Opinion: गुरु-शिष्य परंपरा भारत की संस्कृति का एक अहम और पवित्र हिस्सा है। जीवन में माता-पिता का स्थान कभी कोई नहीं ले सकता, क्योंकि वे ही हमें इस खूबसूरत दुनिया में लाते हैं। कहा जाता है कि जीवन के सबसे पहले गुरु हमारे माता-पिता होते हैं। भारत में प्राचीन समय से ही गुरु व शिक्षक परंपरा चली आ रही है, लेकिन जीने का असली सलीका हमें शिक्षक ही सिखाते हैं। सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।
गुरु ही ईश्वर का मार्ग दिखाता है
गुरु संसार की श्रेष्ठ पदवी है, जो अपने शिष्य को सर्वोत्तम बनाने के धर्म का निर्वहन करता है। केवल गुरु-शिष्य संबंध ही आध्यात्मिक संबंध है, क्योंकि गुरु ही ईश्वर का मार्ग दिखाता है। गुरु ही जीवन का रहस्य बताता है। गुरु ही मानव के जीवन से जुड़े लक्ष्य भेद को सिद्ध कराने में समर्थ हो सकता है। जिस भी साधक ने गुरु की महिमा को आत्मसात किया, वह भवसागर से पार हो गया। शरीर व आत्मा का तत्व दर्शन, जीव की मीमांसा, ईश्वर की खोज और संसार का आश्रय गुरु के मार्गदर्शन से ही संभव है।
आत्मोद्धार के पथिक गुरु महिमा से पूर्ण सफलता पाते हैं। इसीलिए गुरु को पारंपरिक एवं मूल पथप्रदर्शक बताया गया है, जिस पर चलकर आत्मबोध की यात्रा सरल हो जाती है। ध्यान से देखें तो महान गुरु या शिक्षक ही जीवन का सच्चा निर्माता है। वह अपने बुद्धि कौशल से बच्चों के चरित्र का निर्माण करता है। यह शिक्षक की महिमा ही है कि वह अपने गुरु से भी आगे बढ़कर अपने विद्यार्थियों को महान बनाता है। भगवान श्रीराम के लिए गुरु वशिष्ठ, पांडवों के लिए गुरु द्रोण और चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त के लिए आचार्य चाणक्य जैसे शिक्षक ही उनकी समग्र सफलता के स्रोत थे। विद्या दान की गुरु कृपा ही अपने शिष्यों का महिमामंडन करने का माध्यम सिद्ध होती है।
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शिक्षा प्रक्रिया का केंद्र-बिंदु
हमारे यहां इतिहास में गुरु यानी शिक्षक को शिक्षा प्रक्रिया का केंद्र-बिंदु बनाया गया जो शिक्षा के उद्देश्य, उसकी विषय-वस्तु तथा उसके उपादान आदि सब को निर्धारित करता था। यह सब करने के लिए उसे आवश्यक स्वतंत्रता और सुविधा दी गई। गुरु की संस्था में समाज का भरोसा विकसित हो गया। देश के निर्माण में चाणक्य जैसे गुरुओं की भूमिका का अत्यंत प्राचीन इतिहास है। भारत में गुरुओं की अटूट्ट परम्परा में अनगिनत नाम हैं। ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के कुछ प्रमुख नाम हैं याज्ञवल्क्य, यास्क, कपिल, कणाद, व्यास, पाणिनि, उदयन, चरक, सुश्रुत, पतंजलि, शंकराचार्य, अभिनवगुप्त, नागार्जुन, वसुबंधु, भास्कराचार्य, आर्यभट्ट तथा हेमचंद्र।
इन लोगों ने ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में गुरु परम्परा की अमिट छाप छोड़ी है जो अनेकानेक ग्रंथों से भलीभांति प्रमाणित है। व्यक्ति की जगह परम्परा प्रमुख रही है। सिख गुरु परम्परा स्वयं में एक अद्भुत उपलब्धि है। गुरुओं की यह परम्परा काल के थपेड़ों के बीच कुछ उतार-चढ़ाव के साथ प्रवाहमान रही है। देश-काल में बदलाव के साथ उसके रूप भी बदलते रहे हैं। गुरु और विद्यार्जन के केंद्र विद्यालय को समाज की मुख्य संस्था के रूप में अपनाया गया और उसे भरपूर समर्थन मिलता रहा। जीवनोपयोगी ज्ञान के लिए गुरु के निकट प्रशिक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण था।
विद्या की अनेक धाराओं का संगम
गांवों और शहरों में भी विद्यालयों की अच्छी व्यवस्था को लेकर अंग्रेजों की आरम्भिक रपट विस्मयजनक है और कदाचित इसकी शक्ति को समझ कर ही उन्होंने भारतीय शिक्षा की कमर तोड़ने का षड्यन्त्र रचा और उनको आशातीत सफलता भी मिली। वस्तुतः विद्या मुक्ति की साधना है और गुरु या शिक्षक इसी विद्या की अनेक धाराओं का संगम। यदि किसी मनुष्य ने गुरु का मंत्र ग्रहण नहीं किया तो समझिए वह पृथ्वी पर भार स्वरूप है। ऐसा मानव कभी गुरु महिमा का विस्तार नहीं कर सकता। इसीलिए मनुष्य को गुरु का अनुशासन, प्रेम और आशीष समय पर प्राप्त कर लेना चाहिए। तभी वह गुरुभक्ति और गुरुशक्ति का वाहक बनने में सक्षम हो सकेगा। जिस प्रकार भगवान ने गुरु की ओर संकेत कर उन्हें स्वयं से श्रेष्ठ बताया, उसी तरह माता-पिता भी गुरु को अपने से श्रेष्ठ मानते हैं।
वास्तव में माता-पिता तो जन्म देकर पालन-पोषण करते हैं, लेकिन किसी को आदर्श मनुष्य का आकार देने वाला तो शिक्षक ही है। यह सुखद ही है कि देश में आजादी के बाद पहली बार हमारी प्राचीन गुरु केंद्रित शिक्षा व्यवस्था की झलक हमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में निर्मित नई शिक्षा नीति में मिलती है। पहली बार भारत के स्व को केंद्रीय तत्व मानकर शिक्षा नीति को आकार दिया गया है। भारत की प्रतिभा और क्षमताओं को उकेर कर विश्व गुरु बनने का संकल्प नई नीति में सुस्पष्ट नजर आता है। आज शिक्षक दिवस पर सकल समाज अपने शिक्षकों के प्रति कृतज्ञता के साथ खड़ा है।
डॉ. नितेश शर्मा: (लेखक शिक्षाविद हैं, वे उनके अपने विचार हैं।)