और इस बार 2004 तक वाजपेयी सरकार बखूबी चली। 'कारगिल युद्ध' भी इसी दौर में हुआ था।
2004 से गठबंधन का नया दौर
2004 के आम चुनाव में बड़ा उलटफेर हुआ। लोकसभा में कांग्रेस के 145 सांसद जीत कर आए और तत्कालीन सत्तारूढ़ भाजपा 138 सांसदों के साथ 'पराजित पार्टी' थी। बहुमत के आंकड़े से दोनों ही पक्ष बहुत दूर थे। वामपंथी दलों के सहयोग से गठबंधन का एक तम्बू तैयार किया गया और उसके नीचे समधर्म दल लामबंद हुए। तब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार बनी और वामपंथी सोमनाथ चटर्जी को स्पीकर बनाया गया। बेहद विरोधाभास थे। ल लगातार हिचकोले खाती रहती थी सरकार, लेकिन गठबंधन जारी रहा। अंततः अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु करार के मुद्दे पर वाममोर्चे के करीब 60 सांसदों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। मनमोहन सरकार अल्पमत में आ गई और लड़खड़ाने लगी। तब मुलायम सिंह यादव की सपा के 39 सांसदों और अन्य का जुगाड़ करना पड़ा। मनमोहन सरकार गिरते-गिरते विश्वास मत जीत गई। 2009 के आम चुनाव में भी कांग्रेस 206 सांसदों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी। भाजपा 116 सांसदों के साथ बहुत पीछे थी। यूपीए-2 की सरकार बनी और डॉ. मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री चुने गए। । ये सभी गठबंधन सरकारों के उदाहरण हैं, जो पांच साल तक चलीं और कार्यकाल पूरे किए। अब सवाल है कि आज मोदी नीत राजग सरकार के पक्ष में चुनाव-पूर्व के गठबंधन का स्पष्ट बहुमत है। सरकार को 293 सांसदों का समर्थन हासिल है। फिर उसे अल्पमत, अस्थिर, असंवैधानिक सरकार क्यों कहा जा रहा है? यह कैसा झूठ है?
कांग्रेस ने गढ़ा झूठा नैरेटिव
चुनाव के दौरान कांग्रेस और विपक्षी दलों ने एक झूठे नेरेटिव को गढ़ा कि यदि मोदी सरकार ही तीसरी बार आई, तो संविधान बदल दिया जाएगा। लोकतंत्र खत्म हो सकता है। यदि संविधान बदल दिया जाएगा, तो आरक्षण भी कहां रहेगा? देश जानता है कि वे परिवर्तन नहीं किए जा सकते, लेकिन फिर भी दलित, ओबीसी, कुछ आदिवासी, गरीब, अनपढ़ लोगों पर इसका असर हुआ। नतीजतन उप्र, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि राज्यों में भाजपा की अपेक्षाकृत पराजय हुई। प्रधानमंत्री मोदी ने मुस्लिम आरक्षण के खिलाफ खूब प्रचार किया, नतीजतन अब मुसलमानों ने तय कर लिया है कि वे किसी भी चुनाव में भाजपा को वोट नहीं देंगे। प्रधानमंत्री मोदी उनके लिए कुछ भी काम करें, परियोजनाएं बनाएं, लेकिन मुसलमान उस पार्टी और उम्मीदवार को बोट देगा, जो मोदी और भाजपा को हरा सके। यह खुलासा मुस्लिम विशेषज्ञों ने ही किया है। उनका कहना है कि गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी मोदी ने इन स्थितियों को झेला है, लेकिन वह कहते रहे हैं कि आप मुझे बोट तो न दो, लेकिन मैं आपका भी मुख्यमंत्री हूं। मुझसे काम तो कराओ। आखिर मुख्यमंत्री से इतनी आबादी नफरत कैसे कर सकती है? इस सांप्रदायिकता ने आम चुनाव में भी भाजपा के जनादेश को प्रभावित किया है, नतीजतन वह 240 सीट पर थम गई है। मुसलमानों का यह भाव 2014 से पहले भी था, लेकिन कुछ फीसदी मुसलमान भाजपा की ओर भी ध्रुवीकृत होने लगे थे। 2024 के चुनाव ने उस पर भी विराम लगा दिया है।
जनादेश पर सवाल उठाना अनुचित
आज जो जनादेश पर सवाल उठा रहे हैं, उन्होंने आरक्षण, नीट पेपर लीक आदि को भी राजनीतिक रंग दे दिया है। देश के करीब 20 राज्यों में करीब 70 भर्ती, प्रवेश परीक्षाओं के पेपर लीक किए गए हैं। इस तरह करीब 2 करोड़ युवाओं के भविष्य अधर में लटक गए हैं। ऐसा भ्रष्टाचार करने वाले कांग्रेस और भाजपा शासित दोनों ही राज्य हैं, लेकिन अपशब्द प्रधानमंत्री मोदी को दिए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री के पुतले जलाए जा रहे हैं। कांग्रेस का छात्र संगठन कई राज्यों में उत्तेजक विरोध-प्रदर्शन कर रहा है। नीट परीक्षा की धांधलियां और विसंगतियां सामने आई हैं। मामला सर्वोच्च अदालत के विचाराधीन है, जिसकी सुनवाई 8 जुलाई को होनी है। राहुल गांधी का बयान है कि पेपर लीक को प्रधानमंत्री न तो रोकना चाहते हैं और न ही रोकने में सक्षम हैं। शिक्षण संस्थानों पर भाजपा-संघ का कब्जा हो गया है। नीट के कुछ छात्र और उनके अभिभावक राहुल गांधी से भी मिले हैं। कांग्रेस नेता ने उन्हें विश्वास दिलाया है कि वह उनकी लड़ाई सड़क से संसद तक लड़ेंगे। बहरहाल विपक्ष की राजनीति अपनी है, लेकिन हरेक मुद्दे पर प्रधानमंत्री को कोसना, सरकार के पतन की बातें करना और मूलतः जनादेश पर सवाल उठाना कौन-सा और कहां का राजनीतिक औचित्य है? देश आश्वस्त रहे कि जनादेश का बहुमती संकेत भाजपा-एनडीए की ओर है तथा गठबंधन ठोस है। गठबंधन हर रोज नहीं टूटा करते। नीट का सवाल है, तो छात्र सर्वोच्च अदालत और केंद्र सरकार पर भी भरोसा करना सीखें। किसी की राजनीति का शिकार न बनें।
सुशील राजेश : (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके अपने विचार हैं।)
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