देश को आजादी दिलाने में हरियाणा के लोगों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। देश आज 78वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहा है। हरियाणा में भी स्वतंत्रता दिवस को धूमधाम से मनाने की तैयारियां चल रही हैं। ऐसे में आजादी के इस सबसे बड़े पर्व पर हरियाणा के ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। तो चलिये जानते हैं हरियाणा के वीर सपूतों के बारे में....
नवाब अहमद अली गुलाम खान
फर्रुखनगर के शासक नवाब अहमद अली गुलाम खान ने भी 1857 की क्रांति में शहादत दी थी। दिल्ली के बादशाह ने 1857 की क्रांति के दौरान अहमद अली गुलाम खान को पत्र लिखकर मदद मांगी थी। नवाब अहमद अली ने अंग्रेजों से नाता तोड़कर बादशाह से हाथ मिला लिया। नवाब अहमद अली ने अपने लुहारों को बंदूक बनाने और अंग्रेजों के लिए बंदूकों की सप्लाई न देने का आदेश दे दिया। कई मोर्चों पर अंग्रेजों की टुकड़ियों को निशाना बनाया गया। इससे अंग्रेजों को गुस्सा आया और पूरी फौज फर्रुखनगर को चारों तरफ से घेर लिया।
दिल्ली और झज्जरी दरवाजों पर तोप तान दी गई। लेकिन, गोलों से भी दोनों विशालकाय दरवाजे नहीं टूटे। फिर हाथियों से दरवाजों को तोड़ने का प्रयास किया गया। करीब तीन दिन बाद अंग्रेज दरवाजों को तोड़ने में सफल हो गए, लेकिन तब तक दोनों तरफ से लाशों के ढेर लग चुके थे। नवाब अहमद अली गुलाम खान को हिरासत में लेने के बाद उन्हें त्वरित मृत्यदंड का फैसला सुना दिया गया। 23 जनवरी 1858 को उन्हें चांदनी चौक पर फांसी से लटका दिया गया। उन क्रांतिकारियों की याद में आज भी शीश महल के सामने शहीदी स्मारक बना है।
शेर नाहर सिंह (Sher Nahar Singh)
शेर नाहर सिंह का जन्म 6 अप्रैल 1823 को फरीदाबाद के बल्लभगढ़ में हुआ था। बचपन से ही उनमें देशभक्ति की भावना कूट कूटकर भरी थी। उन्होंने भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उन्होंने अपने शौर्य की बदौलत बल्लभगढ़ को 1828 में अपने अधिकार में ले लिया था। अंग्रेजों को हराने के लिए उन्होंने दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह जफर से समझौता किया और कई मोर्चों पर अंग्रेजी टुकड़ियों को हराया। हालांकि 23 सितंबर 1857 के दिन वे अंग्रेजों की हिरासत में आ गए। उन पर केस चलाया गया और 9 जनवरी 1858 को दिल्ली के चांदनी चौक पर सबके सामने फांसी पर लटका दिया।
नवाब अब्दुर्रहमान खान
झज्जर के नवाब अब्दुर्रहमान खान ने 1845 में अपनी गद्दी संभाली थी। उनके पिता क्रूर और विलासी थी। लेकिन, उन्हें उत्तराधिकारी गुण अपने दादा फैज मोहम्मद से मिले। गद्दी संभालते ही उन्होंने अपने पिता के अत्याचारों से परेशान जनता के लिए कार्य शुरू किए। उन्होंने किसानों का लगान माफ किया और कई योजनाएं चलाईं। 1857 की क्रांति का बिगुल बजा तो नवाब अब्दुर्रहमान खान भी अपनी जनता के साथ इस क्रांति में कूद गए। वे अंग्रेजों की पकड़ में आए तो केस चलाने के बाद 17 अक्टूबर 1867 को मृत्यु दंड का फरमान सुना दिया गया। फरमान सुनाने के पांच दिन बाद 23 अक्टूबर 1857 को लाल किले के सामने उन्हें फांसी दे दी गई।
लाला हुकम चंद जैन और मिर्जा मुनीर बेग
लाला हुकुमचंद जैन का जन्म सन 1816 में हांसी में दुनीचंद जैन के घर हुआ था। दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफर ने उनकी योग्यता देखकर उन्हें हांसी और करनाल जिले का कानूनगो नियुक्त किया था। करीब सात साल बाद वे हांसी लौट आए। हांसी में 1857 में क्रांति का बिगुल बजा तो लाल हुकम चंद भी इस समर में कूद गए। उन्होंने बादशाह बहादुर शाह जफर को पत्र लिखकर मदद मांगी।
यह पत्र अंग्रेजों के हाथों लग गया। इसके बाद अंग्रेजों ने लाला हुकम चंद जैन और उनके सहयोगी मुनीर बेग को हिरासत में लिया और कड़ी यातनाएं देने के बाद 19 जनवरी 1858 को उनके घर के सामने ही फांसी पर लटका दिया। बताया जाता है कि मुनीर बेग का शव जलाया गया था, लेकिन लाला हुकुमचंद का शव दफना दिया गया था। अंग्रेज लाला हुकुमचंद से इतने आक्रोशित थे कि उनके भतीजे फकीरचंद को भी अदालत से बरी होने के बावजूद फंदे पर लटका दिया था।