Logo
Opinion: आरक्षण का दायरा बढ़ाने को लेकर विधायिका और न्यायपालिका में गहमागहमी चलती रहती है। माननीय सुप्रीम कोर्ट अनेक फैसलों से आरक्षण का दायरा 50% से अधिक नहीं करने पर स्थिर है।

Opinion: हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव के दौरान विक्षीय दलों का मुद्दा जातीय जनगणना प्रमुख रहा। सांसदों की संख्या के आधार पर देश की तीसरी सबसे बड़ी समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही जातीय जनगणना कराए जाने को लेकर मुखरता से आवाज उठा रहे हैं। जिसका फैलाव क्षेत्रीय दलों के मैनिफेस्टो से होते हुए कांग्रेस के एजेंडे में शामिल हो चुका है।

भारत में आरक्षण संवेदनशील मुद्दा है। इसको लेकर समय-समय पर संघर्ष भी दिखता रहता है। संविधान निर्माण के समय अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति को उनकी आबादी के अनुसार क्रमशः 15% एवं 7.5% की संवैधानिक व्यवस्था की गई है। संविधान सभा में ओबीसी की आबादी 52% को दृष्टिगत रखते हुए इस वर्ग के लिए 27% आरक्षण की व्यवस्था है। आरक्षण का दायरा बढ़ाने को लेकर विधायिका और न्यायपालिका में गहमागहमी चलती रहती है। माननीय सुप्रीम कोर्ट अनेक फैसलों से आरक्षण का दायरा 50% से अधिक नहीं करने पर स्थिर है। जबकि दक्षिण के कुछ राज्यों में यह दायरा बढ़ गया है। 2019 में 103वें संविधान संशोधन से ईडब्ल्यूएस की नई व्यवस्था के तहत 10% आरक्षण में आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग को शामिल किया गया। ऐसे में यह मांग पकड़ने लगी जब अभी वर्गों को आरक्षण जा रहा है फिर आबादी के अनुसार आरक्षण सबसे उचित तरीका हो सकता है।

यह भी पढ़ें: Opinion: जाति गणना की मांग विपक्ष का सियासी स्टंट, आंकड़े जारी नहीं किए 

अस्पृश्यता निवारण कानून
विपक्षी दलों एवं जातिगत जनगणना के समर्थक वर्ग का मानना है कि इससे आरक्षण को लेकर संघर्ष एवं कटुता दूर करने में मदद होगी। इतिहास की ओर दृष्टिपात करने से आरक्षण व्यवस्था का विषय स्पष्ट हो जाएगा। भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति/जनजाति के साथ छुआछूत की अमानवीय परंपरा को समाप्त करने के लिए जहां एक ओर अस्पृश्यता निवारण कानून बना वहीं दूसरी ओर एससी/एसटी वर्गों के लोकसभा एवं विधानसभाओं में समुचित प्रतिनिधित्व के लिए सुरक्षित निर्वाचन सीटों का प्रावधान हुआ। जिससे दलित और जनजातीय समाज से सांसदों और विधायकों की श्रृंखला शुरू हुई। उसका देश की सामाजिक संरचना पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। अनुसूचित जाति और जनजाति को उसकी आबादी के अनुपात में आरक्षण मिलने से सरकारी सेवाओं एवं सदन, दोनों जगह उस वर्ग को आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी मिलने लगी।

मंडल कमीशन की रिपोर्ट
आरक्षण की व्यवस्था में ओबीसी की समस्याओं एवं चुनौतियों की  दिशा मे ठोस पहल न होने से राज्यों सहित राष्ट्रीय स्तर पर आक्रोश तेज होने लगा। आपातकाल के बाद जब देश में समाजवादियों की सरकार बनी, उस समय घटक दलों में समाजवादी विचार के नेताओं ने डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में पिछड़े पाँवें सौ में साठ के नारे को आधार बनाते हुए चौधरी चरण सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में मंडल कमीशन ने आकार लिया। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री रहे बीपी मंडल की अध्यक्षता में मंडल आयोग ने पिछड़ों के सामाजिक शैक्षणिक आधार का मूल्यांकन कर अपनी रिपोर्ट तैयार की, लेकिन केंद्र में निर्वाचित सरकारों के बदलाव और सत्ताधारी राजनीतिक दलों के भीतर साहस की कमी के कारण मंडल रिपोर्ट ठंडे बस्ते में पड़ी रही।

