अवधेश कुमार : भारत में गठबंधन सरकारों के काम करने और उसके संचालन का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है। हालांकि गठबंधन सरकार के समय बड़े-बड़े फैसले हुए हैं। गठबंधन में सरकार का नेतृत्व करने वाले दल और नेता पर साथी दल अधिक से अधिक मंत्री बनाने और जिन्हें वो चाहते हैं उन्हें मंत्री के रूप में स्वीकार करने तथा बाद में अपने अनुसार नीतियां बनवाने या बदलवाने के लिए दबाव डालते रहे हैं। अपनी बात न मानने पर समर्थन वापसी तथा सरकार के अस्थिर होने, गिर जाने, कमजोर हो जाने की घटनाएं भी हमने देखी हैं। जानते और चाहते हुए भी कई बार प्रधानमंत्री को नीतियों के स्तर पर वैसे कदम उठाने से स्वयं को रोकना पड़ा या उठाए हुए कदम वापस लेने पड़े जो देश के लिए आवश्यक थे।

'इंडिया' की सरकार क्या ठोस चट्टान वाली होती
डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान ऐसी कई घटनाएं हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान गठबंधन सरकार को लेकर कोई आशंका उठती है तो उसे इस पृष्ठभूमि में तत्काल खारिज भी नहीं किया जा सकता। हालांकि विपक्ष इसे कमजोर व लंगड़ी सरकार बता रहा है, तो उससे पूछा जाना चाहिए कि इसके समानांतर अगर सत्ता में वे आते तो उनकी सरकार कैसी होती? कम से कम इस सरकार में एक इतनी बड़ी पार्टी है जिसके आसपास भी कोई दल नहीं। राहुल गांधी जी के शब्दों में अगर यह क्रिपल्ड सरकार है तो 'इंडिया' की सरकार क्या ठोस चट्टान वाली होती? कहने का तात्पर्य कि हमें आशंकाओं या विपक्ष की अतिवादी आलोचनाओं में जाने की जगह वास्तविकताओं के आधार पर इसके वर्तमान एवं भविष्य का आकलन करना चाहिए। इस प्रश्न का उत्तर तलाशना चाहिए, कि आखिर अब मंत्रिमंडल गठन के बाद सरकार कैसे काम करेगी? सरकार की दिशा और दशा क्या होगी?

विभागों के बंटवारे में खींचतान सामने नहीं आई
खींचतान सामने नहीं आई यह बात सही है कि हमने पिछले 10 वर्षों में ऐसी मोदी सरकार देखी है जिसके पास भाजपा का बहुमत था और ऐसे बड़े से बड़े फैसले हुए, संवैधानिक प्रशासनिक एवं नीतियों के स्तर पर ऐसे आमूल बदलाव के निर्णय हुए जिनकी पहले कल्पना नहीं थी। । स्वयं सरकार व देश को 10 वर्षों के इस अभ्यास से बाहर निकालना कठिन होगा, लेकिन क्या वाकई इससे बाहर निकालने की अभी ही आवश्यकता महसूस होती है या संभावना दिखाई देती है? ध्यान रखिए कि पूर्व की गठबंधन सरकारों की तरह इस सरकार के गठन, मंत्रियों को सरकार में लेने या विभागों के बंटवारे में किसी तरह की खींचतान हमारे सामने नहीं आई। यह अन्य गठबंधन सरकारों से इसे अलग करता है। 72 सदस्यीय मंत्रिमंडल में साथी दलों के 11 मंत्रियों का होना ऐसी संख्या नहीं है जिसे लेकर इस आरोप को स्वीकार कर लिया जाए कि प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह पर साथी दलों का बहुत ज्यादा दबाव था। दूसरे, विभागों के बंटवारे में भी देखें तो जिन्हें जो मिला उसे लेकर कम से कम सार्वजनिक स्तर पर किसी ने भी अपना असंतोष प्रकट नहीं किया है। ज्यादातर का बयान यही है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में देश को विश्व की शीर्ष शक्ति बनाने के लिए काम कर रहे हैं। पूर्व की गठबंधन सरकारों में साथी दलों के नेता इस तरह बेहिचक प्रधानमंत्री का नाम नहीं लेते थे। तीसरे, इस सरकार की सबसे बड़ी विशेषता है, शीर्ष मंत्रालयों में फेरबदल न होना।

