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मंदरौद गांव के मोहन साहू ने अनूठी पहल की है। उन्‍होंने परिदों को सुरक्षित रखने के लिए कृत्रिम 3000 घोंसले बनाए है।

यशवंत गंजीर - कुरुद। शहर तो शहर आजकल गांवों में भी घरेलू चिड़या (गौरैया) नाम मात्र रह गई है। बहुत ही कम देखने को मिलती है। इसकी वजह स्पष्ट है कि, बड़ी-बड़ी इमारतों के बीच हम इन पक्षियों  को उनका घोसला  देना भूल गए है , लेकिन विलुप्त होते इन पक्षियों को बचाने कुरुद के एक शख्स पर ऐसी धुन सवार है कि वह इन बेजुबानों के आशियानों पर अब-तक करीब लाखों रुपए खर्च कर चुका है। गौरतलब है कि, कुरुद अंतर्गत मंदरौद गांव के 24 वर्षीय मोहन साहू साल 2018 से विलुप्त  हो  रहे गौरेया पक्षी के साथ अन्य पक्षियों को बचाने प्रयास के  कर रहे हैं। स्वयं के खर्च पर पक्षियों के लिए आशियाना बनाकर मंदरौद के अलावा आसपास के दर्जनों गांवों में बांट चुके हैं। अब तक वे 2500 से अधिक लकड़ी के तथा 600 के करीब टिन-पीपा के घोसला तैयार कर चुके हैं। 

पक्षी संरक्षण के क्षेत्र में उनके अनुकरणीय कार्य के लिए उन्हें ग्लोबल स्कालर्स फाउंडेशन पुणे के द्वारा समाज भूषण अवार्ड से एवं समाज गौरव समिति रायपुर द्वारा प्रशंसा प्रमाण-पत्र देकर सम्मानित किया गया है। मोहन ने मंदरौद के अलावा सेलदीप, जोरातराई, सिंधौरीकला, सिंधौरीखुर्द, बानगर परसवानी, मेघा, अरौद, उमरदा,गाडाडीह, कमरौद, कुरूद, धमतरी, सिवनी, कुरूद कालेज, कातलबोड़ में निःशुल्क घोसले बांटे हैं जो गौरेया पक्षियों के लिए काफी कारगर साबित हुए हैं।  लकड़ी से बने घोसलों की बनावट इस तरह है कि वहां मोबाइल रेडिएशन प्रवेश नहीं करता, जिससे गौरेया अपना अंडा देकर आसानी से चूजे पैदा कर लेते हैं। कुछ जगहों पर लोहे के एंगल से तैयार घोसले में गौरेया चहकती-फुदकती नजर आती है।

आकर्षक है पक्षियों के लिए तैयार सकोरे

मोहन ने गौरेया आदि पक्षियों के लिए जो सकोरे तैयार किये हैं, वह चारों दिशाओं से खुले हुए हैं जो तेल- पीपा को काटकर बनाया गया है।

संरक्षित नहीं किया तो विलुप्त हो जाएगी गौरेया

मोहन साहू का कहना है कि, गौरेया पक्षी की 6 प्रजाति है। इसका वैज्ञानिक नाम पैसर डोमेस्टिक है। अंग्रेजी में इसे स्पैरो कहते है। भारत में इसे कई नाम से जानते हैं। हाउस स्पैरो, स्पेनिस स्पैरो, सिंड स्पैरो, डैड स्पेरो, सी स्पैरो, और डी स्पैरो। इनमे से हाउस स्पैरो ही घरो में चहकती फुदकती है। गौरैया पक्षी की प्रजाति कई कारणों से संकट में है जिसमें मोबाइल टावर के रेडिएशन के अलावा कांक्रीट से बने मकानों में उनके आने-जाने से लेकर दाना-पानी की व्यवस्था न होना प्रमुख है। इसे संरक्षित करने के लिए हम सबको पहल करनी चाहिए।

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