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Opinion: हिंदुत्ववादी राजनीति के वैचारिक आधार का केंद्र हिंदू समाज के समन्वय और उसकी एकता है, जबकि मंडलवादी राजनीति के मूल में जातिवादी सोच को परोक्ष बढ़ावा है।

Opinion: केंद्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के उभार के बाद लगने लगा था कि राजनीति से मंडलवादी राजनीति की विदाई हो गई, लेकिन जिस तरह से विपक्षी दलों ने जाति जनगणना को लेकर आक्रामक रवैया अख्तियार कर रखा है, उससे लगता है कि हिंदुत्ववादी राजनीति को किनारे करते हुए पिछड़ावादी या यूं कहें कि मंडलवादी राजनीति उभर सही है।

जाति और जातीय संबंध एक संवेदनशील मुदा
हिंदुत्ववादी राजनीति के वैचारिक आधार का केंद्र हिंदू समाज के समन्वय और उसकी एकता है, जबकि मंडलवादी राजनीति के मूल में जातिवादी सोच को परोक्ष बढ़ावा है। मंडलवादी राजनीति समता व सामाजिक न्याय का तार्किक आधार चना कर यह जताने की कोशिश करती है कि सामाजिक बिखराव उसका लक्ष्य नहीं है। इस पूरी राजनीति को नई बहस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को केरल के पलक्कड़ में तीन दिनों तक चली बैठक के बाद आए संघ के विचार से बल मिला है। तीन दिनों तक चली बैठक के बाद संघ ने कहा है, 'हिंदू समाज में जाति और जातीय संबंध एक संवेदनशील मुदा है।

ये हमारी राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा है। इसे बहुत गंभीरता से निपटाना चाहिए न कि केवल चुनाव या राजनीति के लिए।' माना जा रहा है कि संघ के इस बयान ने केंद्रीय सत्ता की धुरी भारतीय जनता पार्टी को धर्मसंकट से बचा लिया है। भाजपा की राजनीति अब रक्षात्मक पिछले आम चुनाव में बहुमत से दूर हो जाने के बाद से भाजपा की राजनीति थोड़ी रक्षात्मक जरूर प्रतीत हो रही है, लेकिन वह उसक के साथ विकास के मुद्दों पर आगे भी बढ़ रही है। हालांकि अब उसकी राजनीति वैसी आक्रामक नहीं दिखती, जैसी 2014 और 2019 के आम चुनावों के बाद दिखती थी। पूर्ण बहुमत ने भाजपा को ऐसा आत्मविश्वास दिया, जिसकी बजह से वह अपने कोर मुद्रों को धड़ाधड़ हल करती चली गई।

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भाजपा के पास अपना खुद का बहुमत
हिंदुत्ववादी राजनीति के केंद्र में जातिवाद नहीं है, बल्कि बह समूचे हिंदू समाज को एक मानकर चलती है और अपनी राजनीति को बढ़ाती रही है। चूंकि भाजपा के पास अपना खुद का बहुमत इन दिनों नहीं है. इसलिए वह जति जनगणना न कराने के अपने पुराने स्टैंड पर खुलकर कायम नहीं दिख रही, बल्कि विपक्ष के आक्रामक दबाव में वह पसोपेश में दिख रही है। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि संघ व के बयान के बाद भाजपा को इस दुविधा से निकलने में मदद मिल सकती है। जैसे पाटी को हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र के चुनावों में मनमाफिक नतीजे मिले तो उसका आत्मविश्वास वह सकता है। फिर वह अपने पुराने रुख को लेकर खुलकर सामने आ सकती है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह दबाव में आ सकती है।

मंडलवादी राजनीति का उभार जातिवादी राजनीति, जिसे अतीत में मंडलवाई राजनीति ने के नाम से जाना जाता रहा है, वह उस समाजवादी नारे को हकीकत वनाने की कोशिश कही जा सकती है, जिसे लोहिया पिछली सदी के साठ के दशक में दिया था। भारतीय राजनीति के चिर विद्रोही लोहिया ने नारा दिया था, 'संसोषा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ। इसके जरिए पिछड़ी जातियों को राजनीतिक और सामाजिक उत्थान की वकालत समाजवादी आंदोलन करता था। दिलचस्प का है कि इस राजनीति को बल सात अगस्त 1990 के दिन तब मिला, जब समाजवादों कंधे पर सवार कांग्रेसी पृष्ठभूमि के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लागू किया। इस रिपोर्ट ने भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी। इसके बाद ही देश में पिछड़ावादी राजनीति को उभार मिला।

