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छत्तीसगढ़ के मतदाताओं ने इस लोकसभा चुनाव में एक नया ट्रेंड बनाया है। चाहे वह कितने भी बड़े कद का नेता हो, यदि 'बाहरी' है तो...नहीं चलेगा।   

लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों ने छत्तीसगढ़ में भाजपा को 10 सीटों से नवाजकर खुश तो कर दिया, लेकिन क्या कोई मैसेज भी पार्टी को प्रदेश की जनता ने दे दिया है। क्या छत्तीसगढ़ की जनता भी अब क्षेत्रवाद पर भरोसा करने लगी है। क्या यहां भी अब प्रत्याशी का बाहरी या स्थानीय होना मुद्दा बन गया है। नतीजे तो कुछ इसी ओर इशारा कर रहे हैं। इस चुनाव में चाहे कोरबा, महासमुंद, बिलासपुर और राजनांदगांव... इन सभी क्षेत्रों के वोटरों ने बाहरी प्रत्याशियों को नकार दिया है।  

लोकसभा चुनाव के इतिहास में झांके तो ऐसे अनेक उदाहरण छत्तीसगढ़ में मौजूद हैं, जब बाहर से जाकर प्रत्याशियों ने बड़े अंतर से जीत हासिल की है। स्व. दिलीप सिंह जूदेव जशपुर से जांजगीर आकर चुनाव लड़ते हैं और बड़े अंतर से चुनाव जीत जाते हैं। इसी तरह मुंगेली के समीप लिमहा गांव के निवासी डॉ. प्रभात मिश्रा भी जांजगीर से सांसद बने। रायपुर निवासी विद्याचरण शुक्ल भी महासमुंद से सांसद बनते रहे। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं। 

दोनो दलों के बाहरी प्रत्याशी नहीं चले

लेकिन साल 2024 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने जैसे ही कोरबा से सुश्री सरोज पांडेय का नाम बतौर प्रत्याशी घोषित किया, वहां के कांग्रेसजनों ने सुश्री पांडेय को बाहरी बताना शुरू कर दिया। कांग्रेसियों ने यह नहीं सोचा कि, उनकी ओर से तो 3 प्रत्याशी बाहरी हैं। हालांकि आखिरकार मतदाताओं ने तीनो कांग्रेस प्रत्याशियों का वही हश्र किया जो सुश्री पांडेय का हुआ। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को राजनांदगांव में बड़ी हार का सामना करना पड़ा। प्रदेश के पूर्व गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू भी साहू बहुल माने जाने वाली महासमुंद सीट से चुनाव हार गए। वहीं भिलाई के युवा विधायक देवेंद्र यादव को भी बिलासपुर क्षेत्र की जनता ने अपना नेता मानने से इनकार कर दिया।

केवल बाहरी कार्ड...या कारण कुछ और भी 

तो क्या यह मान लिया जाए कि, इन चारों सीटों पर नतीजे को केवल 'बाहरी प्रत्याशी' के शोर ने ही प्रभावित किया। जी नहीं...किसी भी जीत और हार के लिए केवल कोई एक कारण ही जिम्मेदार नहीं होता। छत्तीसगढ़ के इन चार उदाहरणों में से दो तो बड़े नेता हैं। एक पूर्व मुख्यमंत्री तो दूसरी भी पार्टी के कई राष्ट्रीय स्तर के पदों पर रहने के अलावा सांसद, विधायक, महापौर तीनों एक साथ रहने की रिकार्डधारी। तो क्या जनता से ज्यादा इनकी उम्मीदवारी अपनों को ही नागवार गुजरी...?

अपनों की नाराजगी खुलकर सामने आई

राजनांदगांव में कांग्रेस प्रत्याशी घोषित होने के बाद कार्यकर्ता सम्मेलन में पहुंचे भूपेश बघेल को तो अपनों ने ही बाकायदा मंच से सुना दिया था। कुछ यही हाल कोरबा में भी रहा। पूर्व सांसद डॉ. बंशीलाल महतो के बेटे की नाराजगी जगजाहिर हो गई थी। इतना ही नहीं नतीजे ये बता रहे हैं कि, एक वर्तमान मंत्री के विधानसभा क्षेत्र में ही पार्टी प्रत्याशी को कम वोट मिले हैं। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से यदि प्रत्याशी नहीं होता तो कोरबा की हार लाखों में जा सकती थी। 

दुर्ग जिले से छह प्रत्याशी, जीता एक ही 

छत्तीसगढ़ की सियासत में दुर्ग जिले का दबदबा यूं तो पिछले कई दशकों से रहा है। प्रदेश की पिछली कांग्रेस सरकार में तो दुर्ग जिले का दबदबा साफ दिखाई दे रहा था। लेकिन संभवत: पहली बार ऐसा हुआ है कि, दुर्ग लोकसभा में दो स्थानीय प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने के अलावा इसी जिले से चार अन्य नेता दूसरे क्षेत्रों में प्रत्याशी बनाए गए हों। प्रत्याशी बनाए जाने से भी ज्यादा खास बात यह रही कि, इनमें से कोई भी चुनाव जीत नहीं पाया। 

मंत्री पद के दो बड़े दावेदार 

BJP
बृजमोहन अग्रवाल और विजय बघेल

अंत में अब लाख टके का सवाल यह उठता है कि, क्या केंद्र की सरकार में इस बार छत्तीसगढ़ से कोई सांसद बड़ा मंत्रालय हासिल कर पाएगा। प्रदेश ने केंद्र में सरकार बनाने जा रही भारतीय जनता पार्टी को दस सांसद दिए हैं। इनमें दो तो बड़े कद्दावर नेता हैं। अपना कद इन दोनों ने जीत में मतों के अंतर से भी साबित किया है। हालांकि हाल के कुछ दशकों में छत्तीसगढ़ के कई मंत्री केंद्र की सरकार में रहे जरूर हैं, लेकिन उनके पास ऐसा कोई मंत्रालय नहीं रहा जिसके जरिए वे प्रदेश का कोई भला करने की स्थिति में रहे हों। बहरहाल नतीजों के बाद अब छत्तीसगढ़ के लिहाज से केंद्र सरकार को लेकर केवल एक ही जिज्ञासा बची है। क्या बृजमोहन अग्रवाल केंद्र में कैबिनेट मंत्री बनाए जाएंगे। क्या उनको कोई बड़ा मंत्रालय मिलेगा। क्या पिछड़ा वर्ग को साधने के नाम पर विजय बघेल मंत्री बनाए जाएंगे। या फिर आदिवासी मुख्यमंत्री देने के बाद भाजपा नेतृत्व केंद्र में दो मंत्री प्रदेश को देने के बारे में सोचेगी?

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