भिलाई - अतुल अग्रवाल। हम सालों से पढ़ते आ रहे हैं कि दिवाली कार्तिक माह की अमावस्या को मनाई जाती है, लेकिन छत्तीसगढ़ में एक ऐसा भी गांव है, जहां गांव की खुशहाली के लिए दीपावली 7 दिन पहले ही यानी अष्टमी और नवमी को ही मना ली जाती है। ये गांव दुर्ग, बालोद और धमतरी जिले की सीमा पर स्थित है। राजधानी रायपुर से करीब 55 किलोमीटर दूर इस गांव में दीपावली उत्सव को लेकर पहले से तैयारी हो चुकी थी और अब आज और कल लक्ष्मी पूजा और गोवर्धन पूजा होगी। इस गांव में आसपास के 50 गांवों के लोग दिवाली मनाने पहुंच रहे हैं। इस बार यहां आयोजन 24 से शुरू हुआ और 25 को भी चलेगा। गांव में रंगाई, पोताई का काम काफी पहले से चल रहा था। दिवाली की तैयारी घर-घर में नजर आई। गांव वाले बताते हैं कि यहां हर साल गांववाले नए कपड़े सिलवाते हैं, पूरे गांव को सजाया जाता है। 

ग्रामीण गांव में स्थापित इष्टदेव सिरदार देव के मंदिर के पास एकत्रित होते हैं। पूजा-अर्चना की जाती है। माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है। घरों में लाइटिंग की जाती है, पटाखे जलाए जाते हैं। अगले दिन गोवर्धन पूजन के साथ गांव के भ्रमण के लिए शोभायात्रा निकलती है। इस बार भी पूरे देश में दिवाली जहां 31 अक्टूबर और 1 नवंबर को मनाई जानी है। वहीं इस गांव में 24 से इसकी शुरुआत हो गई। 25 अक्टूबर को भी आयोजन होगा। यहां अलग-अलग सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। गांववालों ने अपने नाते-रिश्तेदारों को निमंत्रण भी भेज दिया था, वे भी गांव के इस दीपावली उत्सव में शामिल होने पहुंच गए हैं।

घर-घर बनती हैं मिठाइयां

पंच राधेश्याम देवांगन, सरपंच पति कामता निषाद बताते हैं कि,  उत्सव में आसपास के 50 से ज्यादा गांव के लोग दिवाली मनाने आते हैं। घर-घर मिठाइयां बनती हैं। त्योहार के दो दिन पहले से ही गांव के सभी लोग मंदिर के पास एकत्रित होने लगते हैं। हंसी-ठहाकों के बीच उत्सव को लेकर चर्चा शुरू हो जाती है। इस बार भी आयोजन की तैयारियों को लेकर पंचायत भवन में बैठक हुई थी। मंदिर की साज-सज्जा की गई। रंग-रोगन का काम समय पर किया गया। मंदिर के पास ही गोवर्धन पूजन की तैयारी की गई है।

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बरसों पुरानी कहानी प्रचलित उसका ही कर रहे पालन

ग्रामीण लक्ष्मीबाई विश्वकर्मा कि, हमारे पुरखों ने जो कहानी हमें बताई है, उसके मुताबिक बहुत पहले एक बाबा हमारे गांव के पास एक पेड़ के नीचे आकर बैठे। वे वहीं निवास करने लगे। यह क्षेत्र पहले जंगल था, यहां जंगली जानवर थे। उस समय एक शेर वहां आया, जिनका उन बाबा से युद्ध हुआ। शेर ने बाबा का सिर और धड़ अलग कर दिया। सिर हमारे गांव सेमरा में गिरा और धड़ पड़ोसी ग्राम बोरझरा में। इसके बाद बाबा हमारे गांव के पूर्वजों के सपने में आए। उन्होंने कहा कि गांव की सुख-समृद्धि बनी रहे, इसके लिए मेरे हिसाब से त्योहार मनाएं, जिस दिन दुनिया त्योहार मनाती है, उसके 7 दिन पहले त्योहार मनाएं। इसके बाद गांववारों ने बाबा सिरदार देव का मंदिर स्थापित किया। उन्हें इष्टदेव मानते हुए उनके बताए अनुसार दीपावली को सात दिन पहले मनाना शुरू कर दिया। 

परंपरा सैकड़ों साल पुरानी

ग्राम सेमरा सरपंच खिलेश्वरी निषाद ने बताया कि, हमारी यह परंपरा सैकड़ों साल पुरानी है। हमारे पुरखों ने हमारे बाप-दादा को बताया। हमने अपने बच्चों को बताया। इस तरह यह परंपरा चलती आ रही है। हमारा यह सबसे बड़ा त्योहार है। इष्टदेव की अराधना के साथ हम लक्ष्मी पूजा और अगले दिन गोवर्धन पूज का उत्सव मनाते हैं। इस बार 24 और 25 अक्टूबर को आयोजन किया गया है।

हमारे लिए यही मड़ई यही मेला, यही सब कुछ

सेमरा उपसरपंच यादराम देवांगन ने बताया कि, हमारे लिए यही मेला है, यही मड़ई है, यही सबसे बड़ा उत्सव है। यहां अष्टमी और नवमी के दिन दिवाली मनाई जाती है। इस दौरान घर-घर में दीए जलाए जाते हैं। पटाखे फोड़े जाते हैं। हमारे रिश्तेदार में दूर-दूर से इस आयोजन में शामिल होने आते हैं। इस बार 24 को कका-भतीजा नाचा पार्टी कोमाखान सरायपाली का आयोजन हुआ और 25 जहुरिया नाचा पार्टी बिलईगढ़ का सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होगा।