सुभाष शर्मा, अंबाला: मारकंडा नदी की वजह से क्षेत्र की पहचान है। यहां से गुजरने वाली यह नदी क्षेत्र में बसने वाले लाखों लोगों की आस्था का प्रतीक भी है। यहां प्राचीन समय से मारकंडा ऋषि का मंदिर बना हुआ है, जिसमें चांदन के रविवार को श्रद्धालु मत्था टेकने पहुंचते है। आस्था की प्रतीक यह नदी अब दूषित होकर रह गई है। लगातार दूषित होती मारकंडा नदी में पिछले करीब दो दशकों से जल प्रदूषण बढ़ा है। कई रिहायशी स्थानों का गंदा पानी मारकंडा नदी में गिराया जाता है। जिस कारण नदी का पानी उपयोग के योग्य नहीं रहा। एक समय था जब हिमाचल प्रदेश से निकलने वाली इस नदी के पवित्र जल को लोग ग्रहण करते थे लेकिन नदी के दूषित होने के बाद अब ऐसा नहीं है।
आस्था के नाम पर नदी का पानी कर रहे प्रदूषित
बता दें कि आस्था के नाम पर लोग नदी को दूषित कर रहे हैं। बीते सप्ताह दीपावली, गोवर्धन पूजा, भैयादूज जैसे बडे़ त्यौहार मनाए गए। श्रद्धालुओं द्वारा अपने घरों, अपने संस्थानों पर पूजा अर्चना, धार्मिक अनुष्ठान किए। जिसके बाद काफी संख्या में श्रद्धालुओं द्वारा मारकंडा नदी में पूजा व हवन करने के बाद का सारा सामान बहाया गया। पूजा में इस्तेमाल हुई सामग्री के नदी में ढेर देखने को मिल रहे हैं। यह कहें कि नदियों को दूषित करने में श्रद्धालु भी दोषी है तो कतई गलत नहीं होगा। मारकंडा नदी दूषित किए जाने का यह पहला मामला नहीं है। दशकों से नदी को दूषित किया जा रहा है। बीते अगस्त के महीने में प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड ने भी दूषित होती नदी का निरीक्षण किया था, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला।
नदी के अस्तित्व पर मंडरा रहा खतरा
मनोवैज्ञानिक तथ्य होना चाहिए कि कोई भी नदियों के पानी में गंदगी प्रवाहित न करें। लेकिन लोगों ने पारंपरिक मान्यताओं को नकार दिया और परिणाम यह हुआ कि जिन नदियों को कभी इतना पवित्र माना जाता था, उनमें स्नान मात्र से ही जन्मों के पाप धुल जाने की मान्यताएं प्रबल थी, उन्हीं नदियों का पानी इतना प्रदूषित हो गया कि उनका पानी पीने लायक भी नहीं बचा। नदियों को दूषित करने का सीधा दोषी मनुष्य ही है। यदि नदियों में गंदगी बहाने का क्रम ऐसे ही जारी रहा तो न ही नदियां बचेंगी और न ही नदियों का अस्तित्व। त्यौहार के दौरान व चांदन के रविवार को नदी के तट पर होने वाले कुछ समारोह व अनुष्ठानों ने भी पानी की पवित्रता से कम खिलवाड़ नहीं किया है, जिससे पानी जहरीला होता जा रहा है।
कभी नदी में सिक्के डालने की थी परंपरा
प्राचीनकाल में नदियों पर बने पुल से गुजरने वाले यात्री नदियों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए नदी के जल में कुछ सिक्के डाल दिया करते थे। यह वह दौर था जब सिक्के तांबे या चांदी के बने होते थे। तांबे और चांदी में पानी को शुद्ध करने का स्वाभाविक गुण रहता है। उसके बाद जब इस प्रकार के सिक्के चलन से बाहर हुए तो लोगों ने समय के प्रचलन के अनुसार सिक्के नदियों में डालने शुरू किए, लेकिन अब धार्मिक अनुष्ठान का अवशेष नदी में डाला जा रहा है जो चिंतनीय है।