नई दिल्ली। भारत और इंग्लैंड के खिलाफ रांची में खेले जा रहे चौथे टेस्ट में जसप्रीत बुमराह को रेस्ट दिया गया है। उनके स्थान पर बंगाल के पेसर आकाश दीप को खेलने का मौका मिला। आकाश ने धमाकेदार टेस्ट डेब्यू किया और अपने पहले 6 ओवर में ही 3 विकेट झटक लिए थे। हालांकि, एक दौर ऐसा भी था, जब उनका क्रिकेट करियर थम सा गया था। आकाश दीप ने पहले दिन का खेल खत्म होने के बाद 2015 से जुड़ा एक किस्सा साझा किया।
आकाश दीप ने बताया कि 2015 में पिता को लकवा मार गया था और इलाज में लापरवाही के कारण उनकी मौत हो गई थी। इसी साल उनके भाई का निधन भी हो गया था। अपनी कहानी सुनाते वक्त आकाश का गला भर आया था। उन्होंने कहा, पिताजी चाहते थे कि मैं जिंदगी में कुछ करूं। लेकिन, मुझे इस बात का मलाल रहेगा कि वो जब तक जिंदा रहे, मैं कुछ नहीं कर पाया। ये कहने के बाद उनकी आंखों में आंसू आ गए थे। लेकिन आकाश ने किसी तरह अपने को संभाल लिया। उन्होंने डेब्यू टेस्ट में अपने 3 विकेट पिता को समर्पित किए।
आकाश ने 18 साल की उम्र में रेड बॉल पकड़ी थी
आकाश दीप के पिता शिक्षक थे और चाहते थे कि बेटा भी पढ़े-लिखे। लेकिन, आकाश को क्रिकेट का जुनून था। लेकिन, बिहार के सासाराम के उनके गांव में क्रिकेट खेलने के लिए कोई सुविधा नहीं था। जब उनसे ये पूछा गया कि उन्होंने बचपन में कैसे क्रिकेट खेलना शुरू किया, तो उन्होंने कहा था, "मेरे बचपन में क्रिकेट था ही नहीं।" उन्होंने 18 साल की उम्र में हाथ में रेड बॉल पकड़ी थी। हालांकि, 9 साल बाद वो टीम इंडिया में पहुंच गए।
नो बॉल को लेकर निराश नहीं थे आकाश
आकाश को डेब्यू टेस्ट से पहले जसप्रीत बुमराह से अहम सलाह मिली थी और उस पर अमल करके ही आकाश ने इंग्लैंड की बल्लेबाजी की कमर तोड़ दी थी। उन्होंने जैक क्राउली को अपनी अंदर आती गेंद से बोल्ड कर दिया था। लेकिन, वो नो-बॉल थी। लेकिन, इससे आकाश मायूस नहीं हुए थे। उन्होंने इसे लेकर कहा, "एक खिलाड़ी के तौर पर मुझे बहुत बुरा नहीं लगा क्योंकि मुझे पता था कि अगर मैं उन्हें आउट नहीं कर पाया तो कोई और गेंदबाज क्राउली का शिकार कर देगा।" इसके बाद उन्होंने बेन डकेट और ओली पोप को भी आउट किया। इसके बाद लंच से पहले क्राउली को दोबारा बोल्ड किया और इस बार ये नो बॉल नहीं थी।
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आकाश ने डेब्यू को लेकर कहा, "मुझे अपनी टेस्ट कैप उस स्थान के बीच में मिली जहां मैं रहता हूं और जहां से मैं क्रिकेट खेलता हूं। लेकिन डेहरी से रांची तक की यात्रा लंबी और कठिन थी और इस यात्रा में एक दशक लग गया।