Opinion: स्वाधीनता दिवस पर लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देश के लिए सेक्युलर सिविल कोड की जरूरत पर बल दिया जाना उचित ही है। आखिर देश में बांटने वाला ऐसा कानून क्यों होना चाहिए जो देश की एकता, अखंडता और भाईचारे के अनुकूल न हो। प्रधानमंत्री ने उचित ही कहा कि जो कानून धर्म के आधार पर बांटते हैं, ऊंच-नीच का कारण बन जाते हैं। ऐसे कानूनों का आधुनिक समाज में कोई स्थान नहीं है। देश की मांग है कि देश में सेक्युलर सिविल कानून हो।
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के स्वरूप को रेखांकित नहीं करते
गौर करें तो पहली बार नहीं है जब प्रधानमंत्री ने देश के लिए समान नागरिक संहिता पर बल दिया है। उन्होंने मध्यप्रदेश की एक रैली में कहा था कि परिवार के एक सदस्य के लिए एक नियम और दूसरे के लिए दूसरा नियम हो ऐसे में घर नहीं चल पाएगा। मौजूदा समय में देश में विवाह, तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार और संपत्ति के मामले में हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध के पर्सनल मामले हिंदू विवाह अधिनियम से चलते हैं। जबकि मुसलमानों, ईसाइयों और पारसियों के लिए अलग पर्सनल लॉ हैं। एक सेक्युलर देश में इस तरह के कानून कहीं से भी एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के स्वरूप को रेखांकित नहीं करते हैं। ऐसे में अगर प्रधानमंत्री सेक्युलर सिविल कोड की जरूरत बताते हैं तो यह जनभावना के अनुकूल ही है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि तुष्टिकरण में जुटे तमाम सियासी दलों को यह भावना रास नहीं आ रही है। वे किस्म-किस्म के कुतर्कों के जरिए देश में सेक्युलर सिविल कोड का विरोध कर रहे हैं।
संविधान के प्रावधानों को लागू होने देना भी नहीं चाहते
मजेदार बात यह कि विपक्ष एक ओर संविधान की रक्षा की बात करते हैं, संविधान को हाथ में लेकर चलते हैं, चावा साहब आंबेडकर की दुहाई देते हैं और दूसरी ओर संविधान के प्रावधानों को लागू होने देना भी नहीं चाहते हैं, जबकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि समान नागरिक संहिता एक पंथनिरपेक्ष विधि है जो सभी धर्मों के लोगों के लिए समान रूप से लागू होता है। वे यह भी जानते हैं कि 23 नवंबर, 1948 को इस मसले पर संविधान सभा में बहस हुई और भारत के पहले कानून मंत्री और संविधान निर्माता बाबा साहब आंबेडकर ने बहस करते हुए समान नागरिक संहिता लागू करने की वकालत की। डा. आंबेडकर ने तर्क दिया कि समान नागरिक संहिता की अनुपस्थिति सामाजिक सुधारों में सरकार के प्रयासों में बाधा उत्पन करेगी।
डा. आंबेडकर के अलावा के एम मुंशी और अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर जैसे अनेक संविधानविद् भी चाहते थे कि देश में समान नागरिक संहिता लागू हो। के एम मुंशी ने कहा कि 'पूरे देश के लिए एक समान संहिता क्यों न हो।' अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ने समान नागरिक संहिता पर बल देते हुए कहा कि 'जब अंग्रेजों ने इस देश पर अधिकार किया और कहा कि वे संपूर्ण देश के लिए एक ही आपराधिक कानून बना रहे हैं तब उसका विरोध क्यों नहीं किया गया।' भारत का संविधान राज्य के नीति निर्देशक तत्व में सभी नागरिकों को समान नागरिकता कानून सुनिश्चित करने के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करता है। संविधान का अनुच्छेद 44 इस धारणा पर आधारित है कि सभ्य समाज में धर्म व वैयक्तिक विधि में कोई संबंध नहीं होता है।
धार्मिक मान्यताओं का परित्याग
