Opinion: कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में महिला डॉक्टर की दुष्कर्म के बाद हत्या पर राष्ट्रपति की पीड़ा ध्यान देने योग्य है। उन्होंने बहुत दर्द भरे शब्दों में कहा कि मैं निराश और भयभीत हूँ। नौ अगस्त को कोलकाता में घटित इस दर्दनाक घटना के बाद उनका यह पहला बयान है। उन्होंने स्पष्ट लिखा कि कोई भी सभ्य समाज बेटियों और बहनों पर इस तरह के अत्याचार की अनुमति नहीं देता।
दुष्कर्म और हत्या की चर्चा
देश के साथ-साथ उन्होंने भी आक्रोशित होते हुए कहा कि जिस समय छात्र, डॉक्टर और नागरिक कोलकाता में प्रदर्शन कर रहे थे, ऐसे समय में भी ऐसे अपराधी अन्यत्र शिकार की तलाश में घात लगाए हुए थे। उन्होंने दिसम्बर 2012 में दिल्ली में निर्भया के साथ हुए दुष्कर्म और हत्या की चर्चा करते हुए कहा कि कुछ बच्चों ने मुझसे बड़ी मासूमियत से इस घटना के बारे में पूछा, मगर क्या उन्हें ऐसी घटना आगे घटित न होने का भरोसा दिया जा सकता है। निश्चित ही इस समय महिला उत्पीड़न के मुद्दे पर समाज को ईमानदार और निष्पक्ष रहकर आत्म मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
राष्ट्रपति महोदया के बयान के आलोक में यदि महिला उत्पीड़न से जुड़ी घटनाओं का मूल्यांकन करें तो ज्ञात होता है कि अभी हाल ही में कोलकाता में डॉक्टर से किए गए यौन व्यभिचार से देशभर में फैले आक्रोश और प्रदर्शनों के बीच विधायिका की एक बदरंग तस्वीर भी सामने आई है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स, एडीआर की ओर से जारी हालिया रिपोर्ट में 16 वर्तमान सांसदों और 135 विधायकों पर महिलाओं के विरुद्ध अपराध में मुकदमें दर्ज हैं। इतना ही नहीं, बल्कि दो सांसदों और 14 विधायकों पर दुष्कर्म के मामले चल रहे हैं। खास बात यह है कि बंगाल के सबसे अधिक जनप्रतिनिधि ऐसे मामलों का सामना कर रहे हैं। गौरतलब है कि राष्ट्रपति महोदया की महिला उत्पीड़न को लेकर यह पीड़ा अनायास ही नहीं है।
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अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट भी बताती है कि यहां 16 मिनट में एक यौन दुष्कर्म घटना होती है। साथ ही प्रत्येक घण्टे महिलाओं के विरुद्ध 50 अपराध घटित होते हैं। इनमें 10 फीसदी से भी अधिक यौन दुष्कर्म की घटनाएं 18 साल से कम उम्र के नाबालिगों के साथ घटित होती हैं। कहना न होगा कि आज देश व प्रदेशों के मुख्तलिफ हिस्सों में मासूम लड़कियों व महिलाओं के साथ घटने वाली यौन उत्पीड़न की वारदातों ने देश व समाज को झकझोर कर रख दिया है। लगता है कि निर्भया यौन उत्पीड़न की घटना के बाद समाज की सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। देश में ऐसी घटनाओं को रोकने के सभी उपाय भी निष्फल हो रहे हैं। यौन उत्पीड़न की अधिकांश घटनाएं आज कानूनविदों व समाजशाखियों को नए सिरे से सोचने को मजबूर कर रही हैं।
इस संदर्भ से जुड़े कुछ और आंकड़े खुलासा करते हैं कि भारत में यौन उत्पीड़न के मामले में लगभग 93 फीसदी दोषी पीड़िता के ही परिचित होते हैं। इन आंकड़ों की तकलीफदेय तस्वीर यह है कि 31 फीसदी यौन हिंसा व छेड़खानी में पीड़ित
लड़कियों की उम्र 14 साल से भी कम रही। दरअसल, मामला चाहे महिला छेड़छाड़ का हो अथवा यौन हिंसा का, इन सभी घटनाओं को अब किसी एक सामाजिक पैमाने से नहीं मापा जा सकता। आज इसके गहन अध्ययन के लिए एक बहुआयामी वस्तुनिष्ठ उपागम की जरूरत महसूस की जा रही है। लेकिन फिर भी लगातार बढ़ती यौन हिंसाओं की इन घटनाओं पर कम से कम एक हालिया समाज-मनोवैज्ञानिक दृष्टिपात जरूरी हो जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि सूचना तकनीक ने आज की दुनिया में एक खलबली मचा दी है।
