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Aman Sehrawat statement on Paris Olympics Bronze medal: अमन सेहरावत ने 11 की उम्र में माता-पिता को खो दिया था और 21 साल में ओलंपिक मेडलिस्ट बन गए। उन्होंने अपना पदक दिवंगत माता-पिता को समर्पित किया।

नई दिल्ली। विनेश फोगाट के साथ जो हुआ, उसके बाद पूरे देश को कुश्ती से एक मेडल की आस थी और वो उम्मीद पूरी की 21 साल के अमन सेहरावत ने। वो मेंस 57 किलोग्राम फ्री स्टाइल का सेमीफाइनल मुकाबला महज 1 मिनट के अंदर हार गए थे। लेकिन, ब्रॉन्ज मेडल की बाउट में अमन ने इसकी कसर पूरी कर दी और प्यूर्टोरिको के पहलवान डारियन क्रूज को अपने सामने टिकने ही नहीं दिया और 13-5 के बड़े अंतर से हराया और पेरिस ओलंपिक में कुश्ती का पहला मेडल भारत की झोली में डाला। 

ये ओलंपिक में कुश्ती में भारत का लगातार पांचवां पदक है। 2008 के बीजिंग ओलंपिक में जो शुरुआत सुशील कुमार ने की थी, उसे अमन सेहरावत ने पेरिस में बरकरार रखा। हालांकि, सेमीफाइनल से एक रात पहले अमन के सामने भी विनेश फोगाट वाली चुनौती थी। सेमीफाइनल बाउट के बाद उनका वजन बढ़ गया था। पूरी रात जागकर उन्होंने इसे कम किया। 

भारतीय कोच वीरेंदर दहिया ने कहा, "सेमीफाइनल खत्म होने के बाद, अमन ने 1.5 किलो वजन बढ़ाया था। यह हर पहलवान के लिए स्वाभाविक है। उसने 1.5 घंटे तक मैट ट्रेनिंग की। फिर लगभग 12.30 बजे, हमने उसे जिम जाने के लिए कहा। वह सुबह 4 बजे अपने कमरे में वापस आ गया। सुबह 4.15 बजे, उसका वजन बिल्कुल ठीक था और नियंत्रण में था। फिर वह अपने कमरे में वापस आया और आराम किया।"

वेट ज्यादा होने के कारण रातभर सोया नहीं: अमन
अमन ने बताया, "मेरे लिए सोना बहुत मुश्किल हो गया है। मैं वजन कराने का इंतजार करता रहा। जब सुबह 7.15 बजे वेट हुआ और जब एक बार ये कंफर्म हो गया कि मेरा वजन तय लिमिट में है तो फिर ब्रेकफास्ट किया।" रात में मैट पर अमन ने भारत की झोली में एक ब्रॉन्ज मेडल डाल दिया। 

अमन के लिए आसान नहीं रहा सफर
अमन जब 10 साल के थे तो उनकी मां गुजर रहीं। इस सदमे से वो डिप्रेशन में आ गए थे। एक साल बाद पिता का भी निधन हो गया। 11 साल की उम्र में अमन अनाथ हो गए थे। इसलिए जब उन्होंने पेरिस में परचम लहराया तो अपना पदक दिवंगत माता-पिता को समर्पित किया। अमन ने कहा, ये पदक उनके(माता-पिता) के लिए है। वो तो ये भी नहीं जान सके कि मैं पहलवान बन गया हूं और ओलंपिक जैसा भी कुछ होता है। 

माता-पिता के गुजरने के बाद छत्रसाल स्टेडियम आए
अमन माता-पिता के गुजरने के बाद अपने चाचा के साथ रहे थे। फिर उन्हें दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम लाया गया। जहां आवासीय कार्यक्रम के तहत छोटे बच्चों को भर्ती किया जाता था और उन्हें चैंपियन पहलवान बनाया जाता था। हालांकि, शुरुआत में एकेडमी के कोच ने अमन की काबिलियत और दमखम को नहीं परखा और सिर्फ अनाथ समझकर रख लिया कि कम से कम यहां दो वक्त का खाना तो मिल जाएगा। लेकिन, अमन ने सबको चौंका दिया। वो सुबह सूरज निकलने से पहले उठ जाते थे और फिर रस्सी चढ़ने के साथ ही मिट्टी और मैट पर कुश्ती के दांवपेंच सीखने लगे। उन्होंने एक तपस्वी की तरह खुद को कुश्ती में पूरी तरह झोंक दिया। 

भारतीय कुश्ती में छत्रसाल स्टेडियम का क्या योगदान है, ये किसी से छुपा नहीं। ओलंपिक में भारत के लिए पदक जीतने वाले जितने भी पुरुष पहलवान हैं- सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त, बजरंग पूनिया और रवि दहिया ने इसी स्टेडियम में रहकर कुश्ती के दांवपेंच सीखे हैं। इन्हीं दिग्गजों के बीच रखकर अमन भी उन जैसे बन गए। हालांकि, अमन का सफऱ अभी शुरू हुआ है, उनकी नजर गोल्ड पर है। 

'मेरी नजर अब अगले ओलंपिक पर है'
अमन ने ब्रॉन्ज मेडल जीतने के बाद कहा, "मैं यहां स्वर्ण पदक जीतने के इरादे से आया था। लेकिन, इस ब्रॉन्ज मेडल ने मुझे लॉस एंजिल्स ओलंपिक के लिए प्रेरणा दे दी। सुशील पहलवान ने दो पदक जीते थे तो मैं भी दो या तीन मेडल जीत सकता हूं।"

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