कार्तिक शुक्ल एकादशी... दीपावली को बीते ग्यारहवां दिन हुए। श्री नारायण के योगनिद्रा से जागने का समय... त्रेतायुग के आरम्भ में दैत्यराज बलि अपने बल और वैभव की आत्म–मुग्धता और साथ ही महा दानवीर होने के दंभ ने बलि को अति उद्दंड बना दिया था। बलि अपनी प्रजा के लिए सर्वोत्तम राजा हुआ करते लेकिन स्वर्ग के देवताओं को बलि से भय था। प्रजा पालक दानवीर राजा को स्वर्ग पर भी विजय प्राप्त थी। देवता त्रस्त थे पर बलि के पुण्य उसे सामर्थ्यवान बनाए रखते। दुविधा की स्थिति थी।
उधर ऋषि कश्यप और अदिति के भाग्य जागे। इस भयंकर त्रास से मुक्त करने श्री नारायण ने अदिति पुत्र होकर स्वयं वामन रूप में अवतार लिया। भगवान श्री वामन ने बलि का समूचे दंभ और वैभव दो ही पगों में नाप लिया। पर तीसरे पग को रखने के लिए अपना शीश देते बलि की विनम्रता पर करुणसिंधु रीझ गए। बलि को पाताल लोक का राजा तो बनाया ही साथ ही आशीष वचन दिया कि वर्ष में चार माह भगवान बलि के साथ पाताल लोक में रहेंगे।
आषाढ़ शुक्ल की देवशयनी एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक जब श्री नारायण योग निद्रा में जाते हैं तब सूक्ष्म रूप में राजा बलि के साथ होते हैं। भक्त की सादगी पर ऐसी कृपा जागृत हुई कि, तब दिया हुआ एक वचन कृपसागर भगवान युगों–युगों से निभाते आ रहे हैं।
इसके साथ ही कार्तिक शुक्ल एकादशी का पुण्य पर्व... तुलसी शालिग्राम विवाह का उत्सव... प्रत्येक मन्वन्तर और कल्प में पतिव्रत धर्म महिमा का प्रत्यक्ष प्रमाण है। महादेव के क्रोध से जन्मा महादुष्ट असुर जलन्धर पर उसका एक पुण्य अचूक था कि उसे महादेव की भक्ति प्राप्त थी। महादेव की स्वयं–अमोघ भक्ति फलित हुई और जलंधर के जीवन में प्रवेश हुआ महासती वृंदा का। वृंदा स्वयं भी असुर कन्या थी। महालक्ष्मी ने जगत कल्याण के लिए असुर कुल में जन्म लिया था।
अपने पिता कालनेमी के घर वृंदा ने हर कुलक्षण और दुष्ट प्रवृत्ति देख रखी थी परन्तु वह अद्भुत कन्या श्री विष्णु की अनन्य भक्त थी। विवाह के बाद जलन्धर के लिए अपने एकनिष्ठ पतिव्रत धर्म की साक्षात् देवी तुल्य बन गई थी। उसके पतिव्रत का तेज जलन्धर का ऐसा रक्षा कवच बना कि, देवताओं के साथ हर युद्ध में जलन्धर अजेय होता। अंततः कोई उपाय न देख श्री नारायण स्वयं जलन्धर के रूप में वृंदा के घर जा पहुंचे। इधर वृंदा का पतिव्रत भंग हुआ उधर जलन्धर धराशाई। वृन्दा इतनी कुपित हुईं कि, उस पतिव्रत मूर्ति के सामने विष्णु को असली रूप में आना पड़ा। भयंकर पीड़ा युक्त रुंधे कण्ठ से वृन्दा ने कहा "नारायण, मैंने आपकी भक्ति सदैव पूर्ण समर्पण से की है... मुझसे ऐसा छल ? मेरे लिए आपके मन में इतना कालापन?? भक्त के लिए ऐसा निर्जीव पत्थर सा व्यवहार?? तो ठीक है यदि मैं मन, वचन और कर्म से पतिव्रता हूं, पति को मैंने सर्वस्व माना है तो मैं आप को कृष्ण–शिला हो जाने का श्राप देती हूं.. आप अचल हो जाएं" प्रखर सतीत्व का संचित पुण्य ऐसा कि, विष्णु भगवान को भी वृंदा के कोप का सामना करते हुए शिला हो जाना पड़ा।
