Bakrid Celebration 2024: देशभर में 17 जून को मुस्लिम समुदाय के लोग बकरीद का त्योहार बड़े ही धूमधाम से मनाने वाले हैं। इस त्योहार के मौके पर बकरे की कुर्बानी दी जाती है, लेकिन क्या आपको पता है हरियाणा में एक ऐसा जिला भी है] जहां पर कई सालों से इस कुर्बानी की परंपरा को खत्म कर दी गई।

बता दें कि झज्जर शहर और आसपास के गांवों में रहने वाले मुस्लिम इस त्योहार को तो मानते हैं लेकिन बकरे की कुर्बानी नहीं देते हैं, बल्कि खीर और सेवइयां बांटकर इस त्योहार का आनंद उठाते हैं। हर साल यहां पर मस्जिद के मौलवी ने खुद लोगों को हैसियत के हिसाब से पकवान बनाकर आपस में बांटने के लिए लोगों को प्रेरित करते हैं।

क्यों मनाया जाता है यह त्योहार

माना जाता है कि यह त्योहार इसलिए मनाया जाता है क्योंकि पैगंबर इब्राहिम की कुर्बानी को लोग याद करते हैं। इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार, पैगंबर इब्राहिम को नींद में आए एक सपने में अल्लाह ने अपने किसी सबसे प्रिय चीज को कुर्बान करने को कहा। इसके बाद पैगंबर इब्राहिम बहुत सोच में पड़ गए आखिर क्या कुर्बान किया जा सकता है।

बहुत सोचने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि वह अपने बेटे की कुर्बानी देंगे, लेकिन जब बेटे की कुर्बानी देने की बारी आई तो उनके पिता होने के मोह में वह परेशान होने लगे। इसलिए पैगंबर ने आंखों पर पट्टी बांधकर अपने बेटे की कुर्बानी दे दी।

हैरान करने वाली बात ये थी की जब उन्होंने अपनी आंखों से पट्टी हटाई तो देखा की उनका बेटा सही सलामत खड़ा है और बेटे की जगह पर किसी बकरे की कुर्बानी हो गई है। इसी घटना के बाद से मुस्लिम समुदाय में बकरा कुर्बान करने का चलन शुरू हो गया।

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क्यों नहीं दी जाती कुर्बानी

लोगों का मानना यह भी है कि अल्लाह उनसे उनसे उनके अंदर की बुराइयों की कुर्बानी मांगते हैं न कि किसी जीव की। इसलिए बकरीद के मौके पर झज्जर शहर की जहांआरा बाग वाली मस्जिद में मुस्लिम समुदाय के लोग इस त्योहार पर नमाज पढ़ते हैं, एक दूसरे को गले लगकर बधाइयां देते हैं। इसके बाद लोग एक दूसरे को खीर और सेवइयां बांटकर खुशी का इजहार किया।

यहां के मौलवियों का भी कहना है कि झज्जर में बकरे की कुर्बानी देने का रिवाज नहीं है। लोग पकवान तैयार करते हैं और इसे बांटकर खुशी मनाते हैं। ईदगाह में कहीं पर भी किसी भी तरह की कुर्बानी नहीं होती है। कहा जाता है कि इसका शुरुआत झज्जर के निकटवर्ती गांव तलाव निवासी अब्दुल गफ्फार के खानदान ने की थी और बहुत पहले से कुर्बानी देने की परंपरा खत्म कर दी गई। जिसके बाद से ही यहां पर किसी भी परिवार में बकरे की कुर्बानी नहीं दी जाती है।