World Diabetes Day: डायबिटीज एक ऐसा रोग है, जो पूरी दुनिया में लोगों को बहुत तेजी से अपनी गिरफ्त में ले रहा है। अपने देश में भी करोड़ों लोग इससे ग्रस्त है और करोड़ों इसके हाई रिस्क पर हैं। लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए 14 नवंबर को वर्ल्ड डायबिटीज डे मनाया जाता है। इस रोग का कोई ट्रीटमेंट नहीं है लेकिन अपनी लाइफस्टाइल और डाइट में सावधानी बरतकर इससे बचाव किया जा सकता है। इस बारे में विस्तार से जानिए।
डायबिटीज मिलिट्स, जिसे साधारण भाषा में मधुमेह कहा जाता है, एक मेटाबॉलिक रोग है। इसमें पैनक्रिएज ग्लैंड के पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन हार्मोन ना बनाने या निर्मित इंसुलिन के प्रति शरीर की कोशिकाओं के सही प्रतिक्रिया ना करने की वजह से हमारे शरीर में उच्च रक्त शर्करा हो जाती है। हाई शुगर लेवल की वजह से पॉलीयूरिया (बार-बार पेशाब आने), पॉलीडिप्सिया (अत्यधिक प्यास लगने) और पॉलीफागिया यानी भूख बढ़ने जैसी समस्याएं हो जाती हैं।
रोग की गंभीरता को समझें
डायबिटीज ऐसा रोग है, जो बिना कोई लक्षण दिखाए शरीर में अंदर ही अंदर फैलता रहता है। धीमे जहर के रूप में भी पहचाने जाने वाले इस रोग पर समय रहते नियंत्रण ना किया जाए तो यह कई अन्य बीमारियों का कारण बन जाता है। डायबिटीज के घातक होने के बारे में कोई संशय नहीं है। सावधानी ना बरतने पर यह हृदय रोग की वजह बन सकता है, किडनी क्षतिग्रस्त कर सकता है। चिंताजनक बात यह है कि भारत, विश्व में डायबिटीज की राजधानी बनता जा रहा है और 2025 तक यहां 5 से 7 करोड़ डायबिटीज के रोगी होने की आशंका है।
पहले इसे संपन्न लोगों का रोग माना जाता था, लेकिन अब यह समाज के हर तबके को प्रभावित कर रहा है। एक बार डायबिटीज रोग किसी को हो जाए तो वह जीवन भर साथ नहीं छोड़ता। ऐसे में उस पर नजर रखनी जरूरी है और अगर रोग हो जाए तो उसे कंट्रोल में रखा जा सकता है। ग्लूकोमीटर के उपयोग से घर में ही और एक मिनट में ब्लड में शुगर लेवल का पता लगाया जा सकता है।
डायबिटीज के प्रकार
डायबिटीज के सबसे आम प्रकार हैं टाइप-1, टाइप-2 और प्रेग्नेंसी डायबिटीज।
टाइप-1 डायबिटीज
यदि किसी को टाइप-1 डायबिटीज है, तो उस इंसान का शरीर बहुत कम या बिल्कुल भी इंसुलिन नहीं बनाता है। शरीर का इम्यूनिटी सिस्टम, पैनक्रिएज ग्लैंड में इंसुलिन बनाने वाली कोशिकाओं पर हमला करती है और उन्हें नष्ट कर देती है। टाइप-1 डायबिटीज का निदान आमतौर पर बच्चों और युवा वयस्कों में किया जाता है। हालांकि यह किसी भी उम्र में हो सकता है। टाइप-1 डायबिटीज वाले लोगों को प्राय: हर दिन इंसुलिन लेने की आवश्यकता होती है।
टाइप-2 डायबिटीज