हिंदुत्ववादी राजनीति का उदय
इसी के जवाब में उन्हीं दिनों समूचे हिंदू समाज को एक रखने की वैचारिक सोच की बुनियाद पर हिंदुत्ववादी राजनीति का उभार हुआ। जिसे मंडलवाद की तुकबंदी में कमंडलवादी बताया गया। लेकिन कमंडलवाद महज तुकबंदी का विस्तार नहीं रहा, बल्कि इसमें हिंदुत्ववादी राजनीति को लेकर किंचित व्यंग्य और कुछ उपहास भी था। इसी हिंदुत्ववादी राजनीति की उपज नरेंद्र मोदी हैं। फिर वे उस पिछड़े समुदाय से आते हैं, जिनके उत्थान के दावे मंडलवादी राजनीति करती है। पिछड़े को पृष्ठभूमि और हिंदुत्व को वैचारिक पृष्ठभूमि वाली शख्सियत नरेंद्र मोदी के उभार के बाद कराव दस क्यों तक जाति केंद्रित राजनीति किनारे रही। लगता था कि वह अब खत्म हो जाएगी। लेकिन जति जनगणना के सवाल के साथ यह राजनीति इन दिनों केंद्र में आ चुकी है।

इसे बल मिला 2022 में बिहार से, जब राष्ट्रीय जनता दल के सहयोग से सरकार चला रहे नीतीश कुमार ने बिहार में जाति जनगणना कराकर उसकी रिपोर्ट प्रकाशित कर दी। तब से केंद्रीय स्तर पर पूरे देश में जाति जनगणना कराने को लेकर राहुल गांधी की अगुआई में समूचा विपक्ष लगा हुआ है। कर्नाटक भी ऐसी जाति जनगणना करा चुका है, लेकिन उसे न तो लागू किया है और न ही उसे प्रकाशित किया है। दिलचस्प यह है कि कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए शासन काल में जाति जनगणना को बहाने से कराया गया, लेकिन उसकी रिपोर्ट प्रकाशित भी नहीं की गई। पिछड़ों के उत्थान के लिए 1953 में गठित काका कालेलकर आयोग की जानकारी राजनीतिक हलके में है।

सामाजिक, आर्थिक और  जाति गणना 
मंडल रिपोर्ट तो बच्चे-बच्चे की जुबान पर है, लेकिन 2011 की जनगणना में लालू यादव के दयाय पर जाति के स्तंभ शामिल करने की जानकारी ज्यादा लोगों को नहीं है। लोगों को यह भी याद नहीं है कि सहयोगी दलों के दबाव में मनमोहन सरकार ने 2011 में प्रणव मुखर्जी की अगुआई में जाति जनगणना को लेकर एक समिति बनाई थी, जिसने जाति जनगणना के पक्ष में सुझाव भी दिया था। उसकी सिफारिश के आधार पर 'सामाजिक, आर्थिक और जाति गणना' नाम से जनगणना कराई भी गई। इसमें जिलों को आधार बनाकर जिलेवार पिछड़ी जातियों की गिनती की गई। इसके आंकड़े सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को दिए गए। उसके वर्गीकरण के लिए नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के अधीन विशेषज्ञ समूह बनाया गया। उसके अध्ययन नतीजे मनमोहन सरकार ने जारी नहीं किए।

आरक्षण ने जातिवाद खत्म नहीं किया
सवाल यह है कि राहुल गांधी ने उस रिपोर्ट को जारी क्यों नहीं कराया? जाति भारतीय समाज में बेहद संवेदनशील मुद्दा है। मंडलवाद के उभार के बाद पिछड़ी जातियों का उत्थान बेशक हुआ, लेकिन यह भी सच है कि उसमें भी कुछ ताकतवर जातियों को ही ज्यादा फायदा हुआ। इससे पिछड़े समूहों में भी ऊंच-नीच बढ़ी है। कई पिछड़ी जातियां सामाजिक और आरक्षण की दौड़ में पिछड़ी रह गई हैं। जाति गणना के अपने खतरे हैं। इससे जातीय खाई और ज्यादा बढ़ने की आशंका है। शायद यही वजह है कि 1951 की जनगणना के दौरान भी जाति गणना की मांग उठी थी, तब गृह मंत्री के नाते सरदार पटेल ने उसे खारिज कर दिया था, जिसका समर्थन आरक्षण लाने वाले आंबेडकर के साथ नेहरू और मौलाना आजाद तक ने किया था।  

