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बस्तर में दशकों से अपना वर्चस्व कायम करने वाले नक्सलवाद अब घुटने टेकता हुआ दिखाई दे रहा है। पिछले 15 दिनों में नक्सलियों ने चार बार शांतिवार्ता का प्रस्ताव भेजा है, जब- जब नक्सलियों ने ऐसा पैंतरा अपनाया है, तब किसी बड़े हमले को अंजाम दिया है।

गणेश मिश्रा। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की शांति वार्ता का प्रस्ताव इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है। अब तक नक्सलियों की ओर से करीब 4 बार पर्चे के माध्यम से प्रस्ताव आ चुका है। नक्सलियों के इन चारों प्रस्तावों का प्रदेश के गृहमंत्री विजय शर्मा हर बार जवाब दे चुके हैं। इस बार तो अंतिम प्रस्ताव पर गृहमंत्री ने यहां तक कह दिया कि, नक्सली अपनी ओर से जब तक किसी को अपना प्रस्तावक बनाकर नहीं भेजते तब तक वार्ता कैसे सम्भव है।

प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद से ही केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने नक्सलवाद के खात्मे को लेकर मार्च 2026 का डेड लाइन तय किया है। जिसके बाद से ही पिछले 15 महीनों में नक्सलियों के सेंट्रल कमेटी से लेकर बस्तर सब जोनल ब्यूरो के प्रभारी ने शांति वार्ता और युद्ध विराम को लेकर करीब 4 बार शांति वार्ता का प्रस्ताव भेजा है। सारे प्रस्ताव सशर्त हैं और दूसरी ओर सरकार शर्तों को लेकर वार्ता करने के लिए तैयार नहीं है।

विचारधारा ने लिया हिंसक रूप 

शांति वार्ता और युद्ध विराम से पहले इस बात को भी जानना जरूरी है कि, आखिर 45 सालों से बस्तर में व्याप्त नक्सलवाद, हिंसा और खूनी खेल किस तरह बस्तर में प्रवेश कर देशभर में अपना वर्चस्व कायम किया। बात 1980 के दशक की है, नक्सल नेता कोसा, रमन्ना, सायन्न, सुधाकर ,वीरन्ना, कुमार अन्ना और गोपन्ना जैसे कुल सात नक्सल नेता 49 लोगों के दल के साथ एक दो नाली बंदूक, दो पिस्टल और 40 गोलियों के साथ भोपालपटनम के भद्रकाली होते हुए बस्तर में,प्रवेश किए थे। देखते ही देखते यह सात लोगों का 49 सदस्यीय दल ने पूरे देश में नक्सलवाद और नक्सलियों की फौज खड़ी कर दी। 

शांतिवार्ता से दूर नजर आ रहे मानवाधिकार कार्यकर्ता

जानकार बताते है कि, नक्सली हिंसक होने के साथ साथ तेंदूपत्ता,ठेकेदार, उद्योगपतियों के अलावा हर वर्ग से संगठन चलाने के नाम से बड़े पैमाने पर लेव्ही वसूली में लगा हुआ है। जिसका 90 फीसदी हिस्सा आंध्र और तेलंगाना के बड़े नक्सली नेताओ की झोली में जाता है। इसका खुलासा कई बार करोड़ों रुपये लेकर आत्मसमर्पण करने पहुंचे नक्सली नेताओ ने भी किया है। उसके बाद सवाल अब यह भी उठता है कि, फर्जी मुठभेड़ों का हवाला देकर जंगलों में प्रवेश पाने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता और समाजसेवी भी इस शांतिवार्ता से दूर नजर आ रहे हैं। जबकि इन्हें आगे आकर युद्धविराम पर सार्थक चर्चा करनी चाहिए ताकि बस्तर में किसी निर्दोष का खून न बहे और शांति स्थापित हो सके।

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कई मास्टरमाइंड मारे गए हैं 

बस्तर आने वाले उन सात नक्सली नेताओं में से कई लोग तो मारे जा चुके हैं। एक या दो नक्सली नेता अब भी जीवित हो सकते हैं परंतु जो लोग मारे जा चुके हैंऔर जो जीवित हैं। नक्सलियों ने अपने जैसे कई नक्सली नेता बस्तर में खड़े कर दिए और उसके बाद यह आंदोलन विचारधारा से परे उठते हुए हिंसात्मक हो चुका है। अब स्थितियां ऐसी है कि उस हिंसा को रोकने के लिए युद्ध विराम और शांति वार्ता की पहल भी नक्सलियों की ओर से ही की जा रही है परंतु नक्सलियों की ओर से अब तक कोई भी ठोस पहल होता हुआ नजर नहीं आ रहा।।  

