Opinion: क्या प्रधानमंत्री मोदी अपने तीसरे कार्यकाल में दबाव में हैं? यह आकलन विपक्षी दलों का है। विपक्ष ने सरकार की उम्र 6 माह आंकी है, लेकिन मेरा आकलन है कि सरकार पर कोई भी संकट नहीं है। चूंकि कुछ मामलों में प्रधानमंत्री को अपने निर्णय से पीछे हटना पड़ा है या चक्क बोर्ड संशोधन बिल को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को सौंपना पड़ा है अभवा मीडिया से जुड़े एक बिल को भी फिलहाल ठंडे बस्ते के हवाले करना पड़ा है, लिहाजा माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी दबाव में हैं।
कौशल जनगणना' कराने का फैसला
दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री के साथ विमर्श के बाद आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री एवं तेलुगूदेशम पार्टी के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू ने अपने राज्य में 'जाति जनगणना' के बजाय 'कौशल जनगणना' कराने का फैसला लिया है। लिहाजा टीडीपी ने विपक्ष के एक 'राजनीतिक हथियार' को कुंद कर दिया है। प्रधानमंत्री ने मंत्रियों को निर्देश दिया है कि जिस रफ्तार से हमने 10 साल में काम किया है, वया आगामी पांच साल भी बरकरार रहनी चाहिए। कैबिनेट ने 10 राज्यों में 12 औद्योगिक स्मार्ट सिटी बनाने की परियोजना को स्वीकृति दे दी है। इसे ग्रेटर नोएडा और घोलेरा की तर्ज पर विकसित किया जाएगा।
इससे 40 लाख प्रत्यक्ष-परोक्ष नौकरियां पैदा होंगी और 1.5 लाख करोड़ रुपए का निवेश मिलेगा। 2030 तक 2 लाख करोड़ रुपए के निर्यात का लक्ष्य रखा गया है। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री ने महाराष्ट्र में 76,000 करोड़ रुपए की बाधवन बंदरगाह योजना को आधार-शिला रखी है। भारत सरकार ने रेलवे कॉरिडोर के विस्तार की घोषणा भी की है। जाहिर है कि रोजगार के नए अवसर बनेंगे। इस तरह लगातार काम करने, योजनाएं बनाने, रोजगार के अवसर पैदा करने के मद्देनजर सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री दबाव में यह सब कर रहे हैं?
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बहुमत भाजपा-एनडीए के पक्ष में
आम चुनाव का जनादेश जून, 2024 में सार्वजनिक किया गया था। जनादेश आधा-अधूरा था, क्योंकि किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था, लेकिन 240 सीट जीत कर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी रही और उसके एनडीए गठबंधन के पक्ष में 293 सीटें आई। कांग्रेस 99 सीट पर ही अटक कर रह गई और 'इंडिया' गठबंधन 234 सीट ही हासिल कर सका। आईने और सत्य की तरह स्पष्ट है कि निर्णायक बहुमत भाजपा-एनडीए के पक्ष में रहा, तो फिर विपक्ष किस मुगालते में है कि वह ज्यादा ताकतवर है और उसकी वैकल्पिक सरकार चन सकती है।
बेशक आंध्र की टीडीपी के 16 सांसद और बिहार के जद-यू के 12 सांसद महत्वपूर्ण स्तंभ हैं, जिन पर सरकार स्थित है। गौरतलब यह है कि आंध्र में औसतन हर परिवार पर 7 लाख रुपए और प्रति व्यक्ति 2 लाख रुपए का कर्ज है। राज्य को नई राजधानी अमरावती में बनाने और अन्य परियोजनाओं के लिए कमोवेश 3-4 लाख करोड़ रुपए की जरूरत है। आर्थिक विकास के मद्देनजर बिहार देश में सबसे पिछड़ा और विपन्न राज्य है। दोनों राज्यों को मोदी सरकार ने करीब 75,000 करोड़ रुपए की शुरुआती मदद दी है।
कांग्रेस की राज्य सरकारें 'दिवालिया'
क्या कांग्रेस और विपक्ष दोनों राज्यों को अपेक्षित आर्थिक मदद कर सकते हैं? कांग्रेस की राज्य सरकारें खुद ही 'दिवालिया स्थिति में हैं। तो टीडीपी और जद-यू एनडीए से अलग क्यों होंगे? यदि एनडीए में ऐसा सहयोग बना रहता है, तो मोदी सरकार पांच साल का यह कार्यकाल भी आराम से पूरा कर सकती है। बिहार में भाजपा, जद-यू लोजपा (रामविलास) और हम आदि पार्टियां एनडीए के बैनर तले ही 2025 का विधानसभा चुनाव लड़ेंगी, यह तय हो चुका है। टीडीपी सांसदों के साथ प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष की 2-3 बैठकें हो चुकी हैं और समर्थन में कोई दरारें भी नहीं हैं, तो फिर प्रधानमंत्री मोदी दबाव में क्यों होगे?