आरक्षण के मूल में विचार रहा है कि आरक्षण के जरिए सामाजिक और आर्थिक से रूप से पिछड़े रह गए समूह आने आएंगे और इस तरह वे पहले से सामाजिक और आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में रहे समूहों की बराकी कर पाएंगे। लेकिन जातिवाद आधारित आरक्षण ने जातिवाद खत्म नहीं किया है, बल्कि और बढ़ाया है। हर जाति अपने-अपने जातीय खांचे को और मजबूत और ऊंचा बनाती जा रही है। जातीय समूह आरक्षण को अपना जन्म-जन्मांतर का अधिकार मानने लगे हैं। इसलिए, जब भी आरक्षण को लेकर चचर्चा होती है, जातीय समूह एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। इससे साफ है कि आरक्षण के जरिए जातीय बराबरी का जो विचार था, वह कहीं न कहीं कमजोर हुआ है।

वोट बैंक बढ़ाना जातिवादी राजनीति का उद्देश्य
आज की राजनीति, चाहे जिस भी पक्ष की क्यों न हो, उसका एक मात्र उद्देश्य जातीय आधार पर अपना वोट बैंक बढ़ाना और उसके जरिए सत्ता हासिल करना रह गया है। इसलिए वह अपने-अपने हिसाब से कभी जाति जनगणना तो कभी जातिवाद आध्धारित आरक्षण की मांग को हवा देती रहती है। दिलचस्प यह है कि सामाजिक खाई बढ़ाने वाले इस विचार को सामाजिक समता के विचार से जोड़ दिया जाता है।

मौजूदा राजनीति का महात्मा गांधी या आचार्य विनोबा भावे की तरह रचनात्मक लक्ष्य नहीं है, वह समतावादी समाज बनाने की सोच को लेकर सर्जनात्मक विचार नहीं रखती, इसलिए सामाजिक विभेद को रोकने में उसकी दिलचस्पी भी नहीं है। जाति जनगणना जैसी मांगें इसी राजनीति का विस्तार है। भारतीय जनता पार्टी की सोच मौजूदा राजनीतिक दर्शन से कुछ अलग रही है। वह समन्वयवादी हिंदुत्व और सनातनी एकता के विचार से प्रेरित है, इसलिए, जातीय विभेद की यह परीक्ष विरोधी रही है। पिछड़े समूह व हिंदुत्व के वैचारिक दर्शन की सोच वाले मोदी के उभार ने मंडलवादी और जाति आधारित राजनीति को बड़ी चुनौती दी।

भाजपा को बैकफुट पर आने की जरूरत नहीं
बदले माहौल में राजनीतिक चुनौतियों से जूझने की वजह से भाजपा का दबाव में आना स्वाभाविक लगता है। लेकिन इसी के साथ जातीय उन्माद को रोकने की उम्मीद भी मौजूदा राजनीति में उस से ज्यादा है, यह दायित्व भाजपा के लिए बड़ा है। सत्ता के लिए भारतीय समाज को जातिवाद के गर्त में धकेलने की विपक्ष की सनक के खतरे बड़े हैं, देश दशकों तक इसमें उलझा रहेगा। तीन दशकों तक उलझा ही था। भारत का अतीत भी बहुत कष्टदायक है, देश का विभाजन ही सिर्फ इसलिए हुआ कि मुस्लिम हिंदुओं दुओं के के साथ नहीं रहना चाहते थे। परिणाम ये हुआ कि भारत तीन राष्ट्र में बंटा हुआ है। उस वक्त मुस्लिम भावना को भड़काने वाले भी सत्ता की ही राजनीति कर रहे थे। केवाल सत्ता के लिए मुल्क को बंट जाने दिया।

आज भी भारतीय समाज सांप्रदायिक आधार पर बंटा हुआ है। अब जातिवाद के आधार पर भी समाज के बंटने का खतरा बढ़ रहा है। भाजपा व संघ की ओर से भारतीयता प समावेशी हिंदुत्व की भावना से सामाजिक कड़वाहट मिटाने की कोशिश को जा रही है, लेकिन विपक्ष की जातिवादी राजनीति इस प्रयास में अवरोधक बन सकती है। तक अब देखना होगा कि वह मंडलवादी राजनीति को फिर से वैकफुट पर कर पाती है या नहीं। वैसे भाजपा को किसी भी स्थिति में बैकफुट पर आने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि 2024 के आम म चुनाव में हिंदी क्षेत्र एमपी, बिहार, छग, हिमाचल, उत्तराखंड, दिल्ली में बड़ी सफलता मिली।
उमेश चतुर्वेदी: (राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ स्तंभकार हैं, यह उनके अपने विचार हैं। )

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