World Book Day: अब से तीन दशक पहले सन् 1995 में पेरिस में यूनेस्को द्वारा हर वर्ष 23 अप्रैल ‘विश्व पुस्तक दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की गई। इसके पीछे का उद्देश्य ज्ञान-विज्ञान की संवाहक के रूप में पुस्तक की महत्ता के बारे में दुनिया को बताना था। अपने देश की बात करें, तो पिछली सदी में नवें दशक के पूर्वार्द्ध तक किताबें ज्ञान और मनोरंजन के क्षेत्र में अपना दखल रखती थीं। पुस्तकें हम सभी के जीवन में बहुत महत्व रखती थीं। लेकिन हाल के वर्षों में जो रीडरशिप सर्वे हुए, उससे यह तथ्य उभर कर सामने आया कि पुस्तकों के प्रति लोगों की रुचि निरंतर घटती जा रही है। बढ़ती साक्षरता दर के बीच कम होती अध्ययनशीलता, चौंकाने वाली सच्चाई है।
इसलिए बढ़ रही किताबों से दूरी
अध्ययनशीलता का विकास बचपन में ही होता है। लेकिन बाजारवाद के इस दौर में बचपन का अर्थ ‘शानदार करियर के लिए संघर्ष’ में सिमट गया है। इस वजह से बच्चों को विद्यालय, अभिभावक और ट्यूटरों के दबाव में अनचाहे उबाऊ पाठ्य पुस्तकों में रमना पड़ रहा है। यह स्थिति बच्चों में पुस्तकों के प्रति वितृष्णा पैदा कर देती है और वह स्वाभाविक पाठक नहीं बन पाते। यही वह ‘अल्फा पीढ़ी’ है, जो टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर और इंटरनेट की दीवानी हो रही है।
किताबों का सकारात्मक प्रभाव
वैसे इलेक्ट्रॉनिक/डिजिटल माध्यम की महत्ता से एकदम इंकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन इनकी एक सीमा है। यह विषय के बाहरी रूप से तो परिचित करा सकता है, लेकिन अंतरंग का दर्शन कराने में उतना ही कमजोर है। इसके विपरीत किताबें हैं, जिनकी पैनी निगाह से जीवन का कोई भी रंग या आयाम अदृश्य नहीं रह पाता है। मनोविज्ञानियों का स्पष्ट मत है कि पुस्तकें सिर्फ ज्ञान और मनोरंजन का ही साधन नहीं हैं, बल्कि यह दिमाग चुस्त-दुरुस्त रखने का श्रेष्ठ माध्यम हैं। यह व्यक्तित्व लचीला बनाती हैं और जीने के नए-नए तरीके सिखाती हैं।
दृश्य माध्यम की एक खामी यह भी है कि यह सोच और व्यवहार के सामूहिक पक्ष को खारिज करके व्यक्तिवादी पक्ष को प्रबलित करता है। नई पीढ़ी में सामाजिक मूल्यों के प्रति घटती आस्था और व्यक्तिगत हित के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति इसी की देन है।
दिख रहे दुष्प्रभाव
बच्चे, किशोर और युवा वर्ग पुस्तकों से दूर हुआ है तो इसके दुष्परिणाम भी खूब दिखने लगे हैं। किशोरों और युवाओं में हिंसा, आक्रोश, आक्रामकता, अवमानना, कामुकता जैसी प्रवृतियों की हैरतअंगेज स्तर पर वृद्धि हुई है। देश में विगत वर्षों में पुस्तक दिवस पर बुक स्टॉलों पर कुछ खास हलचल नहीं दिखती। फ्रेंडशिप-डे, वैलेंटाइन-डे जैसे मौकों पर युवावर्ग में जो उत्साह और खरीददारी दिखती है, उसका दशांश भी पुस्तक दिवस को समर्पित हो जाए तो क्या कहने!