अगर किसी व्यक्ति को टाइप-2 डायबिटीज है, तो उसके शरीर की कोशिकाएं इंसुलिन का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं। पैनक्रिएज ग्लैंड, इंसुलिन तो बना रहा होता है, लेकिन शरीर के ब्लड शुगर के स्तर को सामान्य सीमा में रखने के लिए पर्याप्त इंसुलिन नहीं बना पाता। ओवर वेटेड और हैवी बॉडी वाले लोगों के अलावा उन लोगों को भी ठाइप-2 डायबिटीज होने की संभावना अधिक होती है, जिनमें डायबिटीज बीमारी होने का पारिवारिक इतिहास रहता है। टाइप-2 डायबिटीज किसी भी उम्र में, सहां तक कि बचपन में भी हो सकता है। वजन कम करके या वजन को बढ़ने से रोककर डायबिटीज-2 के खतरे को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
जेस्टेशनल डायबिटीज
महिलाओं में गर्भावस्था में होने वाले डायबिटीज की प्रसव के बाद खत्म होने की संभावना ज्यादा रहती है लेकिन पचास फीसदी महिलाएं, जीवन भर के लिए डायबिटीज से पीड़ित हो सकती हैं। इसलिए डॉक्टर अब गर्भवती महिलाओं की ब्लड ग्लूकोज की जांच नियम से करवाने लगे हैं। डॉक्टर्स, महिलाओं में होने वाली इस डायबिटीज के लिए पश्चिमी जीवनशैली को जिम्मेदार मानते हैं। उन औरतों में, जो मोटापे की शिकार हैं या लगातार डेस्क जॉब में हैं या वे महिलाएं जो 30 साल की उम्र के बाद गर्भवती होती हैं, उनमें जेस्टेशनल डायबिटीज का खतरा ज्यादा होता है।
ज्यादातर महिलाएं गर्भावस्था के दौरान अपना ब्लड ग्लूकोज टेस्ट करवाना पसंद नहीं करतीं या फिर शायद वे इस बात से डरती हैं कि कहीं उन्हें ब्लड शुगर तो नहीं है। जेस्टेशनल डायबिटीज से पीड़ित गर्भवती स्त्री के होने वाले बच्चे की सेहत का खतरा हमेशा बना रहता है। बच्चे का वजन ज्यादा हो सकता है। इससे सामान्य प्रसव में उसकी हड्डियों को नुकसान पहुंच सकता है। इसलिए ऐसे मामले में डिलीवरी के लिए सर्जरी का सहारा लिया जाता है। मां के खून में जरूरत से ज्यादा ग्लूकोज बच्चे के शरीर में मौजूद छोटे से अग्न्याशय को ज्यादा इंसुलिन बनाने के लिए प्रेरित करता है।
डिलीवरी के बाद भी बच्चे के शरीर में यह प्रक्रिया जारी रहती है। शरीर में जरूरत से ज्यादा इंसुलिन बच्चे के न्यूरोलॉजिकल विकास को प्रभावित करता है। गर्भवती स्त्री में अगर इस प्रकार के डायबिटीज का पता चलता है तो इसका उपचार गर्भावस्था के दौरान ही किया जा सकता है। गर्भावस्था के दौरान होने वाले खतरे को भी उपचार से कम किया जा सकता हैं। डॉक्टरों की राय में सही डाइट और वॉकिंग इस डायबिटीज का बेहतर इलाज है। इसके बावजूद अगर ग्लूकोज का स्तर नीचे नहीं आता, तो मरीज को इंसुलिन का हल्का डोज प्रतिदिन देना पड़ता है। जेस्टेशनल डायबिटीज उन महिलाओं में ज्यादा होता है, जो 30 साल के बाद मां बनती हैं। ऐसी स्थिति तब बनती है, अगर महिला के परिवार में किसी को यह बीमारी हो या फिर महिला मोटापे की शिकार हो।