सोशल मीडिया के रूप में संवाद
गांवों से लेकर महानगरों तक मोबाइल व इंटरनेट ने बच्चों, युवाओं व महिलाओं के बीच अपना पूरा दखल बना लिया है। असल स्थिति यह है कि आप सड़क के किनारे तक से दस-बीस रुपयों का इंटरनेट सिम खरीदकर पूरी दुनिया की सैर कर सकते हैं। यहां तक कि पोर्न साहित्य तक भी इन्हीं सिम में कैद है। संयुक्त परिवार के टूटने और छोटे परिवारों में मां- बाप और बच्चों के बीच बढ़ती दूरी व संवादहीनता ने टीनेजर्स के बीच सोशल मीडिया के रूप में संवाद का एक नया नेटीजन पीयर ग्रुप पैदा कर दिया है। ध्यान रहे कि यह नेटीजन समूह ही उनके हर तरीके के सुख-दुख में पूरी तरह हमसाज है। मां-बाप को इस सच्चाई को समझने की फुर्सत ही नहीं है कि पोर्न उनके बच्चों के बेडरूम तक पहुंच गया है।
सच तो यह है कि पोर्न का प्रभाव ही यौन संबंधों के ढांचे को नई यौन प्रयोगशाला में रूपान्तरित कर रहा है। बढ़ते यौन आवेग के पीछे कहीं न कहीं इस मुद्दे को भी समाहित करना समीचीन होगा। दूसरी ओर, इस संदर्भ में यह भी देखने में आ रहा है कि आज सबसे अधिक हिंसा उन लड़के-लड़कियों पर हो रही है जो या तो वे घर से बाहर रह रहे हैं अथवा वे समाज के कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्ग से आते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि निर्भया काण्ड के पश्चात बलात्कार के दोषियों के प्रति कानून की सख्ती हुई है। मगर इसके बाद भी बालिग के साथ कहीं-कहीं नाबालिग अपराधी तक अब बलात्कार के बाद पीड़िता की हत्या करके सबूत मिटाने पर आमादा हैं। सबसे दुखद तो यह है कि यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में राजनीति और कानून से जुड़े पुरोधाओं के गैरजिम्मेदाराना बयानों ने भी इन व्यभिचारियों के हौसले बुलंद किए हुए हैं।
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वैमनस्य और दबंगई राजनीति से तैयार
कड़वा सच यह है कि यौन दुष्कृत्यों से जुड़ी इन सभी घटनाओं के पीछे छिपा वह सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण भी है जिसे हमने अपनी खुली बाजारु अर्थव्यवस्था तथा जाति व धर्म पर आधारित सामाजिक वैमनस्य और दबंगई राजनीति से तैयार किया है। विचारहीन व्यवहार से जुड़ी इस संक्रमित संस्कृति में आज सामाजिक संवेदना, दूसरे के प्रति सम्मान, करुणा व सहानुभूति जैसे मूल्यों के साथ में बहन व बेटी जैसे रिश्तों के सम्मान की कोई जगह बची नहीं है। ऐसे में विषैली मानसिकता का प्रस्फुटित होना स्वभाविक ही है। इसलिए, हमें समय रहते उन सामाजिक व मनोवैज्ञानिक दशाओं का विश्लेषण भी करना चाहिए जो लोगों को बलात्कारी बनाती हैं।
पुरूष देह से जुड़ी उन सामाजिक मान्यताओं और पुलिस कानून की कमजोर व्यवस्थाओं का भी मूल्यांकन करना पड़ेगा, जो आज खुद बलात्कारी की रक्षक बनकर न्याय का गला घोंट रही हैं। साथ ही एक स्वस्थ व खी सशक्तता से जुड़े समाज की पुनः स्थापना भी करनी होगी, तभी महिला की देह को सुरक्षा कवच मिल पाएगा। कहना न होगा कि देश में प्रत्येक नारी के सम्मान के साथ-साथ करुणा व दया भाव से जुड़े मूल्यों को आत्मसात करके और व्यवहार में उनका प्रदर्शन करके ऐसी यौन दुष्प्रवृतियों पर काफी हद तक रोक लगाई जा सकती है। इसलिए समय रहते हमें राष्ट्रपति महोदया की सामयिक पीड़ा को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।
डा. विशेष गुप्ता: (लेखक निवर्तमान अध्यक्ष उत्तर प्रदेश बाल अधिकार संरक्षण आयोग हैं,ये उनके अपने विचार हैं।)