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Opinion : भारतीय चिंतन परम्परा में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत कबीर का चिंतन सामाजिक जड़ता, अराजकता, जन्म के आधार पर भेदभाव, साम्प्रदायिकता, अस्पृश्यता और उंच-नीच जैसी अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ शंखनाद है। वे ऐसे आदर्श मानवीय समाज की परिकल्पना करते हैं जहां सामाजिक समरसता पर आधारित मानवीय धर्म की प्रतिष्ठा हो। कहा जाता है कि काशी में लहरतारा तालाब पर नीरू तथा नीमा नामक जुलाह्य दंपति को एक नवजात शिशु अनाथ रूप में प्राप्त हुआ। इन दोनों ने बालक का पालन पोषण किया जो संत कबीर के नाम से विख्यात हुए। निम्न और वंचित समझी जाने वाली जुलाहा जाति में पलकर भी तत्कालीन धर्म के दिग्गज पंडितों, मौलवियों को एक ही साथ फटकार सकने में समर्थ कबीर ने 'मसी' और 'कागद' न छूकर तथा कलम हाथ में न पकड़ कर भी केवल प्रामाणिक अनुभव के बल पर जो कुछ कहा उसे सुनकर बड़ी-बड़ी पोथियों के अध्येता भी चकित रह गए।

मुस्लिम साम्राज्य अपनी जड़ें पूरी तरह जमा चुका था
मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रणेता कबीर ने निराकार ब्रहम के उपासक होकर भी अपने प्रियतम के वियोग में जो चिरंतन व्याकुलता प्रकट की, वह किसी भी सगुणोपासक अथवा प्रेमोपासक की विकलता से कहीं अधिक मार्मिक तीव्र एवं गहन बन गई। संत कबीर का उद्भव जिन युगीन परिस्थितियों में हुआ वे अत्यंत संकीर्ण, विषम और विसंगति पूर्ण थी। उत्तर भारत में मुस्लिम साम्राज्य अपनी जड़ें पूरी तरह जमा चुका था। तुर्क, अफ़गान, खिलजी, तुगलक, सैयद लोदी वंश अपने-अपने काल में इन जड़ों को और गहरा बनाने में कामयाब रहे। हिंदुओं के छोटे-छोटे राज्य भी अब समाप्त हो चुके थे। राजनीतिक दृष्टि से हिंदुओं में अब कोई शक्ति शेष नहीं थी। धार्मिक क्षेत्र में भी भेदभाव का साम्राज्य था। देश के पूर्वी भागों में वज्रयानी सिद्धों के तंत्र-मंत्रों का और पश्चिमी भाग में नाथ संप्रदाय के हठयोग का प्रभाव था। हिंदू धर्म वैष्णव, शैव और शाक्त संप्रदायों में विभक्त था और इन धर्म साधनाओं में परस्पर प्रबल विरोध और संघर्ष की स्थिति थी।

सांप्रदायिक कट्टरता एवं संकीर्णता पनप रही थी
हिंदुओं में मूर्ति पूजा प्रचलित थी। एकेश्वरवादी इस्लाम मूर्ति पूजा विरोधी था। इस्लाम के साथ सत्ता थी उनमें ऊंच, नीच का भेद नहीं था। कुछ वर्गों में सांप्रदायिक कट्टरता एवं संकीर्णता पनप रही थी। समाज में धर्मगत, जातिगत, वर्णगत संप्रदाय गत विषमताएं विकट थीं। फलस्वरूप समाज का निम्न और अछूत वर्ग शोषण, उत्पीड़न, उपेक्षा, अपमान और सामाजिक धार्मिक निर्योग्यताओं का शिकार होने से इनमें आक्रोश, असंतोष और विक्षोभ प्रबल हो रहा था। ऐसी विषम स्थिति में कबीर की क्रांत दर्शिता विभिन्न मतवादों को समन्वित कर 'सूप' का स्वभाव लेकर उभरी जो किसी भी मत और संप्रदाय के 'थोथे' तत्व यही की को उड़ा सकने एवं उसके सार तत्व को ग्रहण कर सकने में समर्थ है। कारण है कि उनकी बानियां लोक मंगल की भावना से प्रेरित लोकमंगल साधना को समर्पित है। कबीर का चिंतन आचरण शुद्धि, लोक कल्याण, सांप्रदायिक सद्भाव तथा दुष्यवृत्ति उन्मूलन पर केंद्रित है। कबीर ने तत्कालीन समाज में फैले कर्मकांडों, पाखंडों, जातिगत भेद-भावों अंधविश्वासों, वाहाचारों और सामंती व्यवस्था की खुलकर आलोचना की।

मुसलमान हिंदुओं की तरह ध्यान और भजन करने लगे
हिंदू हो या मुसलमान पंडित हो या मौलवी सबको समान रूप से फटकार लगाई। कबीर ने मुसलमान की हिंसात्मक प्रवृत्ति की निंदा की। मूर्ति पूजा का खंडन किया। हिंदुओं को मुसलमान बनाने के विरुद्ध बगावत की। माला जपने, जप तप करने, व्रत रखने, रोजे रखने, मस्जिद में बांग लगाने आदि अनेक पाखंडों की आलोचना की। कबीर ने 'जाति-पांति पूछे नहि कोई। हरि को भजै सो हरि को होई' कहकर समाज को एक नई दिशा दी। कबीर की कटु आलोचनाओं से समाज के ठेकेदारों के निहित स्वार्थ जब प्रभावित होने लगे तो इन्होंने बादशाह सिकंदर लोदी से शिकायत की। काजियों ने कहा कि कबीर लोगों को इस्लाम के विरुद्ध नसीहत देते हैं जिससे मुसलमान हिंदुओं की तरह ध्यान और भजन करने लगे हैं। पंडितों ने कहा कि कबीर परंपरा से चले आ रहे धार्मिक और सामाजिक नियमों का खंडन करते हैं। लोगों को ऐसे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं जिसे न हिंदू कहा जा सकता है न मसलमान। बादशाह ने कबीर को ऐसा न करने का आदेश दिया। किंतु कबीर झुके नहीं और निर्भय होकर कहा कि पारस्परिक मतभेदों में समन्वय कर यदि जीवन को सार्थक बनाने योग्य समता मूलक सच्चे सिद्धांतों पर अमल किया जाए तो इसमें क्या दोष है? धर्म के ठेकेदारों को यह मंजूर नहीं था। कबीर के निर्भयता के पीछे उनके अनुभव की प्रामाणिकता, ईमानदारी, सच्चाई और नैतिकता कार्य कर रही थी।
डॉ. अशोक कुमार भार्गव : (लेखक मंटिवेशनल स्पीकर स्वतंत्र लेखक एवं पूर्वआई हैं ये उनके अपने विचार हैं।)