देश के लिए नीतिगत निर्णय में कैबिनेट कमेटी
आप देख लीजिए प्रधानमंत्री के बाद गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, वित्त मंत्रालय, विदेश मंत्रालय यहां तक कि शिक्षा मंत्रालय, सड़क परिवहन मंत्रालय आदि उन्हीं वरिष्ठ मंत्रियों के हाथ में हैं तो सरकार के मुख्य चेहरे के रूप में अभी भी प्रधानमंत्री के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, गृह मंत्री अमित शाह, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, विदेश मंत्री एस जयशंकर, सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी, शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव, वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल, पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव आदि ही दिखाई देंगे। देश के लिए नीतिगत निर्णय में कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी अफेयर्स सुरक्षा मामलों के मंत्रिमंडलीय समिति की शीर्ष भूमिका होती है। इनमें प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, गृह मंत्री वित्त मंत्री होते हैं। इस दृष्टि से भी देखें तो सरकार के चरित्र में बदलाव नहीं हुआ है। मजबूर नहीं सरकार द्वारा सरकार गठन के पहले मीडिया में साथी दलों द्वारा अलग अलग मंत्रालयों के मांग की अटकलें आ रही थी, जिनमें बिहार रेल मंत्रालय की मांग शामिल थी। हालांकि इसकी कहीं से पुष्टि नहीं हुई और जदयू के मंत्रियों को जो विभाग मिला उसका प्रभार उन्होंने संभाल लिया। कहने का यह अर्थ नहीं कि साथी दलों की अपनी राजनीतिक आवश्यकताओं और महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप चाहत नहीं होगी और उन्होंने प्रधानमंत्री या अन्य वरिष्ठ भाजपा नेताओं के समक्ष अपनी बात रखी ही नहीं होगी। आगे आगे भी वह अपनी बात नहीं रखेंगे ऐसा भी नहीं है।

मनमोहन सरकार को ऐसा ही करना पड़ा
मूल बात है जिद पर अड़ना व सरकार को मजबूर करके अपने अनुकूल निर्णय बदलाव लेना। उदाहरण के लिए यूपीए सरकार में तृणमूल कांग्रेस की ओर से रेल मंत्री बने दिनेश त्रिवेदी ने अपने बजट में यात्रियों का जैसे ह ही किराया बढ़ाया ममता बनर्जी बिफर गई। उन्होंने न केवल बजट में परिवर्तन करने बल्कि रेल मंत्रालय से हटाने का फरमान सुनाया और मनमोहन सरकार को ऐसा ही करना पड़ा। कम से कम वह स्थिति इस समय सरकार में नहीं दिख रही है। इसी तरह किसी सरकार के नेतृत्वकर्ता की अपनी आभा, देश और काम के प्रति समर्पण तथा उसका दृष्टिकोण व लक्ष्य सबसे ज्यादा प्रभावकारी होता है। इस मायने में प्रधानमंत्री मोदी का नेतृत्व अन्य कई प्रधानमंत्रियों से अलग है। उन्होंने देश के विकास के बारे में व्यापक विजन रखा है, जिसमें अगले सवा सौ दिन, 5 साल और 2047 तक को कार्ययोजना शामिल है। साथी दलों में जद-यू और तेलुगू देशम पहले भी केंद्र और प्रदेश में साथ काम कर चुकी हैं। उन्हें पता है कि मोदी देश के लिए व्यापक विजन रखते हैं उसमें सभी राज्यों के विकास की उनकी कल्पना है। तो उन्हें नीतियों को लेकर कोई संभ्रम नहीं होगा। आने वाले वक्त में थोड़े बहुत राजनीतिक असहमति या मतभेद उभर सकते हैं लेकिन अभी तक ऐसा नहीं दिखा है कि किसी तरह के दबाव में सरकार के कदम रुकेंगे।

