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आज हम आपको ले चल रहे हैं बस्तर्। बस्तर की हसीन वादियों में जहां पर्यटन के एक से बढ़कर एक खूबसूरत नजारे हैं। बस्तर आस्था के केंद्र रूप में भी जाना जाता है।

बस्तर की खूबसूरत हरी-भरी वादियों के बीच दंतेवाड़ा में लगता है बस्तर की आराध्य देवी का दरबार। बस्तर ही नहीं दुनियाभर में श्रद्धालुओं के लिए ये एक आस्था का केंद्र है। माना जाता है कि मां के दरबार से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटता। सच्चे मन से मांगी गई मुराद मां जरूर पूरी करती हैं। श्रद्धालु मां दंतेश्वरी को प्रसन्न करने के लिए नवरात्र में जोत जलाते हैं। प्रेम का भाव ऐसा कि देवी को लोग यहां माई कहकर पुकारते हैं। दंतेश्वरी मंदिर को 52 शक्ति पिठों में एक माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि देवी सती का दांत यहां गिरा था। बस्तर की इस आराध्य देवी के नाम पर ही दक्षिण बस्तर का नाम दंतेवाड़ा पड़ा।

मंदिर प्रांगण में विराजी हैं मां भुवनेश्वरी

मां दंतेश्वरी के साथ ही मंदिर प्रांगण में ही होते हैं मां भुवनेश्वरी के दर्शन। जिन्हें मां दंतेश्वरी की छोटी बहन माना जाता है।ऊंची-ऊंची दीवारों से घिरे इस विशाल प्रांगण को मूर्तिकला की सुंदरता से सजाया गया है। देवी दंतेश्वरी बस्तर क्षेत्र के चालुक्य राजओं की कुल देवी थी और उन्होंने ही इस मंदिर की स्थापना कराई थी। इसी मंदिर परिसर में होते हैं दंतेश्वरी देवी की छोटी बहन मां भुवनेश्वरी के भी दर्शन। 

Bastars Kuldevi Maa Danteshwari

यहां है गरुड़ स्तंभ

गरूड़ स्तम्भ को लेकर मान्यता है कि इसकी ओर पीठकर दोनों हाथों को पीछे कर इसे पकड़ने से सारी मुरादें पूरी होती है। मां के दरबार में आने वाले श्रद्धालु पूरी कोशिश करते हैं कि वो इस गरूड़ स्तम्भ को अपनी बाहों में समेट लें। बत्तीस काष्ठ स्तम्भों और खपरैल की छत वाले महामण्डप, सिंह द्वार वाला ये मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। यहां मंदिर के गर्भगृह में होते हैं दंतेश्वरी माई के दर्शन। मंदिर में प्रवेश से पहले मुख्य द्वार के सामने स्थित है पर्वतीयकालीन गरुड़ स्तम्भ है। जो मंदिर की कई खासियतों में से एक है। माना जाता है जो भी श्रद्धालु इसकी ओर पीठकर अपने दोनों हाथों को छू लेता है तो उसके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। यही वजह है कि मां के दरबार में आने वाले श्रद्धालु एक बार गरुड़ स्तम्भ को अपनी बाहों में समेटने की कोशिश जरूर करते हैं।

इतिहास और परंपरा का स्मारक मंदिर

दक्षिण-पश्चिम में स्थित, पवित्र शंखिनी और डंकनी नदियों के संगम पर, दोनों नदियों के अलग-अलग रंग हैं।  ये प्राचिन मंदिर भारत की विरासत स्थल और बस्तर क्षेत्र के धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास का प्रतिनिधित्व करता है। ये विशाल मंदिर परिसर आज वास्तव में सदियों से इतिहास और परंपरा का एक स्मारक है। अपनी समृद्ध वास्तुकला और मूर्तिकला के साथ- साथ अपने जीवंत त्योहार और परंपराओं के लिए विश्वभर में पहचाना जाता है। इसके अंदरूनी हिस्से में लगे स्तंभ सीमेंट या चूना पत्थर के नहीं बल्कि सागौन की लकड़ी के हैं जिसपर ओडिशा के शिल्पकारों की नक्काशी देखते ही बनती है। दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में किया गया था।  काले पत्थर में तारीशी गई दंतेश्वरी माई की प्रतिमा अद्वितीय है। 

Maa Danteshwari

मंदिर में सिले हुए वस्त्र हैं वर्जित

भारत में ऐसे कई देवी मंदिर हैं जहां विशेष नियम और शर्तों के साथ ही श्रद्धालुओं को प्रवेश दिया जाता है। दंतेवाड़ा के मां दंतेश्वरी मंदिर में सिले हुए वस्त्र पहनकर प्रवेश वर्जित है। शास्त्रों में कहा गया है कि वस्त्र सिलने के बाद शुद्ध नहीं रहता इसलिए पूजन के समय बिना सिला हुआ कपड़ा पहना जाता है। हिन्दू धर्म में पूजा के समय धोती पहनी जाती है। 

 Danteshwari

भैरव बाबा मंदिर

अपना सर धड़ से अलग होने के बाद भैरवनाथ को अपनी गलती का एहसास हुआ और वो माता रानी से गलती की क्षमा मांगने लगे। दयालु माता रानी ने ना सिर्फ भैरवनाथ को माफ किया बल्कि उन्हें ये वरदान भी दिया कि जो भी श्रद्धालु मेरे दर्शनों के लिए आएगा उसकी यात्रा भैरवनाथ के दर्शन के बिना पूरी नहीं होगी।

ऐसे पहुंचें दंतेवाड़ा

सड़क, ट्रेन और हवाई मार्ग से दंतेवाड़ा पहुंचा जा सकता है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से दंतेवाड़ा के बीच करीब 400 किलोमीटर की दूरी को कवर करने के लिए कई लक्जरी बसें उपलब्ध हैं। दंतेवाड़ा, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना से अंतरराज्यीय बस सेवाओं से भी जुड़ा हुआ है। हैदराबाद और विशाखापट्टनम से नियमित बस सेवा के साथ ही दंतेवाड़ा के लिए ट्रेन रूट भी है जो दो नियमित ट्रेन के साथ विशाखापट्टनम से जुड़ा हुआ है। निकटतम हवाई अड्डा जगदलपुर है जो दंतेवाड़ा से महज 88 किलोमीटर की दूरी पर है। 

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