Opinion: सामाजिक-प्रशासनिक समाधान जरूरी, बलात्कार की घटनाएं लगाती हैं प्रश्नचिह्न

Woman raped in Yamunanagar.
X
यमुनानगर में महिला के साथ दुष्कर्म। 
Opinion: कोलकाता की घटना के समय ही उत्तराखंड के ऊधमसिंह नगर में घर लौट रही एक नर्स का दुष्कर्म कर बर्बरता से उसकी हत्या कर दी गई थी।

Opinion: कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में एक ट्रेनी महिला डॉक्टर से रेप व हत्या की घटना के बाद महाराष्ट्र के ठाणे जिले के बदलापुर में निजी स्कूल में दो बच्चियों से यौन शोषण की घटना सामने आई है। कोलकाता की घटना के समय ही उत्तराखंड के ऊधमसिंह नगर में घर लौट रही एक नर्स का दुष्कर्म कर बर्बरता से उसकी हत्या कर दी गई थी।

मनोविज्ञान पर भी गंभीरता से विचार-विमर्श
बिहार के मुजफ्फरपुर में भी 14 साल की छात्रा से बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी गई। महिलाओं और छोटी-छोटी बच्चियों से बलात्कार किए जाने की घटनाएँ लगातार प्रकाश में आती रहती हैं। ऐसी घटनाएं, बार-बार हमारी सभ्यता पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं। अब हमें इस समस्या के पीछे छिपे मनोविज्ञान पर भी गंभीरता से विचार-विमर्श करना होगा, तभी इस समस्या का स्थाई समाधान खोजा जा सकता है। कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में एक ट्रेनी महिला डॉक्टर के साथ दरिंदगी की घटना ने समूचे देश को एक बार फिर से शर्मसार किया है।

बेशक मामले की जांच सीबीआई कर रही है, कुछ आरोपी गिरफ्तार हैं और पूछताछ का सामना कर रहे हैं, लेकिन इस मामले में कोलकाता हाईकोर्ट ने जिस प्रकार पश्चिम बंगाल की सरकार को सवालों के घेरे में खड़ा किया और उसके बाद जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने मामले में शासन व प्रशासन को लताड़ लगाई, उससे इस मामले में पश्चिम बंगाल सरकार की प्रशासनिक विफलता की पोल खुली है। यह रेप-हत्याकांड हमारे समाज पर सवाल उठाता है, बढ़ रही मानसिक विकृति की तरफ इशारा करता है। महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा को रोकने में केवल कानून, सरकार और पुलिस प्रशासन ही कारगर नहीं हैं, बल्कि सामाजिक व पारिवारिक संस्कार भी विकसित करने की जरूरत है।

क्यों बढ़ती जा रही ऐसी घटनाएं
आज जिस प्रकार से इस प्रकार की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं, उसे केवल कुछ तत्वों का मानसिक दिवालियापन कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। समाज में इस तरह के व्यवहार का बढ़ना स्पष्ट रूप से यह संकेत देता है कि हमारे सामाजिक ताने-बाने में कहीं न कहीं कोई खोट जरूर है। यहां यह विचार करना भी जरूरी है कि यह खोट अपने आप पैदा हुआ है या फिर जानबूझकर पैदा किया जा रहा है। दिसम्बर 2012 में हुई दिल्ली सामूहिक बलात्कार की घटना के विरोध में जिस तरह से जनता सड़कों पर उतरी थी, उसे देखकर लगा था कि शायद हमारा समाज जाग गया है। लेकिन इस घटना के बाद भी लगातार ऐसे समाचार प्रकाश में आते रहे।

हैवानियत और दरिंदगी की ऐसी घटनाओं पर गुस्सा जायज है लेकिन केवल गुस्से से ही किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। हमें ठहरकर यह सोचना होगा कि बार-बार इस तरह की घटनाएं क्यों घट रही हैं। सवाल यह है कि क्या पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को सच्चे अर्थों में सम्मान देता है? एक तरफ हम महिलाओं के मामले में स्वयं को प्रगतिशील मानने हैं तो दूसरी तरफ महिलाओं के प्रति हमारी दृष्टि साफ नहीं होती है। जब तक हम महिलाओं को सच्चे अर्थों में सम्मान देना नहीं सीखेंगे तक तब ऐसी घटनाओं को रोकने के सारे उपाय फौरी साबित होंगे। दरअसल, बलात्कार एक ऐसा शोषणकारी शब्द है जिससे उस शोषणकारी व्यवहार एवं प्रक्रिया का बोध होता है जो न केवल हमारे अस्तित्व को हिलाकर रख देती है बल्कि हमारे अंदर एक हीनभावना भी पैदा कर देती है।

