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World Sparrow Day: दुनियाभर में 26 प्रजाति की गौरैया उपलब्ध हैं। 5 प्रजातियां भारत में भी हैं। तेजी से बढ़ते शहरीकरण और पेड़-पौधों की घटती संख्या में चलते गौरैया की संख्या में 60 फीसदी तक कमी आई है। बर्डप्रेमी इसे लेकर चिंतित हैं। भोपाल में स्कूली बच्चे गौरैया संरक्षण की दिशा में बेहतर कार्य कर रहे हैं।

World Sparrow Day: विश्व गौरैया दिवस की शुरुआत विलुप्त होती गौरैया के संरक्षण के लिए भारत की नेचर फॉरएवर सोसाइटी और फ्रांस के इको-सिस एक्शन फाउंडेशन ने की थी। इसका उद्देश्य गौरैया के प्रति लोगों में जागरूकता लाकर उन्हें संरक्षित करना है। नेचर फॉरएवर सोसाइटी ने इसके वेबसाइट भी बनाई है। जिसमें गौरैया से संबंधित बड़ा डेटा बैंक उपलब्ध है। 

रॉयल सोसाइटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड की 2020 में जारी सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 40 साल में गौरैया की संख्या 60% तक घटी है। रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया कि दुनियाभर में गौरैया की 26 प्रजातियां उपलब्ध हैं। इनमें से भारत में 5 प्रजाति की गौरैया ही देखने को मिलती हैं। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के ऑनलाइन सर्वे में पता चला कि बेंगलुरू और चेन्नई जैसे महानगरों में गौरैया नजर ही नहीं आतीं। जबकि, मुंबई-भोपाल में थोड़ी-बहुत संख्या में यह  उपलब्ध हैं। 

गौरैया की खासियत 

  • गौरैया मुख्य रूप से यूरोप और एशिया में पाई जाती हैं। इसकी लंबाई 16 सेमी और बजन 24 से 39.5 ग्राम होता है। 
  • मादा गौरैया के हल्के भूरे यानी धूसर रंग के होते हैं। जबकि नर गौरैया के पंख काले सफेद और भूरे रंग के चमकीले होते हैं। 
  • गौरैया की औसत आयु 5 से 10  साल होती है। गौरैया हमेशा झुंड में रहती है। भोजन में अनाज के दाने, घास फूस और कीड़े मकोड़े चुनती हैं। 
  • गौरैया साल में दो से तीन बार बच्चे पैदा करती हैं। इनके अंडे महज 11 दिन में सेते हैं और चूजे दो हफ्ते बाद घोसला छोड़ देते हैं। 
  • 2015 की गणना के अनुसार, लखनऊ में 5692 और पंजाब में 775 गौरैया मिली थीं। 2017 में तिरुवनंतपुरम में सिर्फ 29 गौरैया नजर आईं। 
  • ऑल अबाउट बर्ड के अनुसार, 1851 में गौरैया को पहली बार न्यूयॉर्क के ब्रुकलिन शहर में देखा गया था। 

भोपाल में 200 से इको फ्रेंडली स्पैरो हाउसेस
भोपाल में महात्मा गांधी उच्चतर माध्यमिक सीएम राइज स्कूल के स्टूडेंट गौरैया संरक्षण की दिशा में बेहतर कार्य कर रहे हैं। बायलॉजी टीचर डॉ अर्चना शुक्ला के मार्गदर्शन में 200 से ज्यादा इको फ्रेंडली स्पैरो हाउसेस बनाकर कॉलोनियों में स्टॉल करा रहे है। डॉ शुक्ला ने बताया, मार्च-अप्रैल और सितंबर-अक्टूबर गौरैया के ब्रीडिंग का सीजन होता है। इससे पहले यह नेक्स्ट हाउसेस स्टॉल करा लिए जाएंगे। 
 

11वीं कक्षा के विंध्या सिंह, सिद्धी शर्मा, मानसी पटेल, निक्की रत्नाकर, अनिरुद्ध केवट, मनश्वी सिसोदिया, स्नेहा यादव और अमृता यादव 50 स्टूडेंट्स की टीम के साथ  स्पैरो हाउस प्रोजेक्ट का कार्य कर रहे हैं। प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर हेमंत कुमार दुबे और प्राचार्य हेमलता परिहार का भी अहम सहयोग है। 

इंसान के इसलिए जरूरी हैं गौरैया  

  • शिक्षिका अर्चना शुक्ला ने बताया कि प्रोजेक्ट बेस्ड लर्निंग के तहत विद्यार्थियों ने स्पैरो कन्वर्जेशन की पहल शुरू की है। इस प्रोजेक्ट की शुरुआत 4 साल पहले 11वीं के बच्चों ने की थी। इस दौरान आईं समस्याओं को देखते हुए जरूरी बदलाव किए गए। जिसके बाद एक स्पैरो हाउस का परफेक्ट तैयार किया है। स्पैरो हाउस का यह मॉडल 80 फीसदी सफल है।  
  • डॉ अर्चना शुक्ला ने बताया कि गौरैया और मानव 5000 साल पुराना रिश्ता है। छप्पर वाले घरों में दोनों साथ-साथ रहते थे, लेकिन समय के साथ सब कुछ बदल गया है। अब न छप्पर वाले घर बनते न मानव आश्रित पक्षियों के लिए जगह रहती। यही कारण है कि मुंबई और बेंगुलूरू जैसे महानगरों में गौरैया विलुप्त प्राय हो चुकी हैं। भोपाल में में इनकी संख्या लगातार घट रही है। कुछ पर्यावरणप्रेमी छत, बालकनी और बगीचे में दाना-पानी रखते हैं, लेकिन घोसलों के लिए जगह न होने से गौरैया वहां कम ही आती हैं। 
  • डॉ अर्चना ने बताया कि गौरैया पर्यावरण संतुलन और मानव के बेहतर स्वास्थ्य के लिए जरूरी हैं। इनके चूजे जब अंडे से निकलते हैं तो हाई प्रोटीन जरूरी होता है। गारैया इसकी पूर्ति घर के बगीचे और नालियों में मिलने वाले वाले लार्वा से करती हैं। यह वही लार्वा है, जिसमें उपलब्ध खतरनाक बैक्टीरिया और वायरस गंभीर बीमारियां फैलाता है। गौरैया अपने आसपास के कीड़े मकोड़ी खा जाती हैं, इसलिए इंसेंटिसाइड, पेस्टिसाइड्स की जरूरत नहीं पड़ती।  
  • गौरैया आसपास के माहौल को सकारात्मक ऊर्जा से भर देती हैं। यही कारण है कि छोटे बच्चे और बड़े-बुजुर्ग इनसे भावनात्मक लगाव रखते हैं। बच्चों की ग्रोथ में साइकोलॉजिकल इंपैक्ट पड़ता है। वह इन चिड़ियों को आते-जाते और घोंसले बनाते देखते हैं तो कहीं न कहीं पर्यावरण से जुड़ते हैं तथा उनकी संरक्षण की दिशा में सोचते हैं।
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