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संसद में नेता विपक्ष की सीट भी रिक्त रही, परंतु कहते हैं न कि सियासत में चमत्कार की संभावनाएं अन्य क्षेत्रों के Opinion : मुकाबले ज्यादा रहती हैं। किसके सितारे बुलंद हो जाएं और किसके अचानक बुझ जाए इसका पता नहीं चलता क्योंकि इसका सारा दारोमदार और सब कुछ जनता- जर्नादन के मूड और विचारों पर निर्भर रहता है? बीते 2024 के आम चुनाव में हुआ भी कमोबेश कुछ ऐसा ही हुआ है।

Opinion : सोलहवीं और 17वीं लोकसभा में नंबरों के लिहाज से कांग्रेस बीते 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में इतना पिछड़ गई थी कि उन्हें नेता प्रतिपक्ष का पद भी नसीब नहीं हुआ। नेता विपक्ष पद की बात तो दूर, पार्टी का भविष्य और अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया था। कम नंबर संख्या के कारण ही संसद में नेता विपक्ष की सीट भी रिक्त रही, परंतु कहते हैं न कि सियासत में चमत्कार की संभावनाएं अन्य क्षेत्रों के मुकाबले ज्यादा रहती हैं। किसके सितारे बुलंद हो जाएं और किसके अचानक बुझ जाए इसका पता नहीं चलता क्योंकि इसका सारा दारोमदार और सब कुछ जनता- जर्नादन के मूड और विचारों पर निर्भर रहता है? बीते 2024 के आम चुनाव में हुआ भी कमोबेश कुछ ऐसा ही हुआ है। भाजपा 400 पार के नारे के साथ फिर से प्रचंड बहुमत में आने का दावा कर रही थी और पूरी तरह आश्वस्त भी थी, लेकिन जनता ने उसके दावे को अस्वीकार कर दिया।

सभी दलों के लिए एक सीख
भाजपा जैसे गठबंधन की सीटों का 400 का दावा कर रही थी, वैसा हुआ नहीं, जनता ने उसे बहुमत देकर मौका तो अवश्य दिया, लेकिन आधा- अधूरा ? हालांकि, यह भी गौरतलब है कि कांग्रेस ने इस बार उम्मीद से कहीं बढ़कर बेहतरीन प्रदर्शन कर खुद को लड़ाई में बरकरार रखा। कोई भी राजनीतिक दल चाहे वो कांग्रेस हो या भाजपा प्रचंड जीत से बौराने की प्रवृत्ति से सभी को तौबा करना होगा। 2024 का जो जनादेश मिला है वह सभी दलों के लिए एक सीख जैसा है। कांग्रेस को जनता ने नया जीवनदान दिया है, इसलिए कांग्रेस के सितारे एक बार फिर थोड़े से चमके हैं। पिछली बार मात्र 52 सांसद ही जीतकर संसद पहुंचे थे, पर ये आंकड़ा इस बार 99 तक पहुंच गया है। तभी कांग्रेस नेता प्रतिपक्ष के लिए दावेदार हुई और उसे यह पद मिला भी है।
अच्छे नंबरों से पास होने का ही नतीजा है कि नेता विपक्ष के लिए राहुल गांधी के नाम पर ताजपोशी होनी विपक्षी धड़े की ओर से मुकर्रर हुई है, लेकिन जनता का संदेश पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए बराबर है? जो जनता के हित में काम करेगा, उसकी जयकार होगी। वरना, घमंड चकनाचूर करने में देश के मतदाता जरा भी नहीं हिचकेंगे? 2024 के जनादेश ने देश की सियासी तस्वीर पूरी तरह से बदल दी है। चाहे प्रधानमंत्री हों या नेता विपक्ष देश की जनता सभी से काम की उम्मीद करने की करती है। नेता भी अब समझ गए हैं कि केवल लच्छेदार भाषणों और हवा-हवाई दावों से अब काम नहीं चलने वाला? बहरहाल, गठबंधन राजनीति में नेता विपक्ष के पद को पूरे पांच वर्ष तक सुचारू रूप से यथावत रखना भी किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं होगा? पद पर आसीन होने वाले ओहदेदार के लिए भी चुनौतियों की भरमार रहेगी। उन्हें हर घड़ी अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा। नेता विपक्ष का पद राहुल गांधी की सियासी समझ की भी कठिन परीक्षा लेगा, क्योंकि सत्तापक्ष और देश की एक बड़ी आबादी अभी तक उन्हें सियासत का 10वीं पास छात्र ही समझती रही है।