अस्सी के उतरार्द्ध में कांग्रेस की हार के बाद जनता दल की सरकार बनने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट जारी करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया। मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने से देश के विभिन्न प्रांतों में कुछ समय के लिए सामाजिक हिंसा भी हुआ जो समय रहते नियंत्रण में आ गया। पूरे देश में पिछड़ों के सरकारी सेवाओं में 27% आरक्षण का रास्ता खुल गया, जिससे सामाजिक विविधता का नया रूप सामने आया। इसके साथ ही उत्तर भारत में सत्ता के केंद्र में पिछड़ी जातियों का उभार हुआ। नब्बे के दौर में केंद्र और राज्यों में पिछड़ों को आबादी के अनुसार हिस्सेदारी और प्रतिनिधित्व की मांग जोर पकड़ने लगी। इसके साथ ही विश्वविद्यालयों में पिछड़ी जातियों का कोटा तय करने का दबाव केंद्र सरकार पर पड़ने लगा जिसे 2004 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार में मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने अमली जामा पहनाया।

आरक्षण और प्रतिनिधित्व की धाराएं स्वतंत्र भारत में अनेक सामाजिक आंदोलनों के रूप में लगातार चुनावी राजनीति में राजनैतिक दलों पर प्रभाव डालती रहीं। यूपी-बिहार में यह धारा बेहद समृद्ध रही। नब्बे के दौर में जहां उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में पिछड़ी जातियाँ एकजुट हुई वहीं बिहार में लालू यादव और नीतीश कुमार की अगुवाई में यह एकता सामने आई। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने 2019 लोकसभा चुनाव में जातीय जनगणना की मांग को उठाया था जिसे 2022 के विधानसभा चुनाव और 2024 लोकसभा में चुनावी मुद्दा बनाया। हाल ही में भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन में जातीय जनगणना कराए जाने के मुद्दे पर सभी दलों की सहमति बनी। 2024 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने बतौर नेता प्रतिपक्ष सदन के भाषणों में जातीय जनगणना के पक्ष में पूरी प्रतिबद्धता दिखाई।

नीतीश ने जारी किए आंकड़े
बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने जातीय गणना कराने के लिए न केवल पहल किया बल्कि अविलंब उसके आकड़े भी जारी कर दिए। हाल ही में सम्पन्न हुए संसद के विशेष सत्र में महिला आरक्षण बिल के दौरान कांग्रेसी नेता राहुल गांधी ने जातीय जनगणना कराने के पक्ष में समर्थन दिया। जनगणना में सरकार द्वारा की जा रही देरी और तमाम शिक्षण संस्थानों में नियुक्ति में आरक्षण को नियमबद्ध रूप से लागू न करना हो या लेटरल एंट्री के माध्यम से आरक्षण को बिलकुल दरकिनार करना हो, बड़ा मुद्दा बना। बिहार सरकार द्वारा जातीय जनगणना के आंकड़े जारी करने के बाद देर सबेर इस पर राष्ट्रीय सहमति बनने की संभावना दिखती है।

देश में जातीय स्वाभिमान और अस्मिता की राजनीति के उभार से कई मोचर्चों पर सामाजिक कटुता अक्सर दिखती रहती है। ऐसे में जातीय जनगणना के माध्यम से सभी जातियों और समूहों को उनके आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी मिले इसके लिए आपसी सहमति बननी चाहिए। जनगणना के साथ जातिगत जनगणना को प्राथमिकता से सभी राजनीतिक मंचों पर एक स्वर में आवाज बुलंद करनी चाहिए। सामाजिक तनाव, भेदभाव, वंचित तबके के लिए विशेष अवसर की कमी जैसे अन्य समानार्थी मुद्दे किसी भी लोकतंत्र के लिए उचित नहीं है। संविधान और लोकतंत्र का मूल सिद्धांत समानता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय है। जातीय जनगणना इसी लक्ष्य को पूरा करने का एक कारगर हथियार है
मणेन्द्र मिश्रा 'मशाल' (लेखक पूर्व अतिथि प्रवक्ता, इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं, यह उनके अपने विचार हैं।)

यह भी पढ़ें: Opinion: जातिवादी राजनीति के भंवर में न फंसे देश, संवेदनशील मुदा

5379487