देश की राजधानी दिल्ली ने आजादी से पहले की यादें आज भी संजो रखी हैं। यहां कई ऐसी ऐतिहासिक इमारते हैं, जो कि ब्रिटिश काल की याद दिलाती हैं। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन की इमारत भी इन इमारतों में शामिल है, जिसका निर्माण अंग्रेजों ने करवाया था। माना जाता है कि अंग्रेजों ने व्यापार के लिए इस रेलवे स्टेशन का निर्माण किया था, लेकिन इसे पूरी तरह से सच नहीं माना जा सकता है।

इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो अंग्रेजों को डर था कि अगर ब्रिटिश शासन के खिलाफ कभी विरोध होता है, तो भारतीयों को एकजुट करने में यह रेलवे स्टेशन अहम भूमिका निभा सकता है। शायद यही वजह रही कि इस रेलवे स्टेशन को दिल्ली की बजाए मेरठ में बनाने का निर्णय लिया गया। लेकिन, दिल्ली के लोगों ने इसका व्यापक विरोध किया। इस विरोध के चलते ब्रिटिश शासन ने पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन को मंजूरी दे दी। तो आइये सिलसिलेवार दिल्ली इतिहास के पन्ने पलटकर जानते हैं इसकी रोचक कहानी....

कोलकाता से दिल्ली तक रेल लाइन बिछाने का उद्देश्य

सबसे पहले जानते हैं कि अंग्रेजों ने आखिरकार भारत में रेलवे लाइन को बिछाने का निर्णय क्यों लिया। दरअसल, अंग्रेज व्यापार के लिए भारत आए थे। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का सारा सामान कोलकाता बंदरगाह तक पहुंचता था। अंग्रेज इस सामान को देश के विभिन्न हिस्सों तक पहुंचाने के लिए रेलवे लाइन की जरूरत थी।

रोनाल्ड मैक डोनाल्ड स्टीफंस, जिन्हें ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी का जनक माना जाता है, उन्होंने 1854 में सबसे पहले कोलकाता को दिल्ली से वाया लाहौर तक रेलवे लाइन से जोड़ने का प्रस्ताव रखा था। लेकिन, ब्रिटिश अधिकारियों ने इस प्रस्ताव को मंजूरी देने की बजाए बदल दिया।

कोलकाता को मेरठ से जोड़ने की थी प्लानिंग

ब्रिटिश अधिकारियों ने दिल्ली की बजाए कोलकाता को मेरठ के रास्ते लाहौर को रेलवे लाइन से जोड़ने का प्रस्ताव पास कर दिया। जब दिल्ली के व्यापारियों को यह जानकारी मिली तो उन्होंने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। इस विरोध में आम लोग भी शामिल होने लगे। यह विरोध चलता रहा, लेकिन अंग्रेजों ने किसी की नहीं सुनी।

इसके बाद 1863 में एक कमेटी गठित की गई, जो कि इस प्रस्ताव पर उचित निर्णय ले। इस कमेटी में शामिल नारायण दास नागरवाला समेत अन्य सदस्यों ने आपत्ति जताई कि अगर रेलवे लाइन से दिल्ली को नहीं जोड़ा जाता तो स्थानीय व्यापारियों को खासा नुकसान होगा और ईस्ट इंडिया कंपनी को भी नुकसान पहुंचना तय है। इन दलीलों को सुनने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ कंट्रोल के प्रेजिडेंट चाल्र्स वुड ने कोलकाता से दिल्ली तक ट्रेन चलाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी।

1864 से शुरू हो गया दिल्ली रेलवे स्टेशन का काम

यह मंजूरी मिलते ही 1864 में दिल्ली रेलवे स्टेशन का निर्माण शुरू हो गया। वहीं, यमुना पर लोहे का पुल बांधने का कार्य जारी रहा। यमुना पर लोहे का पुल बनने के बाद 1 जनवरी 1867 को पहली ट्रेन दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंची। उस वक्त रेलवे स्टेशन को एक छोटे भवन से संचालित किया जाता रहा। करीब 30 साल बाद इस रेलवे स्टेशन का विस्तार करने की जरूरत समझी गई। ऐसे में 1893 में इसकी नई इमारत बनाने का काम शुरू किया गया। यह निर्माण कार्य 10 साल तक चला। मतलब एक छोटे भवन वाले स्टेशन की जगह कई प्लेटफार्म वाला स्टेशन बनने में 40 साल लगे।

दिल्ली में यमुना पर लोहे का पुल अंग्रेजों ने बनवाया।

दिल्ली रेलवे स्टेशन की जगह को लेकर भी रची गई साजिश 

इतिहास को देखें तो अंग्रेज पहले कोलकाता से दिल्ली तक रेलवे लाइन के विरोध में थे, वहीं मंजूरी देने के बाद भी साजिश से बाज नहीं आए। अंग्रेजों ने योजना बनाई कि दिल्ली रेलवे स्टेशन को लाल किले के पास ही बनाया जाए। दरअसल, 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम से अंग्रेज खासे भड़के थे। दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह जफर ने क्रांतिकारियों को खासा सहयोग दिया था।

ऐसे में अंग्रेजों ने ऐसा प्लान बनाया ताकि लाल किले के पास ही रेलवे स्टेशन बनाया जाए। इसके लिए लाल किले का एक हिस्सा भी तोड़ा गया। इसका खासा विरोध हुआ, लेकिन अंग्रेज नहीं माने। उन्होंने यहां के लोगों को क्रांतिकारी मानकर भड़ास निकाली और लोगों को आसपास के इलाकों में पलायन के लिए विवश कर दिया।

दिल्ली रेलवे स्टेशन बना स्वतंत्रता सेनानियों का सहयोगी 

अंग्रेजों ने भले ही अपने खिलाफ विरोध को कुचलने के लिए दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास अपनी बड़ी छावनी लगा ली। बावजूद इसके यह रेलवे स्टेशन हमेशा स्वतंत्रता सेनानियों के लिए सहयोगी बना रहा। सुभाष चंद्र बोस भी कोलकाता से दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचे थे और यहां से अज्ञात स्थान पर चले गए। महात्मा गांधी भी 15 अप्रैल 1915 को पहली बार ट्रेन से दिल्ली पहुंचे थे।

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इतिहासकार बताते हैं कि रेलवे ही ऐसा माध्यम था, जिस पर स्वतंत्रता सेनानियों को तेजी से एकजुट होने का विकल्प मिल गया था। अंग्रेज भले ही स्वतंत्रता सेनानियों को पकड़ने के लिए पूरी फौज लगा देते, लेकिन आजादी के मतवाले अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंककर आजादी की लड़ाई लड़ते रहे। यही नहीं, आजादी के बाद बंटवारे के दौरान भी दिल्ली रेलवे स्टेशन ने लोगों को उनके मुल्क तक पहुंचाने में मदद की। अगर कभी आपका दिल्ली के पुराने रेलवे स्टेशन पर जाना हो, तो इस कहानी को याद कर इस रेलवे स्टेशन के लिए बलिदान करने वालों को भी याद अवश्य कीजिएगा।