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पिता के प्रति अपना प्यार और सम्मान जाहिर करने के मकसद से हर साल 16 जून को फादर्स डे मनाया जाता है। 

विकास शर्मा - रायपुर। पिता लोरी नहीं सुनाता। पिता छाती से भी नहीं लगाता। पर हर मुश्किल में संतान के लिए चट्टान सा खड़ा होता है। जीवन के हर पड़ाव में अपनों की खातिर अड़ा रहता है। पिता के लिए मां जैसी कविताएं नहीं लिखी गईं। पिता के लिए किस्से नहीं गढ़े गए। उसके समर्पण, उसकी तपस्या और उसके दर्द में छिपी मुस्कान को पहचान नहीं दी गई। पिता अनकहे संघर्ष जैसा रह गया। वह गलता रहा, दुनिया से लड़ता रहा, परिवार से बाहर आकर तपता रहा। पीता रहा अपमान के घूंट। फादर्स डे की शुभकामनाएं...इस कामना के साथ कि पिता को वह सम्मान मिले. जिसका वो हकदार है 

मां की ममता सर्वोपरि है, मगर संतान की खातिर पिता के त्याग और बलिदान को कम नहीं आंका जा सकता। इसकी मिसाल रंजीत ने पेश की है, जिसने दिव्यांग होने के बाद भी इकलौते बेटे की जीवन की रक्षा की खातिर पटना से रायपुर का कठिन सफर ट्रेनों में धक्के खाते हुए तय कर डाला। रंजीत का जीवन पैरों से नहीं हाथों से चलता है, मगर हृदय की बीमारी से जूझ रहे मासूम बेटे के इलाज के लिए वह अपना दुख भूल गया। हरिभूमि रंजीत कुमार रके संघर्ष की गाथा से लोगों को अवगत करा रहा है। मूलतः बिहार के नवादा जिले में रहने वाला 28 वर्षीय रंजीत के पैरों में जन्म से समस्या थी। सही इलाज नहीं होने की वजह से उसका जीवन पैरों के साथ हाथों के बल पर चलकर बीत रहा था, जिसे उसने अपना नसीब मान लिया था। विवाह के बाद अंकुश के रूप में उसके घर खुशियां आईं और वहां अपनी छोटी सी परचून की दुकान की मदद से खुशहाल जिंदगी व्यतीत कर रहा था।

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घर के चिराग को हृदय की बीमारी, अपना दुख दर्द भूल गया पिता

इस बीच परेशानी ने चुपके से उसके जीवन में दस्तक दी। अंकुश तीन माह का हुआ, तो उसे सांस लेने में दिक्कत हुई और पटना के कई अस्पतालों में इलाज के बाद उसके हृदय में छेद होने का पता चला। दिव्यांग पिता के पैरों तले जमीन खिसक गई, मगर उसने हार मानने के बजाए अपनी कमियों को दरकिनार कर बेटे की जिंदगी की खातिर हर तरह की चुनौती स्वीकारने का फैसला लिया। पटना के चिकित्सकों की सलाह पर उसने ट्रेनों में धक्के खाते हुए पत्नी और अबोध बेटे के साथ साढ़े सात सौ किलोमीटर की लंबी यात्रा की। भरी गर्मी में यात्रा इतनी कष्टप्रद थी कि लंबा सफर तय करने की वजह से उसके पैरों के साथ हाथों में भी छाले पड़ गए। सत्य साई हास्पिटल पहुंचने पर उसे व्हील चेयर सहित कई सुविधा मिली, मगर चुनौतियां भी उतनी ही थीं कि जिसका सामना कर उसने बेटे की बीमारी से जंग जीत ली।

लोगों ने मना किया 

रंजीत ने बताया कि,  पटना के डाक्टरों ने जब रायपुर के हॉस्पिटल का पता दिया, तो गांव वालों ने उसकी शारीरिक कमजोरी का हवाला देकर लंबा सफर नहीं करने की सलाह दी। कुछ ने निजी वाहन कर जाने को कहा, जिसके लिए भारी रकम की जरूरत थी। छोटी सी दुकान के भरोसे इतनी बड़ी राशि जुटा पाना संभव नहीं था। बेटे का इलाज हर हाल में जरूरी था, इसलिए लोगों के मना करने के बाद भी ट्रेन की स्लीपर बोगी में सफर करना उसने स्वीकार किया और कड़े संघर्ष के साथ आखिरकार अपनी मंजिल तक पहुंच ही गया।

पिता होने का फर्ज पूरा कर रहा : रंजीत

रंजीत ने हरिभूमि से कहा कि कोई भी पिता अपने बेटे को किसी तरह की परेशानी में नहीं देख सकता। अंकुश हृदय की बीमारी के रूप में शारीरिक समस्या से जूझ रहा था, जिससे निजात  दिलाना मेरा फर्ज था। मुझे इस बात की संतुष्टि है कि मैं पिता होने का फर्ज पूरा कर रहा हूं। उसने खुद आठवीं तक पढ़ाई कि है, मगर अपने बेटे को खूब पढ़ा- लिखाकर अफसर बनाने की इच्छा रखता है और इसके लिए उसे दुनिया की हर तरह की चुनौती स्वीकार है।

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