असफलता ज्यादा मायने नहीं रखती
दरअसल समझने के कई ताजा उदाहण भी सामने मुंह खोले जो खड़े हैं। राहुल गांधी कई बार अपने सियासी प्रयोगों में विगत वर्षों में असफल हुए हैं, इसलिए भी लोगों को थोड़ा बहुत संदेह अब भी है? अगर उनके सियासी इतिहास के पन्ने खोलें तो सामने एक विफलता भरी तस्वीर उभरकर सामने आती है कि वह कांग्रेस अध्यक्ष का पद भी अच्छे से निर्वाह नहीं कर सके, जिसके चलते उन्हें पद छोड़ना पड़ा था। अमेठी से चुनाव भी हारे और अपनी अगुआई में पार्टी को चुनाव लड़ाकर भी ज्यादा कुछ नहीं कर सके। कुल मिलाकर उनके हिस्से में सियासी असफलता की भरमार है।
हां पर उल्लेखनीय है कि इन गुजरे वर्षों में अच्छी बात ये रही कि वह लगातार हारने के बावजूद भी हिम्मत नहीं हारे, सियासी मैदान में मजबूती के साथ डटे रहे? उन्होंने खुद को साबित करने के मकसद से ही भारत जोड़ो यात्रा निकाली, जिसमें उन्होंने लोगों का समर्थन हासिल किया। यही कारण है, जनता ने उन पर थोड़ा भरोसा जताया है और कांग्रेस के नेताओं को इतनी संख्या में संसद पहुंचाया कि उन्हें नेता विपक्ष का पद हासिल हो पाया है। खैर, राजनीति में असफलता ज्यादा मायने नहीं रखती, क्योंकि कोई भी हार सकता है, इसलिए ये पुरानी और बेजान बातें ही हैं। सियासत ऐसा अखाड़ा है जहां अच्छे से अच्छा खिलाड़ी चित हुआ है। ताजा उदाहरण मौजूदा लोकसभा चुनाव का परिणाम है जिसमें बड़े से बड़े सूरमा अपने अपने क्षेत्रों में धराशायी हो गए हैं। अपने राजनीतिक करियर में राहुल गांधी पहली मर्तबा कोई संसदीय ओहदा संभाल रहे हैं।

दस फीसदी सांसद होने चाहिए
18वीं लोकसभा में वह नेता विपक्ष की भूमिका में होंगे, जिसे इंडिया गठबंधन के तकरीबन सभी प्रमुख नेताओं ने अपनी स्वीकृति प्रदान की है। राहुल की उम्मीदवारी की स्वीकृति के लिए प्रोटेम स्पीकर भर्तृहरि महताब को कांग्रेस की ओर से बीती 25 जून की देर शाम को अर्जी भी भेज दी गई थी। हालांकि उनके इस पद को लेकर कोई अड़चन या अड़गा इसलिए नहीं लगेगा, क्योंकि संसदीय परंपरा और नियमानुसार नेता विपक्ष के लिए किसी भी दल के पास दस फीसदी सांसद होने चाहिए, जिसमें कांग्रेस सफल है। नेता विपक्ष का पद कांग्रेस को दस साल बाद नसीब हुआ। राहुल नेता विपक्ष बनने वाले गांधी परिवार से तीसरे सदस्य हैं। इससे पहले उनके पिता राजीव गांधी और सांसद माता सोनिया गांधी यह जिम्मेदारी संभाल चुकी हैं। प्रतिपक्ष भारतीय संसद के दोनों सदनों में, प्रत्येक में आधिकारिक विपक्ष का नेतृत्वकर्ता होता है।

प्रक्रिया बहुत दिलचस्प और टकराव भरी होने वाली
नेता विपक्ष का ओहदा अपने आप में बहुत मायने रखता है। प्रधानमंत्री जैसी एक तिहाई शक्तियां उन्हें प्रदान होती हैं। नेता विपक्ष की सुविधाएं केंद्रीय मंत्री से भी कहीं अधिक बढ़ा दी जाती हैं। तनख्वाह भी तीन लाख रुपये से ऊपर होती हैं। इसके अलावा नेता विपक्ष प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक, सीबीआई प्रमुख, सीवीसी जैसे उच्चस्थ पदों की नियुक्ति में सहभागी होता है। प्रधानमंत्री को नियमानुसार नेता विपक्ष की राय लेनी अनिवार्य होती है। इसके अतिरिक्त नेता विपक्ष अभिलेखा समिति का भी प्रमुख रहता है जो सरकार के प्रत्येक निर्णयों और खचर्चों पर निगाह रखता है, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब अपने तीसरे कार्यकाल में जो भी बड़े निर्णय लेंगे या संवैधानिक नियुक्तियां करेंगे उसमें नेता विपक्ष की भूमिका रहने वाले उस नेता की राय लिया करेंगे, जिन्हें चुनाव में उन्होंने ये भी कह दिया था कि 'कौन राहुल' ? इसलिए इस बार को संसदीय प्रक्रिया बहुत दिलचस्प और टकराव भरी होने वाली है। इसमें चुनौती राहुल गांधी के समझ सबसे ज्यादा रहेंगी, क्योंकि जनता उनके दमखम को नेता विपक्ष के तौर पर परखेगी और इतना ही नहीं भविष्य की राजनीति में उनके कद को तय करेगी।
डॉ. रमेश ठाकुर : (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विवार हैं।)

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