अगर जेस्टेशनल डायबिटीज के लक्षणों की बात करें तो इसके कोई भी लक्षण नजर नहीं आते, जैसे आम डायबिटीज के मरीजों में पाया जाता हैं। जेस्टेशनल डायबिटीज से गर्भवती महिला के होने वाले बच्चे पर बुरा असर पड़ सकता है। जैसे बच्चे का आकार बड़ा होना या वजन बहुत ज्यादा होना। डिलीवरी के समय ब्लड शुगर कम होना, जिसे नियोनैटल हाइपोग्लाइसीमिया कहते हैं, के कारण नवजात शिशु को पीलिया होने का खतरा बना रहता है। नवजात शिशु में सांस से संबंधित समस्या भी हो सकती है। गर्भावस्था के दौरान अकसर डॉक्टर ज्यादा दवाइयों से परहेज रखते हैं, लेकिन डिलीवरी के दौरान किसी भी जटिल समस्या से बचने के लिए ब्लड ग्लूकोज स्तर को कंट्रोल रखना बहुत जरूरी है।
डायबिटीज के साइड इफेक्ट्स
इंसुलिन का काम ग्लूकोज की नियंत्रित मात्रा को शरीर के विभिन्न हिस्से में भेजने का होता है। डायबिटीज में इंसुलिन की मात्रा कम होने पर ग्लूकोज अनियंत्रित होकर हृदय, किडनी और आंखों में जमा हो जाता है, जिससे ये अंग भी खराब होना शुरू हो जाते हैं। ध्यान न देने पर व्यक्ति अंधा हो सकता है, किडनी फेल हो सकती है।
बचाव के उपाय
- डाइट का विशेष ध्यान रखें। उसमें 60-70 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट,15-20 प्रतिशत प्रोटीन और 10-15 प्रतिशत सैचुरेटेड फैट की मात्रा जरूर होनी चाहिए।
- खाने में घी-तेल, नमक और चीनी को सीमित मात्रा में इस्तेमाल करें। यथासंभव रिफाइंड, फास्ट फूड, जंक फूड अवॉयड करें।
- रोजाना ताजे और मौसमी फलों का सेवन जरूर करें। आम, लीची, चीकू जैसे हाई शुगर रिच फलों के बजाय सेब, संतरा, अनार, अमरूद, पपीता, केला आसानी से ले सकते हैं।
- रोजाना कम से कम 30 मिनट व्यायाम या मनपसंद एक्ससाइज जरूर करें।
- हेल्दी लाइफस्टाइल अपनाएं और रात को कम से कम 6 घंटे की नींद जरूर लें।
- 40 वर्ष की उम्र के बाद या फैमिली में डायबिटीज की हिस्ट्री है, तो समय-समय पर ब्लड ग्लूकोज की मॉनिटरिंग करवाएं।
डायबिटिक पेशेंट्स के लिए जरूरी टेस्ट
खाली पेट और खाने के बाद खून की जांच से स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि डायबिटीज है या नहीं। डायबिटीज के रोगी का ब्लड ग्लूकोज लेवल फास्टिंग 70-110 मिलीग्राम प्रति डीएल ओर खाना खाने के दो घंटे बाद 100-140 मिलीग्राम प्रति डीएल बना रहना चाहिए। डायबिटीज हो तो डॉक्टर किडनी की कंडीशन चेक करने के लिए पेशेंट के ब्लड में यूरिया, क्रिएटिनिन और यूरीन में माइक्रोएलब्यूमिन की जांच कराते हैं। डायबिटीज का असर आंखों पर जांचने के लिए आंखों की जांच की जाती है। हृदय के लिए लिपिड प्रोफाइल, ईसीजी और छाती का एक्सरे कराया जाता है।
(Disclaimer: इस आर्टिकल में दी गई सामग्री सिर्फ जानकारी के लिए है। हरिभूमि इनकी पुष्टि नहीं करता है। किसी भी सलाह या सुझाव को अमल में लेने से पहले संबंधित विशेषज्ञ, डॉक्टर से परामर्श जरूर लें।)