आंध्र में 'कौशल जनगणना' के पायलट प्रोजेक्ट में करीब 33 लाख छोटी बड़ी, मध्यम कंपनियों में सर्वेक्षण किए जाएंगे कि आखिर कंपनियां किस शिक्षा और हुनर के कामगार को नौकरी दे सकती है? आंध्र में करीब 3.5 करोड़ लोग 15-59 आयु वर्ग के हैं। उनकी शिक्षा और हुनर क्या हैं, इसका भी सर्वेक्षण कराया जाएगा। दरअसल, भारत सरकार की प्राथमिकता है कि कौशल विकास को इतना बड़ाना जाए कि विश्व में भारत का स्थान संवर सके। अभी भारत 109 देशों की सूची में 87वें स्थान पर है, जबकि चीन 36वें स्थान पर है। ये दो देश ही दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाले देश हैं। माना जा रहा है कि जाति के आधार पर नौकरी लेने के बजाय कौशल के आधार पर रोजगार मिले, मोदी सरकार और आंध सरकार का यह नजरिया है। अलबत्ता वे आरक्षण के बिल्कूल भी खिलाफ नहीं है।
इस प्रोजेक्ट से रोजगार और नौकरियों के अवसर स्पष्ट और व्यापक होंगे। यदि यह प्रोजेक्ट सफल रहा, तो फिर भाजपा शासित राज्यों में भी ऐसे ही सर्वेक्षण कराए जाएंगे। घेशक मोदी सरकार के सामने बेरोजगारी सबसे बड़ी और चिन्ताजनक चुनौती है। देश में सबसे अधिक बेरोजगारी आंध्र और हरियाणा में है। आईएमएफ की उप प्रबंध निदेशक गौता गोपीनाथ ने हाल ही में कहा है कि 2030 तक भारत को कमोवेश 6 करोड़ अतिरिक्त रोजगार पैदा करने ही होंगे। कुछ अर्थशाखी तो यह संख्या 10 करोड़ तक आंक रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह चिंतित सरोकार तो हो सकता है, लेकिन इस संदर्भ में प्रधानमंत्री को दबाव में माना आए, यह पूर्वाग्रही आकलन है। दरअसल, आम चुनाव में कांग्रेस, सपा, राजद आदि ने एक 'छया नेरेटिव' गढ़ा था कि यदि भाजपा को 400 सीट मिल गई, तो वे संविधान बदल देंगे।
संविधान नाहीं रहा, तो आरक्षण भी खत्म हो जाएगा। आरक्षण नहीं रहा, तो दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों की नौकरियों का क्या होगा? वह नरेंटिव सफल रहा और भाजपा को 272 खोट वाला बहुमट भी नहीं मिल पाया। उसी को आधार बनाकर ये विपक्षी दल आजकल भी राजनीति कर रहे हैं और जातिगत जनगणना का अर्नगल अलाप कर रहे हैं। अक्टूबर से नवंबर तक हरियाणा, जम्मू-कश्नोर , झारखंड, महाराष्ट्र आदि राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। उप्र में भी 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं।
'जाति जनगणना' बेमानी, विपक्ष मुगालते में
लिहाजा राहुल गांधी व अखिलेश यादव का सोचना है कि 'जाति जनगणना' के मुद्दे पर हिन्दुओं को चांटा जा सकता है और वे जातियां मोदी-भाजपा को चुनाव हरा सकती हैं। दलित, आदिवासी, ओचीसी का प्रलाप ऐसा रहा कि राहुल गांधी ने हास्यास्पद बयान दिया कि मिस इंडिया, बॉलीवुड, ओलंपिक खिलाड़ी और क्रिकेटर, उद्योगपति, मीडिया और न्यायपालिका अवदि में इन जातियों के लिए कोई आरक्षण ही नाहीं है।
लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी आजकल बयान दे रहे हैं कि मोदी जी 'जाति जनगणना' करा दीजिए। नहीं तो ऐसी स्थिति आने वाली है कि आप नये प्रधानमंत्री को यह काम करते देखेंगे। दरअसल विपक्ष मुगालते में है कि इससे प्रधानमंत्री मोदी दबाव में आ जाएंगे और 'जाति जनगणना' करवा सकते हैं। मैं इसे बेमानी मानता हूं, क्योंकि डॉ. मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के दौरान 'जातीय जनगणना' करवाई गई थी, लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया गया। इस सवाल का जवाब कांग्रेस और उसके सहयोगी दल ही दे सकते हैं।
प्रभावशाली नेता रणनीति पर कर रहे मंथन
उस जनगणना के आंकड़े भारत सरकार में है, जाहिर है कि प्रधानमंत्री मोदी ने वे देखे होंगे। प्रधानमंत्री यह काम तय करा सकते हैं, जब वह नौकरशाही में 'सीधी भर्तियां' करने की माकूल स्थिति में होंगे। सरकार में विशेषज्ञों को शीर्ष स्थानों पर जरूर रखा जाएगा, लेकिन उनमें आरक्षण की गुंजाइश के साथ ऐसा किया जाएगा। मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री और भाजपा के अन्य बड़े नेता इस रणनीति पर मंथन कर रहे हैं कि अधिकतर हिन्दू, जिनमें दलित, आदिवासी, ओचीसी भी शामिल हों, भाजपा के पक्ष में मतदान करें।
आरक्षण पर पीएम ऐसा जवाब देने की फिराक में हैं कि 'जाति जनगणना' प्रासंगिक और प्रभावशाली मुद्दा ही न रहे। एक और मुख देश के सामने आया है, जिससे सक्ति होता है कि प्रधानमंत्री मोदी दबाव में नहीं हैं। वह है-राष्ट्रपर्यंत द्रौपदी मुर्मू का तीन पन्नों का पत्र, जो उन्होंने पीटीआई के संपादकों को लिखा था। बेटियों और महिलाओं के खिलाफ राष्ट्रपति ने विस्फोटक, मार्मिक और अभूतपूर्व प्रतिक्रिया दी है। भारत में राष्ट्रपति सार्वजनिक बयान नहीं देते। वह केंद्रीय कैबिनेट की सलाह से ही काम करते हैं। यह पत्र जारी करने से पूर्व प्रधानमंत्री दफ्तर भेजा गया होगा। फिर कैबिनेट की संस्तुति के चाद ही पत्र देश के सामने आया होगा। यह भी संभव है कि यह पत्र सरकार के स्तर पर लिखवाया गया हो और फिर 'राष्ट्रपति भवन' ने उसे जारी किया हो।
राष्ट्रपति ने यहां तक कहा था कि बस, अब बहुत हो गया।' राष्ट्रपति छोटी बच्चियों के साथ दरिंदगी से बहुत आहत लगीं। उन्होंने समाज के सामने एक मुश्किल सवाल रख दिया कि क्या कोई सभ्य समाज ऐसे बर्बर, जघन्य अपराधों को बर्दाश्त कर सकता है? मेरा मानना है कि यदि प्रधानमंत्री मोदी दवाव महसुस कर रहे होते और अपनी सरकार को कमजोर, अस्थिर स्थिति में पाते, तो राष्ट्रपति का ऐसा पत्र कभी भी जारी न किया जाता, लेकिन दुष्कर्म और हत्याओं की नृशंसताओं पर खुद प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के जरिए, यह संदेश देश को देना चाहते थे। प्रधानमंत्री फांसी तक की बात कह चुके हैं। बहरहाल, कई मुद्दे हैं, जिन्हें सोशल मीडिया पर कुकुरमुत्तों की तरह उग रही विचारकों की जमात ने उठाए हैं और वे प्रधानमंत्री मोदी को दबाव में पाते हैं, लेकिन मैं देश की स्थिति और उसके निरंतर आर्थिक विकास से संतुष्ट हूं।
सुशील राजेश: (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं, यह उनके अपने विचार हैं।)
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