वृंदा ने जलन्धर के साथ सती होने का मार्ग चुना। विष्णु शिला रूप में बंध गए और अचल हो चुके थे। स्वर्ग में हाहाकार... सब देवी–देवता हाथ जोड़ वृंदा के सामने याचक मुद्रा में... महालक्ष्मी जी ने वृंदा की स्तुति की... "हे पुण्य सलिला.. हे महासती.. पति वियोग की पीड़ा आपसे अधिक कौन समझ सकता है.. श्री विष्णु के बिना मेरी गति क्या होगी.. संसार के कल्याण के लिए उन्हें यह करना पड़ा.. क्षमा माता, क्षमा... मैं आंचल फैलाए आपसे अपने पति की मुक्ति मांगती हूं..." वृन्दा का क्रोध कुछ कम हुआ.. "मेरा श्राप विफल नहीं हो सकता... मैं श्री विष्णु को मुक्त करती हूं लेकिन वह इस शालिग्राम शिला में भी हमेशा प्रकट रहेंगे..." यह कह कर वृंदा ने लक्ष्मीनारायण को प्रणाम किया। सभी देव नतमस्तक थे।
श्री विष्णु ने प्रसन्न हो वरदान दिया... आज से मैं भोग तब तक ग्रहण नहीं करूंगा जब तक वृंदा साक्ष्य न हो। संसार में कार्तिक शुक्ल एकादशी को जो शालिग्राम और वृन्दा का विवाह संपन्न कराएंगे उनका दाम्पत्य लक्ष्मी–नारायण सा सफल होगा। वृंदा, जलन्धर सहित चिता पर सज्ज हुईं। सती होकर वह पुण्यात्मा महालक्ष्मी में जा मिलीं। चिता की राख से एक तुलसी का बिरवा जन्मा। इस तुलसी के पत्रदल युगों से नारायण के प्रसाद साक्षी हैं। तुलसी–शालिग्राम रूप में लक्ष्मी नारायण की विवाह विधियां सम्पन्न कराना संसार के सबसे अधिक सद्कर्मों में सम्मिलित है।
भक्तवत्सल जब भक्तों के कल्याण को तत्पर हों, तब भक्तों के मार्ग सुगम कर दिया करते हैं। संसार का सबसे बड़ा पुण्य – कन्यादान... परन्तु जिस दंपत्ति के आंगन में कन्या का जन्म नहीं हुआ उनके लिए कन्यादान को तुलसी विवाह सुलभ है। जहां पुत्र–पुत्री दोनों हैं उन घरों में भी तुलसी विवाह अपने सम्पूर्ण वैभव पर तुलसी ठाकुर जी के लिए एकादशी पर निर्जला व्रत रखतीं हैं। अतः अन्न जल अर्पण नहीं हो सकता। इसलिए एक दिन पहले, दशमी के दिन से जल स्नान, तेल–हल्दी, उबटन आदि के नेगचार शुरू हो जाता है। एकादशी पर माता तुलसी को अपनी कन्या सा दुल्हन के रूप में सजाया, संवारा जाता है और जमाता शालिग्राम जी की बारात का श्रद्धापूर्वक स्वागत किया जाता है। कन्या और वर के षोडशोपचार पूजन हुए... गन्ने और बंदनवारों से सजे मण्डप में हल्दी, सुहाग–सामग्री, नाना प्रकार के भोग अर्पित किए। मौसम की समस्त नई आवक जैसे अमृत फल आंवला, बेर, चने की भाजी, सिंघाड़ा, अमरूद ,बैंगन सब लाडली के मण्डप की शोभा हैं। घर आंगन दीपों से जगमग... यह मण्डप पांच दिन सजे रहेंगे... जिन घरों में श्रद्धापूर्वक यह उत्सव मने उनके सौभाग्य- सुख अखण्ड होंगे। देवताओं सहित साक्षात् श्री लक्ष्मीनारायण के ये आशीष हम सब के जीवन में फलित हों।
आकांक्षा प्रफुल्ल पाण्डेय