स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: धर्म को केवल लौकिक या केवल पारलौकिक की संज्ञा देना उचित नहीं

Jeevan Darshan: धर्म को केवल लौकिक या केवल पारलौकिक की संज्ञा देना उचित नहीं। तो फिर धर्म क्या है? जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से शुक्रवार को 'जीवन दर्शन' में जानिए धर्म की महत्ता के बारे में।
भारतीय दर्शन में 'धर्म' शब्द का अत्यंत व्यापक और बहुआयामी स्वरूप है। यह केवल धार्मिक कर्तव्यों, पूजा-पद्धतियों या समाज-नियमों का निर्देश नहीं करता, अपितु मनुष्य जीवन के उद्देश्य और उसकी समग्र यात्रा का पथ-प्रदर्शन करता है। 'वैषेषिक दर्शन' में महर्षि कणाद द्वारा प्रतिपादित सूत्र 'यतोऽभ्युदय-श्रेयससिद्धिः स धर्मः' इस अवधारणा को सूक्ष्मतम रूप में परिभाषित करता है। इसका तात्पर्य है- वह तत्व धर्म है, जिससे अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और श्रेयस (पारलौकिक कल्याण) की प्राप्ति होती है।
‘अभ्युदय’ शब्द का अर्थ है- समृद्धि, उन्नति और जीवन की स्थिरता। यह केवल भौतिक साधनों की उपलब्धता नहीं, बल्कि मानसिक संतुलन, आरोग्यता, उत्साह, पुरुषार्थ और सद्गुणों के विकास को भी समाहित करता है। धर्म जब आचरण में आता है, तब वह व्यक्ति के चिंतन को शुद्ध करता है, उसकी प्रवृत्तियों को संयमित करता है और उसकी दिनचर्या को अर्थवान बनाता है। इस प्रकार व्यक्ति का वर्तमान सुरक्षित, संतुलित और उन्नत होता है। एक आलसी, प्रमादी अथवा उद्द्यमहीन व्यक्ति धर्म के मार्ग पर चल ही नहीं सकता, क्योंकि धर्म का मूल है- सतत् सजगता और कर्तव्य परायणता। धर्म का साक्षात्कार केवल मनन से नहीं, अपितु सदाचरण और आत्म-विजय से संभव है।
‘श्रेयस’ वह अवस्था है, जहां मनुष्य केवल सुख की आकांक्षा नहीं करता, वरन् मोक्ष, शांति और चिरस्थायी तृप्ति की ओर अग्रसर होता है। धर्म का उद्देश्य केवल लौकिक हित नहीं, अपितु आत्म-कल्याण, जीवन्मुक्ति और परमपद की सिद्धि है। जब व्यक्ति धर्ममय आचरण में प्रवृत्त होता है, तब उसकी प्रवृत्तियां स्वाभाविक रूप से सात्त्विक हो जाती हैं। परिणामतः उसका अंतःकरण निर्मल होता है, जिससे वह भीतर और बाहर दोनों ओर एक दिव्य प्रकाश का अनुभव करता है। धर्म ही वह शक्ति है, जो जीवन के व्यवहारिक संघर्षों के मध्य भी मनुष्य को सदा स्थितप्रज्ञ बनाए रखती है। धर्म को केवल लौकिक या केवल पारलौकिक की संज्ञा देना उचित नहीं। इसकी महत्ता इसी में है कि यह संतुलन स्थापित करता है- आत्मा और शरीर के बीच, कर्तव्य और अधिकार के बीच, भोग और त्याग के बीच। यह जीवन के विविध पक्षों में समरसता का विधान है।
उदाहरणार्थ, गीता में कहा गया-
'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः'
अर्थात् व्यक्ति को अपने धर्म के अनुसार आचरण करना चाहिए, क्योंकि वहीं से उसका कल्याण संभव है। 'यतोऽभ्युदय-श्रेयससिद्धिः स धर्मः'- यह सूत्र केवल दार्शनिक चिंतन नहीं, अपितु जीवन के प्रत्येक क्षण में दिशा देने वाला प्रकाश-स्तंभ है। धर्म वह आधार है, जिस पर मनुष्य का व्यक्तित्व विकसित होता है और समष्टि का कल्याण सुनिश्चित होता है। धर्म का पालन केवल किसी परम्परा का निर्वाह नहीं, अपितु एक जीवंत प्रक्रिया है, जिसमें मनुष्य का वर्तमान और भविष्य सदैव सुरक्षित रखकर ईश्वरीय अनुग्रह का पात्र बनता है। इस प्रकार, धर्म एक जीवंत ईश्वरीय धारा है, जो मनुष्य को लौकिक और पारलौकिक समृद्धि की ओर ले जाती है।
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