फिर लौटें किताबों की ओर
पाठक और पठित सामग्री की एकात्मकता संस्कार निर्माण की नींव है। विद्वान विचारकों का अभिमत है कि जीवन में आस्था, विश्वास और मूल्यों की स्थापना की सशक्त स्रोत पुस्तकें ही हैं और यही रहेंगी। इसका विकल्प कोई अन्य माध्यम नहीं बन सकता। प्राचीन विचारकों ने तो यहां तक कहा है कि पुस्तक जहां रखी होती है, वह स्थान विचारों, सिद्धांतों और अवधारणाओं का संगम होता है। हमारी दिमागी क्षमता के लिए पुस्तकें प्रोटीन जैसा काम करती हैं। संभवत: इसीलिए कहा गया है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं।
इस दृष्टि से हमारी दिनचर्या में किताबों की वापसी हमारी प्राथमिकता बननी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सूचना क्रांति के इस दौर और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की चकाचौंध के बीच भी शब्दों की महत्ता न घटी है और न घटेगी। क्योंकि शब्द ही हैं, जो हमें जहां हम हैं, उससे आगे निकलने की राह दिखाते हैं। शब्दों की इसी महत्ता को रेखांकित करके किताबों को पुन: जनाधार देने का उपक्रम है, ‘विश्व पुस्तक दिवस।’ मगर इस उद्घोषणा का महत्व तभी होगा, जब देश के पुस्तक बाजार में इसको लेकर सकारात्मक प्रतिक्रिया दिखेगी।
बच्चे और किशोर भी होंगे प्रेरित
पुस्तकों के प्रति घटती जनरुचि के संदर्भ में अकसर उसकी कीमत को दोष दिया जाता है। लेकिन तीन-चार हजार का जूता खरीदने या दोस्तों के साथ फास्ट फूड पार्टी में हजारों रुपए खर्च करने वालों को चार-पांच सौ रुपए की किताबें क्यों महंगी लगती हैं, यह समझ से परे की बात है। वास्तव में मामला महंगाई का नहीं, प्राथमिकता का है। हम महंगे उपहार देते हैं, उसमें एक-दो पुस्तकें क्यों नहीं शामिल की जा सकती हैं? यह महत्वपूर्ण आयोजन तब तक अर्थहीन है, जब तक हम पुस्तकों की तरफ नहीं लौटेंगे। अगर हम संकल्प लें कि रोज कुछ न कुछ पढ़ना है तो इससे बच्चे और किशोर भी प्रेरित होंगे। एक बार यह सिलसिला चल निकलने की देर है, फिर किताबें अपना पुराना मुकाम प्राप्त कर लेंगी।
ऐसे पड़ी पुस्तक दिवस की नींव
पश्चिमी देशों में पुस्तकें पढ़ने का चलन पिछली सदी में काफी पहले से कम होने लगा था। वहां नवें दशक तक आते-आते युवा वर्ग के व्यवहार में कई तरह के नकारात्मक परिवर्तन दिखने लगे थे। शिक्षाविदों और समाजशास्त्रियों के दबाव में कई सर्वेक्षण हुए, जिससे पता चला कि नई पीढ़ी में किताब पढ़ने की आदत एकदम कम हो गई थी। ज्ञान और मनोरंजन के क्षेत्र में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बढ़त बना चुके थे। इसलिए उनके व्यावहारिक जीवन में संवेदना, आत्मनियंत्रण और धैर्य का स्तर काफी कम हो गया था। सर्वेक्षणों से यह निष्कर्ष भी निकला कि जो किशोर साहित्य नहीं पढ़ते, कंप्यूटर खेलों और छोटे पर्दे के साथ अपना समय निकाल देते हैं, वे संवेदना, सौंदर्यबोध और कल्पना के मामले में कमजोर हो जाते हैं।
एक तरफ युवा वर्ग में मूल्यों का संकट बढ़ रहा था तो दूसरी ओर पुस्तकों के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडरा रहे थे। इस बात से चिंतित स्पेन की सरकार ने किताबों के पक्ष में सकारात्मक माहौल बनाने की दृष्टि से ‘यूनेस्को’ को एक प्रस्ताव भेजा। इसके पूर्व ‘अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक संघ’ भी पुस्तकों के घटते जनाधार को संभालने के लिए यूनेस्को को आगे लाने का प्रयास कर चुका था। परिणामस्वरूप विचार-विमर्श के बाद विलियम शेक्सपियर और स्पेन के लोकप्रिय लेखक मीगुयेल डी सर्वेंटाइन की पुण्यतिथि 23 अप्रैल को प्रतिवर्ष ‘विश्व पुस्तक दिवस’ के रूप में मनाने का फैसला लिया गया।