अतः समान नागरिक संहिता बनाने से किसी समुदाय के सदस्यों के अनुच्छेद 25, 26 व 27 के अधीन प्रतिभूत मूल अधिकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। विवाह, उत्तराधिकार और इस प्रकार की सामाजिक प्रकृति की बातें धार्मिक स्वतंत्रता से बाहर हैं और उन्हें विधि बनाकर विनियमित किया जा सकता है। विवाह एवं उत्तराधिकार संबंधी हिंदू विधि भी इस्लाम व ईसाइयों की भांति ही धर्मसम्मत है। फिर जब हिंदू समाज संविधान की भावना का सम्मान करते हुए एवं देश की एकता व अखंडता को बनाए रखने के लिए अपनी धार्मिक मान्यताओं का परित्याग कर दिया और उनका संहिताबद्ध किया गया तो अन्य धर्मावलंबियों एवं मतावलबियों को इस तरह के आचरण का पालन क्यों नहीं करना चाहिए।
1956 में हिंदू विवाह कानून, उत्तराधिकार कानून, नाबालिग व अभिभावक कानून और गोद लेने व गुजारा भत्ता कानून लागू कर दिया गया लेकिन अल्पसंख्यक समुदायों को इस परिधि में नहीं लाया गया। समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले लोगों को विचार करना चाहिए कि जब दुनिया के सभी आधुनिक देश जिनमें मुस्लिम देश भी शामिल हैं और वहां समान नागरिक संहिता लागू है तो फिर भारत में भी ऐसा कानून क्यों नहीं बनना चाहिए।
अदालतें भी अपनी सहमति की मुहर लगा चुकी
सीरिया, ट्यूनिशिया, मोरक्को, पाकिस्तान, ईरान, बांग्लादेश तथा मध्य एशियाई गणतंत्र समेत अन्य कई और मुस्लिम देशों में समान नागरिक संहिता को लागू किया गया है। मजेदार बात यह कि समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए देश की अदालतें भी अपनी सहमति की मुहर लगा चुकी हैं। सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ कह चुकी है कि संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 44 के जरिए यह उम्मीद जतायी थी कि राज्य पूरे देश में समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करे। सरला मुद्गल बनाम भारत संघ मामले में भी सर्वोच्च अदालत कह चुका है कि संविधान के अनुच्छेद 44 पर नया दृष्टिकोण अपनाएं जिसमें सभी नागरिकों के लिए एक 'समान नागरिक संहिता' हो।
जानवलामत्तम बनाम भारत संघ के ममाले में भी उच्चतम न्यायालय समान नागरिक संहिता के न बनाने को लेकर अपना दुख जता चुका है। न्यायमूर्ति कह चुके हैं कि संविधान को लागू हुए वर्षों गुजर गए और कई सरकारें आई व गई फिर भी अनुच्छेद 44 में निहित संविधान के उक्त निदेश को कार्यान्वित करने के कर्तव्य का पालन किसी के द्वारा नहीं किया गया। दिल्ली उच्च न्यायालय भी समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कह चुका है। न्यायमूर्ति प्रतिमा एम सिंह की पीठ ने दो टूक कहा कि विवाह, तलाक और संपत्ति के बंटवारे के संबंध में वैकल्पिक व्यवस्थाओं की मौजूदगी न्यायिक ढांचे के लिए चुनौती के साथ-साथ संविधान के प्रावधानों को लागू करने की राह में बाधा है।
शाह बानो का निर्वाह-व्यय के समान जीविका
समान नागरिक संहिता के इतिहास में जाएं तो 1840 में ब्रिटिश राज में गठित समिति ने समान नागरिक कानून बनाने की वकालत की थी। 1985 में जब शाह बानो का मामला उछला तब भी इसकी आवश्यकता महसूस की गयी। शाह बानो एक 62 वर्षीय मुसलमान महिला और 5 बच्चों की मां थी जिन्हें 1978 में उनके पति ने तलाक दे दिया था। शाह बानों पति से गुजारा लेने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटायी। अदालत ने निर्देश दिया कि शाह बानो का निर्वाह-व्यय के समान जीविका दी जाए। लेकिन तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार ने इस फैसले का पालन करने के बजाए संसद के जरिए फैसले को ही पलट दिया। मुस्लिम नेताओं ने 'ऑल इंडिया पर्सनल बोर्ड' नाम की एक संस्था बना ली और देश के सभी भागों में आंदोलन की धमकी दी। उस समय की सरकार कट्टरपंथियों के आगे झुक गई।
अरविंद जयतिलक: (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह उनके अपने विचार हैं।)