एनसीपी नेता बाबा सिद्धिकी की हत्या के बाद से लॉरेंस बिश्नोई का नाम चर्चा में चल रहा है। पाकिस्तान हो या फिर कनाडा, हर जगह लोग लॉरेंस बिश्नोई का नाम गुगल पर सर्च कर रहे हैं। ज्यादातर लोगों को लगता होगा कि लॉरेंस बिश्नोई की हिट लिस्ट में बॉलीवुड एक्टर सलमान खान सबसे ऊपर हैं, लेकिन इसे पूरी तरह से ठीक नहीं कहा जा सकता है। दरअसल, लॉरेंस बिश्नोई को खालिस्तानी आतंकियों से भी बेहद नफरत है। खालिस्तानियों ने न तो बिश्नोई समाज का अपमान किया और न ही सलमान खान जैसी हरकत की, लेकिन फिर भी लॉरेंस बिश्नोई खालिस्तानियों से बेहद रंजिश रखता है। जानिये इसके पीछे की कहानी...

लॉरेंस बिश्नोई का असली नाम सतविंदर सिंह

लारेंस बिश्नोई का जन्म 12 फरवरी 1993 को पंजाब के फाजिल्का जिले के गांव दुतारावली में हुआ। उसका नाम सतविंदर सिंह रखा गया। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो बचपन में सतविंदर का रंग फेयर था, इसलिए उसकी मां ने लॉरेंस नाम रख दिया। लेकिन, वीकीपीडिया की रिपोर्ट की मानें तो सतविंदर राणा ने अपनी युवावस्था के दौरान अपना नाम बदलकर लॉरेंस रख लिया था। वो ब्रिटिश प्रशासक हेनरी लॉरेंस से प्रभावित था। हेनरी लॉरेंस ईस्ट इंडिया कंपनी में वरिष्ठ पद पर थे, लेकिन उन्होंने शिक्षा से लेकर सड़कों तक कई जनहित कार्यों का समर्थन किया। यही नहीं, पंजाब में तैनाती के दौरान सतलुज नदी के पानी बंटवारे को लेकर ब्रिटिश पक्ष से चल रहे विवाद को भी सुलझाया। उनकी दुरदर्शिता देखकर सिख सरदार उनसे बेहद प्रभावित हो गए। यहां तक कि हर छोटा बड़ा विवाद निपटाने के लिए हेनरी लॉरेंस को बुलाना पड़ता था।

सिखों में फूट डालने की बजाए एकजुट रखा

अंग्रेजों ने सिखों में भी फूट डालने का प्रयास किया, लेकिन हेनरी लॉरेंस एकजुटता के पक्ष में रहे। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु जून 1839 में हुई थी, जिसके बाद फिर से सिखों से युद्ध की बात शुरू हो गई, लेकिन हेनरी लॉरेंस ने इसका भी समर्थन नहीं किया। उन्होंने सिख साम्राज्य का गहन अध्ययन किया और लोगों को इसके महत्व से अवगत कराया। उनको ब्रिटिश शासकों से ढेरों सम्मान मिले। 1857 को जब पहला स्वतंत्रता आंदोलन शुरू हुआ, तब लखनऊ की घेराबंदी में बुरी तरह घायल होने के चलते निधन हो गया। इसके बाद भी पंजाब के सिख सरदार हेनरी लॉरेंस को याद करते रहे।

लॉरेंस नाम ने बढ़ा दी खालिस्तानियों के खिलाफ

नफरत मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो भारत-पाकिस्तान का बंटवारा होने के बाद अलग खालिस्तान की मांग होने लगी। पंजाब का एक हिस्सा पहले ही पाकिस्तान में चला गया था, लिहाजा खालिस्तान की मांग को दबाने का प्रयास होने लगा। 1971 की जंग के बाद पाकिस्तानी जुल्फिकार अली भुट्टो ने खुलकर कहा था कि अगर खालिस्तान बनाना चाहते हैं, तो पाकिस्तान मदद करेगा। यह चिंगारी धीरे धीरे सुलगती चली गई, नतीजा यह हुआ कि 1984 का दशक उग्रवाद की चपेट में आने लगा।

भारत सरकार ने सेना की मदद से उग्रवाद पर काबू पा लिया, जिसके चलते धीरे-धीरे खालिस्तान की मांग ठंडे बस्ते में चली गई। इसके बाद गुरपतवंत सिंह पन्नू जैसे आतंकी सोच वाले लोगों ने फिर से खालिस्तानी मांग को तेज कर दिया। चूंकि हेनरी लॉरेंस बिश्नोई ने ब्रिटिश होने के बावजूद पंजाब की एकजुटता की बात की, वहीं पंजाब के कुछ लोग ही खालिस्तान नाम से अलग देश बनाने की मांग करने लगे। वर्तमान में गुरपतवंत सिंह पन्नू खालिस्तानियों का बड़ा चेहरा है। इससे आप समझ सकते हैं कि लॉरेंस बिश्नोई को खालिस्तानी आतंकियों से इतनी ज्यादा नफरत क्यों है। 

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