तात्कालिक आवेग ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार
इस व्यवहार का एक दुखद और विरोधाभासी पहलू यही है कि जो व्यक्ति इस घिनौने कृत्य को अंजाम देता है उसके अंदर हीनभावना पैदा नहीं होती है बल्कि पीड़िता स्वयं को हीन मानने लगती है। दुनिया का कोई भी शोषणकारी व्यवहार श्रेष्ठता और हीनता के बोध के बिना पैदा नहीं होता है। इस व्यवहार में स्वयं को श्रेष्ठ या बड़ा सिद्ध करने तथा दूसरों को हीन या छोटा सिद्ध करने की प्रवृत्ति होती है। बलात्कार या दुष्कर्म जैसी घटनाओं में यह भाव तात्कालिक रूप से भी पैदा हो सकता है। साथ ही वासना का तात्कालिक आवेग भी ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। जो भी हो, बलात्कार जैसी घटनाएं न केवल मनुष्य की यौन स्वतंत्रता और यौन-शुचिता पर कुठाराघात है बल्कि उसे यौनिक रूप से पंगु बना देने की चाल भी है। मनोवैज्ञानिक ऐसे घिनौने कृत्य करने वाले लोगों को मानसिक रूप से बीमार बताते हैं लेकिन सवाल यह है कि इस दौर में यह मानसिक बीमारी क्यों बढ़ती जा रही है? बलात्कारी वा दुष्कर्मी को केवल मानसिक रूप से बीमार कहकर ऐसी घटनाओं की गंभीरता को कम नहीं किया जा सकता।

ऐसा नहीं है कि ऐसी घटनाएं पहले नहीं होती थीं। पहले भी ऐसी घटनाएं प्रकाश में आती थीं लेकिन इस दौर में ऐसे घिनौने कृत्यों की बाढ़ आ गई है। यह बाढ़ कब किसे अपनी चपेट में ले ले, कहा नहीं जा सकता। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस बाढ़ को रोकने के लिए जितने भी उपाय किए जा रहे हैं, वे सब सतही और फौरी साबित हो रहे हैं। यही कारण है कि दुष्कर्म की एक घटना को हम भूल भी नहीं पाते हैं कि दूसरी घटना प्रकाश में आ जाती है। यह सब तो तब है जब ऐसी घटनाओं के विरोध में जनता सड़कों पर आ जाती है लेकिन जनता का गुस्सा, सरकार की कोशिश और कानून का डर भी दुष्कर्मियों के नापाक हौसलों को पस्त नहीं कर पा रहा है।

शीघ्र से शीघ्र फाँसी दी जाए
ऐसी घटनाओं के बाद जनता माँग करती है कि दुष्कर्मियों को शीघ्र से शीघ्र फाँसी दी जाए। लेकिन सवाल यह है कि क्या फाँसी के डर से ऐसी घटनाएं वास्तव में कम हो रही हैं। निर्भया केस में दोषियों को फांसी दी गई, लेकिन उसके बाद भी रेप व हत्याकांड की कई घटनाएं घटीं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज कुछ बाजारवादी शक्तियाँ समाज की वासना को जानबूझकर भड़काने का प्रयास कर रही हैं। इसलिए न ही तो जनता का गुस्सा और न ही फाँसी का डर ऐसी घटनाओं पर लगाम लगा पा रहे हैं। आज कुछ बुद्धिजीवी नैतिकता और प्रगतिशीलता को विरोधाभासी प्रक्रिया सिद्ध करने में लगे हुए हैं।
रोहित कौशिक: (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये उनके अपने विचार हैं।)

WhatsApp Button व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें WhatsApp Logo
Next Story