Opinion: भारत की वामपंथी राजनीति के सबसे चमकीले सितारों में बसु, जिनकी आज से एक सिर्फ इस बात के लिए नहीं जाना जाता कि वे 21 जून, 1977 से 5 नवम्बर, 2000 तक देश के चुनिन्दा बड़े राज्यों में से एक पश्चिम बंगाल बंगाल की वामपंथी मोर्चा सरकार के मुखिया रहे। एक समय देश में सबसे लम्बे समय तक मुख्यमंत्री पद पर आसीन रहने का रिकॉर्ड उन्हीं के नाम था जो अब सिक्किम के पवन कुमार चामलिंग के नाम है।
वामपंथी प्रधानमंत्री बनने का अवसर छीन लिया
उन्होंने वर्ष 2000 में मुख्यमंत्री का पद जनरोष के शिकार होने के बाद नहीं, बढ़ती उम्र की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के कारण छोड़ा था। पश्चिम बंगाल से वाममोर्चा सरकार की जिस विदाई को कई लोग उसके लाल किले के ढहने के तौर पर देखते हैं, वह उनके बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य के समय की परिघाटना है। देश उनको ऐसे नेता के रूप में ज्यादा जानता है, जिसकी पार्टी ने 1996 में उससे उसके समक्ष उपस्थित भारत का पहला वामपंथी प्रधानमंत्री बनने का अवसर छीन लिया था। तिस पर उनका बड़प्पन कि उन्होंने पार्टी को सर्वोपरि रखते हुए प्रधानमंत्री पद ठुकरा दिया था। बावजूद इसके कि उन्हें लगता था कि पार्टी ने उक्त अवसर गंवाकर हिमालय जैसी गलती की है।
सरकार गिरने पर दोहराया भी
कुछ जानकारों के अनुसार उनको एक नहीं, चार-चार बार प्रधानमंत्री बनने के प्रस्ताव मिले थे। इनमें पहला 1990 में वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद कांग्रेस प्रमुख राजीव गांधी द्वारा दिया गया था, जिसे उन्होंने सात महीने बाद चंद्रशेखर की सरकार गिरने पर दोहराया भी था। आगे चलकर 1996 और 1999 में भी उन्हें ऐसे प्रस्ताव मिले, जिनमें 1996 का प्रस्ताव सबसे ज्यादा चर्चित हुआ। दरअसल, 1966 के लोकसभा स्थिति में आई कि केन्द्र में कांग्रेस चुनाव में गैरभाजपा-गैरकांग्रेस पार्टियां इस स्थिति के समर्थन से सरकार बना सकें तो उन्होंने ऐसे नेता की तलाश आरंभ की, जो उनके गठबंधन व सरकार को सुचारू रूप से चला सके।
प्रधानमंत्री बनने के विरुद्ध फैसला
तब कहा गया कि एकमात्र ज्योति बसु ही ऐसा कर सकते हैं। फिर तो ऐसी स्थिति बन गई कि उनके नाम पर किसी भी पार्टी को ऐतराज नहीं रह गया-मात्र उनकी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर, लेकिन उनकी पार्टी ने अपने तत्कालीन महासचिव कॉमरेड सुरजीत की पैरवी के बावजूद उनके प्रधानमंत्री बनने के विरुद्ध फैसला किया, तो उन्होंने उसकी इस 'हिमालय- सी गलती' को किसी हील-हुजत के बिना स्वीकार कर लिया। 1914 में आज के ही दिन कोलकाता में पैदा हुए बसु तत्कालीन पूर्वी बंगाल।
कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ने से नहीं रोक पाए
अब बाग्लादेश में ढाका के बार्टी गांव के मूल निवासी श्रीमती हेमलता व डॉ निशिकांत बसु के तीसरे बेटे थे। तमाम उत्तार-चढ़ावों के बीच 1940 में इंग्लैंड से बैरिस्टरी को पढ़ाई करके ये कलकता लौटे तो लाल रंग में रंग चुके थे, इसलिए परिजनों के लाख मना करने के बावजूद खुद को देश की कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ने से नहीं रोक पाए। 1940 में उन्होंने कलकता हाईकोर्ट में वकालत शुरू की तो उन्होंने पार्टी के भूमिगत व सार्वजनिक रूप से सक्रिय नेताओं के बीच संवाद के मजबूत सेतु की तरह काम किया। इसी का फल था कि पार्टी के पहले ही वैध सत्र में उन्हें उसकी प्रांतीय समिति का संगठनकर्ता चुन लिया गया। पार्टी से प्रतिबन्ध हटा तो वे उसके बांग्ला मुखपत्र 'स्वाधीनता' के सम्पादक मंडल के अध्यक्ष और राज्य समिति के निर्विरोध सचिव बने।
राष्ट्रीय परिषद से निलंबित
1954 में मदुरै कांग्रेस में उन्हें पार्टी की केन्द्रीय समिति और पालघाट कांग्रेस में केन्द्रीय सचिवालय के लिए चुना गया। 1964 में पार्टी के विभाजन के वक्त उन्हें 31 अन्य सदस्यों के साथ राष्ट्रीय परिषद से निलंबित कर दिया गया तो ये सीपीआई (एम) की केन्द्रीय समिति व पोलित ब्यूरो के लिए चुने गये। अपनी चुनावी राजनीति की शुरुआत उन्होंने 32 वर्ष की उम्र में ही कर दी थी। 1946 में रेलवे (कांस्टीट्यूएंसी) की तरफ से बंगाल विधानसभा के लिए चुने गए।
पंचायतीराज और भूमि सुधार
अपने मुख्यमंत्रीकाल में उन्होंने पंचायतीराज और भूमि सुधार कार्यक्रम को प्रभावी ढंग से लागू किया, जिसके फलस्वरूप पश्चिम बंगाल देश का ऐसा पहला राज्य बन गया, जहां फसल कटकर पहले बंटाईदार के घर जाती है। 2010 में 95 साल की अवस्था में निमोनिया से पीड़ित होने के बाद उन्होंने 17 जनवरी की सुबह कोलकाता के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली तो उनकी अंतिम यात्रा किसी श्मशान में नहीं बल्कि एक अस्पताल में जाकर समाप्त हुई ताकि उनका शरीर, जिसे उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए दान कर रखा था, उसको सौंपा जा सके।
कृष्ण प्रताप सिंह: (लेखक वरिष्ठ पत्रकार है. ये उनके अपने विचार है।)