अफसरों की राय- नक्सली शांति वार्ता का स्वांग रचते हैं 

नक्सलवाद को करीब से जानने वाले बस्तर में पदस्थ अफसर का मानना है कि, नक्सलियों की ओर शांति वार्ता को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई देती है। यह साबित करता है कि, नक्सली शांतिवार्ता के लिए पर्चे जारी कर महज सरकार को दिग्भर्मित कर रहे हैं। जब- जब सरकार और सुरक्षाबल के जवान नक्सलवाद पर हावी होती है तब- तब नक्सली शांति वार्ता का स्वांग रचते हैं। अगर वास्तव में नक्सली शांतिवार्ता चाहते है तो गंभीरता के साथ उन्हें या उनका प्रतिनिधि मंडल को सरकार के साथ एक टेबल में आना चाहिए। मुखबिरी के नाम पर निर्दोष ग्रामीणों की हत्या करना, जिन जंगलों में आदिवासी स्वतंत्र होकर विचरण करते हैं वहां जगह- जगह आईडी लगाकर आदिवासियों की जान लेना ये कोई विचारधारा नहीं है।

सरकार को लेना चाहिए सबक 

2004 में आंध्रप्रदेश में नक्सलियों ने शांतिवार्ता का प्रस्ताव भेजा था। जिसके बाद नक्सल नेता आरके उर्फ अक्की राजू के नेतृत्व में नक्सलियों के चुनिंदा नेता सरकार के साथ वार्ता के लिए एक टेबल पर बैठे थे।भले ही वह वार्ता विफल हो गयी पर उस दौरान सार्थक पहल की गई थी। वहीं 21 अप्रैल 2012 में सुकमा कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का नक्सलियों ने अपहरण कर लिया था और उनकी रिहाई के लिए भी नक्सलियों की ओर से मध्यस्ता के लिए बीडी शर्मा और प्रोफ़ेसर हरगोपाल को नियुक्त किया गया था। जिसके बाद ही 3 मई 2012 को उन्हें रिहा किया गया था,उसी तरह कोबरा जवान राकेश्वर मन्हास के अपहरण के बाद भी नक्सलियों की ओर से तीन सदस्यीय वार्ताकार नियुक्त किये गए थे और एक जनअदालत में CRPF जवान को रिहा किया गया।

गृहमंत्री शर्मा भी दे चुके हैं चेतावनी 

गृहमंत्री विजय शर्मा ने कहा कि, माओवादियों को सरकार से चर्चा करना है तो सरकार तैयार है लेकिन नक्सली वार्ता को लेकर प्रेस नोट में जिस समिति की बात कर रहे हैं वह है ही नहीं। हम किसी ऐसी समिति को नहीं जानते हैं, बंदूक का जवाब बंदूक से होता है चर्चा से नहीं। जिसका सीधा- सीधा मतलब है कि, जब तक नक्सली बन्दूक नही छोड़ देते तब तक शांति वार्ता संभव नहीं है।

नक्सली शांतिवार्ता के नाम पर पहले भी रच चुके हैं साजिश 

इतिहास गवाह है कि, जब- जब नक्सली सीज फायर की बात करते हैं, उस दौरान सरकार को अपनी बातों में उलझाकर संगठन को मजबूत करने में लगे रहते है। जिसका उदाहरण 2004 में आंध्र सरकार के साथ शांतिवार्ता है। उधर सरकार के साथ शांतिवार्ता करने के बाद नक्सलियों ने तुरंत ही रानिबोदली,ताड़मेटला और मुरकीनार जैसे हमलों को अंजाम दिया था। इसीलिए सरकार को भी शांतिवार्ता से पहले सोच समझ लेना चाहिए। यही नहीं बल्कि देशभर की खूफिया एजेंसी,सुरक्षा एजेंसी चाहे वो एलआइबी,आईबी एसआईबी ही क्यों न हो सभी को एलर्ट मोड़ पर रखना चाहिए। क्योंकि ये एजेंसियां भले ही देश के किसी हिस्से में सफल हों पर बस्तर में विफल ही साबित हुए हैं।

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