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अक्षय साहू- राजनांदगांव। महिलाओं ने स्वयं पर लगाए गए सारे बंधनों को तोड़ दिया है। अब वे किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से पीछे नहीं हैं। यहां तक कि, अब महिलाएं रुढ़ियों को भी तोड़ कर निरंतर आगे बढ़ रही हैं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर हम आपको रुढ़ियों से लड़कर आगे बढ़ रही एक महिला की कहानी बताएंगे।

मान्यता है कि, महिलाओं का श्मशान घाट पर जाना वर्जित होता है। आज भी तमाम हिंदू परिवार ऐसे हैं जो इस मान्यता के तहत महिलाओं को श्मशान घाट तक नहीं जाने देते। लेकिन राजनांदगांव की संतोषी ठाकुर पिछले 22 सालों से न सिर्फ श्मशान घाट जाती है बल्कि दाह संस्कार भी करवाती हैं। मठपारा स्थित मुक्तिधाम श्मशान में प्रबंधन संभालने से लेकर चिता जलवाने तक काम संभाल रही हैं। 

पिछले 22 सालों से कर रही यह काम 

दाह संस्कार के बदले जो रुपये संतोषी ठाकुर मिलते हैं, उससे वह अपने परिवार का पेट भरती हैं। जब लोग उन्हें चिता जलवाते देखते हैं तो उन्हें हैरानी होती है। संतोषी ठाकुर ने बताया कि, वे इस श्मशान घाट में पिछले 22 साल से आ रही हैं और शवों को जलवाने का काम बीते 12 सालों से कर रही हैं। 

बच्चे के इलाज में कर रहीं पति का सहयोग 

संतोषी ने बताया कि, उनके दो बेटे हैं, जिनमें से एक हमेशा बीमार रहता है। इस वजह से बच्चों के लालन-पालन में पति का हाथ बंटाने के लिए वह आगे आई। इस तरह उन्होंने श्मशान घाट पर दाह संस्कार का काम करने लहीं। शुरुआत में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ा। समाज ने आपत्ति भी जताई और कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया। बादमें धीरे-धीरे सब ठीक हो गया। अब सभी उनका सहयोग कर रहे हैं। 

शुरूआत में लोगों ने किया था विरोध 

सन्तोषी ठाकुर ने बताया कि, कभी- कभी खाना खाने का भी समय नहीं मिलता तब मेरे पति मेरे लिए टिफिन लेकर आते हैं। मुझ पर घर की जिम्मेदारी कम है यहां की जिम्मेदारी संभालने में मुझे अच्छा लगता है। शुरुआत में परिवार के लोगों ने साथ नहीं दिया। छत्तीसगढ़ में अंधविश्वास फैला हुआ है, जिसके कारण लोग अपने बच्चों को मुझसे छूपाते थे। लेकिन आज वे बच्चे मेरी उंगली पकड़कर चलते हैं। शुरुआत में मुझे बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा था। कोरोना काल के समय ऐसी स्थिति थी कि, अंतिम संस्कार करने के लिए दो ही लोग आते थे। उस समय मैं अकेले ही रहती थी फिर भी मैंने बिना डरे काम किया।