समान नागरिक संहिता में कोई समस्या नहीं है
विपक्ष की आशंका निराधार आमतौर पर गठबंधन सरकारों में वह मांग होती है कि कॉमन मिनिमम प्रोग्राम यानी समान न्यूनतम कार्यक्रम बनाकर आगे काम किया जाए। न राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेताओं ने चुनाव में जाने के पहले ऐसी मांग की और न सरकार गठन के पूर्व। भाजपा को बहुमत न मिलने के बाद उनके पास इसका अवसर था और वैसा कर सकते थे। अगर उन्होंने मांग नहीं की तो इसका अर्थ यही है कि पूर्व सरकार की ओर से जो एजेंडा रखा गया है उससे वह सहमत हैं। यह भी ध्यान रखिए कि भाजपा ने पिछले 10 सालों में अपने हिंदुत्व व राष्ट्रवाद संबंधी एजेंडा पर खुलकर काम किया है और शेष कार्यों के लिए उन्होंने घोषणाएं भी की है। उदाहरण के लिए समान नागरिक संहिता लाना उनके घोषणा पत्र में और स्वयं प्रधानमंत्री एवं गृह मंत्री अमित शाह के भाषणों में शामिल था। विपक्ष की सोच है कि ऐसी मांगों पर ही सरकार में दरार आ जाएगी और यह गिर सकती है। इसके विपरीत इस समय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह बयान चल रहा है कि समान नागरिक संहिता में कोई समस्या नहीं है, लेकिन उसे पूरी तरह विचार विमर्श करने के बाद लाया जाना चाहिए। यह आवश्यक नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी आरंभ में ही समान नागरिक संहिता के लिए जोर डाल दें। निश्चित रूप से समय-समय पर विपक्ष संसद में एवं बाहर यह प्रश्न उठाएगा कि वह समान नागरिक संहिता क्यों नहीं ला रहे जैसे वे पहले धारा 370, राम जन्मभूमि आदि के बारे में इस सरकार को या पूर्व में वाजपेयी सरकार को घेरते थे। विपक्ष ने आशंका यह भी उठाई है कि नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक कभी भी गठबंधन सरकार चलाने का अनुभव नहीं है और जो उनका स्वभाव है उसमें इसे बहुत आगे खींचना संभव नहीं होगा। प्रधानमंत्री ने सरकार गठन के पूर्व राजग की बैठक के भाषण में 15 बार एनडीए तथा आठ बार गठबंधन शब्द का प्रयोग किया। यह भी किसी बात का संकेत है।

मोदी की राजग सरकार बेहतर काम करेगी
काफी हद तक अलग गठबंधन सरकार भाजपा व्यापक विचारधारा और एजेंडा वाली पार्टी है, जो एक बड़े संगठन परिवार के साथ संबद्ध है। इसमें यदि पूरे संगठन परिवार और स्वयं भाजपा के अंदर भारी संख्या में प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं तथा बाहर समर्थकों को लगा कि मोदी सरकार-3 पिछले दो सरकारों से अलग निश्चित दिशा की पटरी से थोड़ी उतरी है या दूसरी दिशा में जा रही है तो उनके अंदर निराशा होगी और इसलिए मोदी की राजग सरकार बेहतर काम करेगी। इस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सरकार के रणनीतिकारों को दोनों के बीच संतुलन बनाकर चलने की चुनौती है। इस समय भविष्य की तस्वीर के बारे में निश्चिंतता के साथ पूरी तरह भविष्य की तस्वीर बनाने की बजाय हमें थोड़ी प्रतीक्षा करनी चाहिए। हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि पूर्व की गठबंधन सरकारों से वर्तमान मोदी गठबंधन सरकार अपने चरित्र, आंतरिक संरचना, वातावरण व सामूहिक मनोविज्ञान आदि के स्तर पर काफी हद तक अलग है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है. यह उनके अपने विचार हैं।)