बिलासपुर। खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से पूछे बता तेरी रजा क्या है? अल्लामा इकबाल की इन पंक्तियों के सशक्त प्रमाण हैं
आशीष सिंह ठाकुर, जिन्होंने दृष्टिबाधित दिव्यांगता को पीछे छोड़ सफलता की गाथा लिखी है। आशीष कहते हैं कि जीवन के घनघोर अंधेरे में भी यदि आत्मशक्ति जाग जाए तो इंसान मुश्किल से मुश्किल बाधा को पार कर सफलता के सोपान पर पहुंच जाता है। देश की सर्वाधिक कठिन प्रतियोगी परीक्षा माने जाने वाले संघ लोक सेवा आयोग यूपीएससी की परीक्षा उत्तीर्ण होकर भारतीय डाक सेवा (आईपीएस) के अधिकारी बने बिलासपुर के आशीष सिंह ठाकुर फिलहाल कर्नाटक के मैसूर जिले में डाक निदेशक के पद पर कार्यरत हैं। इससे पहले वे रायपुर में भी पोस्टेड थे। दृष्टि बाधित होने के बावजूद उन्होंने कभी भी हार नहीं मानी और काम सफलतापूर्वक कर रहे हैं।
आशीष बिलासपुर या रायपुर में यूपीएससी की तैयारी के लिए एक बेहतर कोचिंग सेंटर खोलने की इच्छा रखते हैं। जिसमें छात्रों को निशुल्क तैयारी कराई जाएगी और विकलांग और दृष्टिहीनों के लिए खास व्यवस्था होगी। नेत्रहीन आशीष सिंह ठाकुर ने अपनी कभी हार ना मानने की क्षमता और परिवार के लोगों के सहयोग की बदौलत न सिर्फ अपने लिये जिंदगी के मायने बदल दिए बल्कि समाज को भी प्रेरणा दी है। बाल्य अवस्था में ही नेत्रहीन हो चुके श्री ठाकुर की शिक्षा-दीक्षा सामान्य बच्चों की तरह सामान्य विद्यालय एवं महाविद्यालय में ही हुई है। इन्होंने ब्रेल लिपि का भी सहारा नहीं लिया और पाठ्यक्रम का ऑडियो रिकार्डिंग एवं स्वयं भी वर्ग में शिक्षकों से सुनकर अपनी पढ़ाई पूरी की है।
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कम्प्यूटर और एंड्रॉयड फोन पर काम करना आसान
हरिभूमि से बात करते हुए आशीष कहते हैं कि, कम्प्यूटर और एंड्रॉयड फोन पर काम करना दृष्टिबाधितों के लिए अब मुश्किल नहीं है। पठन-पाठन के लिए पहले से ही ब्रेल लिपि तो है ही। अब कम्प्यूटर और मोबाइल के लिए भी विभिन्न एप का उपयोग हो रहा है। कम्प्यूटर के लिए जास और मोबाइल के लिए टाक्स का उपयोग महत्वपूर्ण है। ब्रेल लिपि में की बोर्ड भी उपलब्ध है। इससे तकनीकी कामकाज आसान हुआ है।
दस वर्ष की अवस्था में चली गई नेत्र ज्योति
1987 में दस वर्ष की अवस्था में डॉ. आशीष बुखार से पीड़ति हुए और नेत्र ज्योति चली गई। शंकर नेत्रालय चेन्नई, एम्स नई दिल्ली और हैदराबाद में चिकित्सक ने इसे न्यूरो रेटीनोटाईटिस बताया। जीवन में अंधेरा छा गया। चिकित्सक बनने का ख्वाब टूट गया। मां-पिताजी, दादी और बड़े भाइयों ने प्रोत्साहित किया। नेपोलियन की तरह जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया और अपनी मंजिल तय की। दो बच्चों के पिता डॉ. आशीष की जीवनशैली के लोग भी कायल हैं।
शुरू से ही टापर रहे
वर्ष 1997 में बारहवीं की परीक्षा जीव विज्ञान विषय से एवं वर्ष 2000 में स्नातक कला की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। इसके बाद गुरु घासी दास केन्द्रीय विश्वविद्यालय, छत्तीसगढ़ से वर्ष 2002 में उन्होंने इतिहास विषय से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण कर गोल्ड मैडल प्राप्त किया। अपने विश्वविद्यालय के वे टॉपर बने। फिर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से जेआरएफ और एसआरएफ में सफलता प्राप्त की। इतना पढ़ने के बाद भी वे नहीं रुके। इसके बाद उन्होंने 'गांधीवाद और वामपंथ के अंतःक्रियात्मक संबंध' विषय पर पीएचडी की। उन्होंने नौकरी के लिए छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में भी सफलता प्राप्त की तथा वर्ष 2007 में उन्होंने छत्तीसगढ़ में सहायक आयुक्त वाणिज्य कर के रूप में दो वर्ष सेवा की। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनने का मौका भी मिला। 2009 में यूपीएससी परीक्षा में दिव्यांग श्रेणी में 435 वां स्थान प्राप्त किया।